
अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्
जैनपुराणकी कथा है कि एक बार श्रीबलदेव, वासुदेव और सात्यकि—ये तीनों बिना किसी सेवक या सैनिकके वनमें भटक गये। बात

जैनपुराणकी कथा है कि एक बार श्रीबलदेव, वासुदेव और सात्यकि—ये तीनों बिना किसी सेवक या सैनिकके वनमें भटक गये। बात

बात अठारहवीं शताब्दीकी है। पण्डित श्रीरामनाथ तर्कसिद्धान्तने अध्ययन समाप्त करके बंगालके विद्याकेन्द्र नवद्वीप नगरके बाहर अपनी कुटिया बना ली थी

नम्र बनो, कठोर नहीं ! एक चीनी सन्त बहुत बूढ़े हो गये। देखा कि अन्तिम समय निकट आ गया है,

जाने क्यों, सम्राट्की नींद एकाएक उड़ गयी। पलंगपर पड़े रहनेके बदले बादशाह उठकर बाहर निकल आया। निस्तब्ध रात्रि थी। पहरेदारने

लेखककी जिन्दगी लंदनमें एक निर्धन बालक रहता था। उसे पेट भरनेके लिये कई तरहके काम करने पड़ते थे। इसलिये वह

रात्रिका समय है। दक्षिणभारतके एक छोटे-से गाँवकी एक छोटी-सी कोठरीमें रेंड़ीके तेलका दीपक जल रहा है। कोठरीका कच्चा आँगन और

‘मेरा धन्य भाग्य है, भगवान् विष्णुने मुझे राजा बनाकर मेरे हृदयमें अपनी भक्ति भर दी है!’ अनन्त शयनतीर्थमें शेषशायी विष्णुके

सख्तीसे अधिक स्नेह एक खेतमें कुछ मजदूर निराई-गुड़ाईका काम कर रहे थे। एक घण्टा काम करनेके बाद वे सब बैठकर

एक घुड़सवार कहीं जा रहा था। उसके हाथसे चाबुक गिर पड़ा। उसके साथ उस समय बहुत से मुसाफिर पैदल चल

संवत् 1740 वि0 में गुजरात सौराष्ट्रमें भारी अकाल पड़ा था। अन्नके बिना मनुष्य और तृणके बिना पशु तड़प रहे थे।