वृन्दावन के सातवें ठाकुर श्री गोपाल भट्ट जी महाराज

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त्रिभंग ललित छवि के सबसे लाडले और स्वरूप में सबसे छोटे ठाकुर श्री राधा रमण लाल जी महाराज इनके प्रकट कर्ता अनन्य प्रेमी अतिशय विद्वान दैन्य एवम विनम्रता की साक्षात मूर्ति गोस्वामी श्री गोपाल भट्ट जी महाराज
श्री गोपाल भट्ट जी महाराज दक्षिण के रहने वाले थे श्रीरँगम के निकट एक बेलङ्गुड़ी नामक कस्बा यहां के एक वेद पाठी ब्राह्मण परिवार में गोपाल भट्ट जी का जन्म हुआ गोपाल भट्ट जी के पिता श्री वेकेंट भट्ट जी परम् विद्वान थे श्री रँगम में इनकी सेवा भी लगती थी वेद शास्त्रो के प्रखर विद्वान ज्ञाता थे वेकेंट भट्ट जी उस समय के परम् विद्वान भी थे दक्षिण के और सामर्थ्यवान भी थे सम्पन्न परिवार था सभी सुख सुविधाएं परिवार में किसी बात की कोई कमी नही एक बार चैतन्य महाप्रभु भारत भ्रमण को निकले थे दक्षिण ओर जा रहे थे तो चातुर्मास लग गया सन्त जन साधु जन चातुर्मास में विचरण नही करते गमन नही किया करते तो श्री चैतन्य देव ने सोचा कि यही श्री रँगम में रुकते है भट्ट जी को जानते थे अतः वही रुके चूँकि साधु जन चातुर्मास में कोई न कोई भजन अनुष्ठान करते हैं सोचा यही रहकर करेंगे भट्ट जी बहुत साधु सेवी भी थे गोपाल भट्ट जी के पिता और किसी बात की कोई कमी तो थी ही नहीं अतः चैतन्य देव के लिए अनुष्ठान हेतु सारी व्यवस्था कर दी और अपने पुत्र श्री गोपाल भट्ट जी को जो उस समय 11 वर्ष के थे चैतन्य देव की सेवा में लगा दिया ध्यान देने योग्य विषय है ये सभी साधक परिवारों के लिए कि बालक में यदि संस्कार डालने है तो स्वयं भी आचरण माता पिता को वैसा ही करना होगा और बच्चो को भी सिखाना होगा पहले घर ग्रहस्थी में रहते हुए भी सब साधु जीवन ही व्यतीत करते थे साधु माने वेश साधु का नही साधु का एक अर्थ अच्छा सात्विक शुद्ध भी होता है और माता पिता स्वयं भी परमार्थ करते थे बच्चो से भी करवाते थे आज तो माता पिता केवल एक ही शिक्षा बच्चो को देते है मातु पिता बालकन बुलावहीँ उदर भरे सोई ज्ञान सिखावहिं गोस्वामी जी को सब कुछ पहले ही पता था आगे चलकर कैसा युग आएगा इसलिए पहले ही लिख गए कि जैसे पशु पक्षी अपने बच्चो को पेट कैसे भरना है छीन कर चोरी करके या और कैसे भी केवल अपना पेट भरना है बाकी इसके अलावा कुछ नही करना अपने से मतलब रखो बाकी दुनिया भाड़ में जाये सन्त जन कहते हैं कि जब पहले ही बच्चो को ऐसी शिक्षा देंगे माता पिता तो बाद में जब बच्चे नही पूँछते तो रोते क्यों है आप ही ने तो सिखाया था अपने से मतलब रखो अपना पेट भरो दूसरों से कुछ मतलब नही तो आगे चलकर माता पिता भी ऐसे बच्चो के लिए दूसरे ही हो जाते है लेकिन पहले के युग मे माता पिता धर्म सिखाते थे बच्चो को साधु सन्तो की सेवा में लगाते थे ऐसे ही वेकेंट भट्ट जी ने गोपाल भट्ट