सफलताका मूल है-ज्ञान, कर्म और भक्तिका सामंजस्य
सफलताका मूल है-ज्ञान, कर्म और भक्तिका सामंजस्य भगवान् श्रीकृष्णसे नारदजीने एक बार कौतूहलवश पूछा कि उनका अनन्य भक्त कौन है?
सफलताका मूल है-ज्ञान, कर्म और भक्तिका सामंजस्य भगवान् श्रीकृष्णसे नारदजीने एक बार कौतूहलवश पूछा कि उनका अनन्य भक्त कौन है?
एक दिन बादशाह अकबरके दरबारमें बड़े जोरोंका कोलाहल सुनायी पड़ा। सभी लोग बीरबलके विरुद्ध नारे लगा रहे थे। आवाज आ
संयमका सुफल मनुष्यके विकासके लिये जिन गुणोंकी आवश्यकता है, उनमें संयमका बहुत महत्त्व है। संयमसे ही मनुष्यकी समस्त शारीरिक, मानसिक
समयके पंख एक बार एक कलाकारने अपने चित्रोंकी प्रदर्शनी लगायी। उसे देखनेके लिये नगरके सैकड़ों धनी-मानी व्यक्ति भी पहुंचे। एक
एक राजा जंगलके रास्ते कहीं जा रहा था। उसने देखा एक खेतमें एक जवान आदमी हल जोत रहा है। और
श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अपने मित्र श्रीगिरीशचन्द्र विद्यारत्नके साथ बंगालके कालना नामक गाँव जा रहे थे। मार्गमें उनकी दृष्टि एक लेटे
विजयके लिये सेनापति आवश्यक एक समयकी बात है। हैहयवंशी क्षत्रियोंने अपने प्रचण्ड पराक्रमसे अलौकिक समृद्धि अर्जित की। उनकी इस विपुल
गौड़ेश्वर वत्सराजका मन राजा मुञ्जके आदेश पालन और स्वकर्तव्य – निर्णयके बीच झूल रहा था। वह जानता था कि यदि
स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं0 श्रीविद्याधरजी गौड़ श्रुति स्मृति प्रतिपादित सनातन वैदिक धर्मके परम अनुयायी थे। कई ऐसे अवसर आये, जिनमें धार्मिक
अधिक तृष्णा नहीं करनी चाहिये किसी वन-प्रदेशमें एक भील रहा करता था। वह बहुत साहसी, वीर और श्रेष्ठ धनुर्धर था।