
धर्मो रक्षति रक्षितः
वनवासके समय पाण्डव द्वैतवनमें थे वनमें घूमते समय एक दिन उन्हें प्यास लगी। धर्मराज युधिष्ठिरने वृक्षपर चढ़कर इधर-उधर देखा। एक

वनवासके समय पाण्डव द्वैतवनमें थे वनमें घूमते समय एक दिन उन्हें प्यास लगी। धर्मराज युधिष्ठिरने वृक्षपर चढ़कर इधर-उधर देखा। एक

अपनी पुत्रीके दृढ़ निश्चयको देखकर धर्मात्मा नरेशने अधिक आग्रह करना उचित नहीं माना। देवर्षि नारदजीने भी सावित्रीके निश्चयकी प्रशंसा की।

ढूँड़ी भूसीकी कथा [ लालचका दण्ड ] एक गाँवमें एक गरीब ब्राह्मण-दम्पती रहते थे। वे भिक्षा माँग करके किसी तरहसे

बीमारीमें भी भगवत्कृपा बंगालके प्रसिद्ध नेता और धर्मप्राण श्रीअश्विनी कुमारदत्तके गुरुका नाम राजनारायण बसु था। ये बड़े भगवद्विश्वासी भक्त थे।

‘महाराज ! हमें जिनकी खोज थी, वे मिल गये। मन्त्रीने शिविरमें प्रवेश करके महाराजा वीरसिंहको शुभ सूचना दी। महाराजा सरिता-तटकी

पास आया और अत्यन्त कातर वाणीमें उसने पूछा ‘महात्मन्! प्रभु-प्राप्तिका मार्ग क्या है ?’ भगवान्को पानेके दो रास्ते हैं-संतने बताया।

एक बार महर्षि गालव जब प्रातः सूर्याय प्रदान कर रहे थे, उनकी अञ्जलिमें आकाशमार्गसे जाते हुए चित्रसेन गन्धर्वको थूकी हुई

सम्राट् भरतको चक्रवर्ती बनना था। वे दिग्विजय कर चुके थे, किंतु अभी वह अधूरी थी; क्योंकि उनके छोटे भाई पोदनापुरनरेश

शूरसेन प्रदेशमें किसी समय चित्रकेतु नामक अत्यन्त प्रतापी राजा थे। उनकी रानियोंकी तो संख्या ही करना कठिन है, किंतु संतान

‘भारतके सार्वभौम सम्राट महाराजाधिराज शिलादित्य – हर्षवर्धनकी जय हो वे चिरायु हो।’ सरस्वती पुत्रोंने प्रशस्ति गायी। गङ्गा-यमुनाके सङ्गमके ठीक सामने