जी को चैतन्य देव की सेवा में लगा दिया इतने मन से भाव से सेवा की गोपाल भट्ट जी ने कि महाप्रभु जी चैतन्य देव जी उनसे अतिशय प्रसन्न हो गए जब चलने लगे चातुर्मास के पश्चात तो गोपाल भट्ट जी ने विनती की प्रभु मुझे भी अपने साथ ले चलिए महाप्रभु जी ने कहा नहीं गोपाल अभी हम तुम्हें अपने साथ नही ले जा सकते कुछ समय और यही रहकर अपने पिता के सान्निध्य में अध्धयन करो उसके बाद समय आने पर तुम श्री धाम वृन्दावन चले जाना वहां तुम्हे सनातन गोस्वामी रूप गोस्वामी मिलेंगे उनके छत्र छाया में रहते हुए तुम वहां वृंदावन में भजन करना गोपाल भट्ट जी ने आज्ञा शिरोधार्य की और वही बेलङ्गुड़ी में रहते हुए अध्धयन करने लगे अपने पिता के सान्निध्य में। एक बार पिता पुत्र दोनों नेपाल गए मुक्तिनाथ के दर्शन करने वहां गंण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे तब गोपाल भट्ट जी को शालिग्राम जी मिले साथ ले आये अपने घर दोनों पिता पुत्र सेवा पूजा करते थे शालिग्राम जी की बहुत प्रेम से भाव से ये इनके निजी ठाकुर थे अब अपने ही घर में इनका देवालय बनाया हुआ था वही सेवा पूजा आदिक करते थे समय के साथ पिता की आयु पूरी हुई वेकेंट भट्ट जी का शरीर छूट गया अब गोपाल भट्ट जी अपने शालिग्राम जी को लेकर श्री धाम वृन्दावन की यात्रा पर चल दिये पिता की सारी उत्तर क्रियाएं विधि विधान से करने के बाद महाप्रभु जी की ऐसी ही आज्ञा थी सो चल दिये वृन्दावन की ओर।



त्रिभंग ललित छवि के सबसे लाडले और स्वरूप में सबसे छोटे ठाकुर श्री राधा रमण लाल जी महाराज इनके प्रकट कर्ता अनन्य प्रेमी अतिशय विद्वान दैन्य एवम विनम्रता की साक्षात मूर्ति गोस्वामी श्री गोपाल भट्ट जी महाराज श्री गोपाल भट्ट जी महाराज दक्षिण के रहने वाले थे श्रीरँगम के निकट एक बेलङ्गुड़ी नामक कस्बा यहां के एक वेद पाठी ब्राह्मण परिवार में गोपाल भट्ट जी का जन्म हुआ गोपाल भट्ट जी के पिता श्री वेकेंट भट्ट जी परम् विद्वान थे श्री रँगम में इनकी सेवा भी लगती थी वेद शास्त्रो के प्रखर विद्वान ज्ञाता थे वेकेंट भट्ट जी उस समय के परम् विद्वान भी थे दक्षिण के और सामर्थ्यवान भी थे सम्पन्न परिवार था सभी सुख सुविधाएं परिवार में किसी बात की कोई कमी नही एक बार चैतन्य महाप्रभु भारत भ्रमण को निकले थे दक्षिण ओर जा रहे थे तो चातुर्मास लग गया सन्त जन साधु जन चातुर्मास में विचरण नही करते गमन नही किया करते तो श्री चैतन्य देव ने सोचा कि यही श्री रँगम में रुकते है भट्ट जी को जानते थे अतः वही रुके चूँकि साधु जन चातुर्मास में कोई न कोई भजन अनुष्ठान करते हैं सोचा यही रहकर करेंगे भट्ट जी बहुत साधु सेवी भी थे गोपाल भट्ट जी के पिता और किसी बात की कोई कमी तो थी ही नहीं अतः चैतन्य देव के लिए अनुष्ठान हेतु सारी व्यवस्था कर दी और अपने पुत्र श्री गोपाल भट्ट जी को जो उस समय 11 वर्ष के थे चैतन्य