
ईमानदारी सबसे बड़ी सिद्धि
संवत् 1740 वि0 में गुजरात सौराष्ट्रमें भारी अकाल पड़ा था। अन्नके बिना मनुष्य और तृणके बिना पशु तड़प रहे थे।

संवत् 1740 वि0 में गुजरात सौराष्ट्रमें भारी अकाल पड़ा था। अन्नके बिना मनुष्य और तृणके बिना पशु तड़प रहे थे।

हिपकलिके वंश के पुत्र सुन्द और उपसुन्द अत्यन्त पराक्रमी तथा उद्धत थे। वे अपने समयमें दैत्योंके मुखिया थे। दोनों सगे

पाँच झेन बोध-कथाएँ [झेन-साधना बौद्ध परम्पराके अन्तर्गत जापानमें विकसित हुई। जीवनकी सामान्य-सी दीखनेवाली घटनामें सत्यकी असामान्य अनुभूति थोड़े-से शब्दोंमें हो,

चार सौ वर्ष पहलेकी बात है। यूनानमें सरेनस नामके एक धनी व्यक्ति रहते थे। वे एक विशाल राज्यके अधिपति थे।

एक धनी व्यापारी मुसाफिरीमें रात बितानेके लिये किसी छोटे गाँवमें एक गरीबकी झोंपड़ीमें ठहरा। वहाँसे जाते समय वह अपनी सोनेकी

महाभारतका युद्ध समाप्त हो चुका। महाराज युधिष्ठिर एकराट्के रूपमें अभिषिक्त कर दिये गये। अब भगवान् श्रीकृष्ण सुभद्राको लेकर द्वारका लौट

एक बार महाराज करन्धम महाकालका दर्शन करने गये। कालभीतिने जब करन्धमको देखा, तब उन्हें भगवान् शंकरका वचन स्मरण हो आया।

एक बार भक्त हरिदासजी सप्तग्रामके जमींदार हिरण्य मजूमदारके यहाँ हरिनामका माहात्म्य वर्णन करते हुए बोले कि ‘ भक्तिपूर्वक हरिनाम लेनेसे

हमारे हितकी भाषाका प्रयोग एक धनी व्यक्तिके घरमें आग लग गयी। बाहर निकलनेका केवल एक दरवाजा था। वहाँ एक कमरे

(3)’तू गधा नहीं शेर है’ एक किसान अपने पके हुए खेतको बहुत-से मजदूरोंसे कटवा रहा था। जब थोड़ा-सा दिन बाकी