देव की सेवा में लगा दिया ध्यान देने योग्य विषय है ये सभी साधक परिवारों के लिए कि बालक में यदि संस्कार डालने है तो स्वयं भी आचरण माता पिता को वैसा ही करना होगा और बच्चो को भी सिखाना होगा पहले घर ग्रहस्थी में रहते हुए भी सब साधु जीवन ही व्यतीत करते थे साधु माने वेश साधु का नही साधु का एक अर्थ अच्छा सात्विक शुद्ध भी होता है और माता पिता स्वयं भी परमार्थ करते थे बच्चो से भी करवाते थे आज तो माता पिता केवल एक ही शिक्षा बच्चो को देते है मातु पिता बालकन बुलावहीँ उदर भरे सोई ज्ञान सिखावहिं गोस्वामी जी को सब कुछ पहले ही पता था आगे चलकर कैसा युग आएगा इसलिए पहले ही लिख गए कि जैसे पशु पक्षी अपने बच्चो को पेट कैसे भरना है छीन कर चोरी करके या और कैसे भी केवल अपना पेट भरना है बाकी इसके अलावा कुछ नही करना अपने से मतलब रखो बाकी दुनिया भाड़ में जाये सन्त जन कहते हैं कि जब पहले ही बच्चो को ऐसी शिक्षा देंगे माता पिता तो बाद में जब बच्चे नही पूँछते तो रोते क्यों है आप ही ने तो सिखाया था अपने से मतलब रखो अपना पेट भरो दूसरों से कुछ मतलब नही तो आगे चलकर माता पिता भी ऐसे बच्चो के लिए दूसरे ही हो जाते है लेकिन पहले के युग मे माता पिता धर्म सिखाते थे बच्चो को साधु सन्तो की सेवा में लगाते थे ऐसे ही वेकेंट भट्ट जी ने गोपाल भट्ट जी को चैतन्य देव की सेवा में लगा दिया इतने मन से भाव से सेवा की गोपाल भट्ट जी ने कि महाप्रभु जी चैतन्य देव जी उनसे अतिशय प्रसन्न हो गए जब चलने लगे चातुर्मास के पश्चात तो गोपाल भट्ट जी ने विनती की प्रभु मुझे भी अपने साथ ले चलिए महाप्रभु जी ने कहा नहीं गोपाल अभी हम तुम्हें अपने साथ नही ले जा सकते कुछ समय और यही रहकर अपने पिता के सान्निध्य में अध्धयन करो उसके बाद समय आने पर तुम श्री धाम वृन्दावन चले जाना वहां तुम्हे सनातन गोस्वामी रूप गोस्वामी मिलेंगे उनके छत्र छाया में रहते हुए तुम वहां वृंदावन में भजन करना गोपाल भट्ट जी ने आज्ञा शिरोधार्य की और वही बेलङ्गुड़ी में रहते हुए अध्धयन करने लगे अपने पिता के सान्निध्य में। एक बार पिता पुत्र दोनों नेपाल गए मुक्तिनाथ के दर्शन करने वहां गंण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे तब गोपाल भट्ट जी को शालिग्राम जी मिले साथ ले आये अपने घर दोनों पिता पुत्र सेवा पूजा करते थे शालिग्राम जी की बहुत प्रेम से भाव से ये इनके निजी ठाकुर थे अब अपने ही घर में इनका देवालय बनाया हुआ था वही सेवा पूजा आदिक करते थे समय के साथ पिता की आयु पूरी हुई वेकेंट भट्ट जी का शरीर छूट गया अब गोपाल भट्ट जी अपने शालिग्राम जी को लेकर श्री धाम वृन्दावन की यात्रा पर चल दिये पिता की सारी उत्तर क्रियाएं विधि विधान से करने के बाद महाप्रभु जी की ऐसी ही आज्ञा थी सो चल दिये वृन्दावन की ओर।

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