[38]*हनुमान जी की आत्मकथा *

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आज के विचार

(मेरी माँ मैथिली करुणा की सागर हैं-
हनुमान)
भाग-38

न कश्चिद् ना पराध्यति…
(वाल्मीकि रामायण)

भरत भैया ! दशानन का प्रभु श्रीराम ने उद्धार किया…

उसका वर्णन क्या करूँ ? … मैं तो यही मानता था कि… ये सब प्रभु श्रीराम की लीला थी… पर…

इनके ही तो पार्षद थे ये रावण कुम्भकर्ण इत्यादि…

आपको तो पता ही हैं भरत भैया ! जय और विजय ही तो ये सब बनकर आये थे…।

कैसी विलक्षण लीला करते हैं प्रभु… सब लीला है उनकी ।

और मुझ जैसों को महिमावन्त बना देते हैं… पर…

रावण मारा गया…।

मुझे ही आज्ञा दी थी प्रभु ने… जाओ हनुमान ! जाओ !…

मैथिली… मेरी प्रियतमा मैथिली को ये सूचना दो… कि दशग्रीव अब नही रहा… जाओ ! आहा ! मेरी वह प्रियतमा कितनी प्रसन्न होंगी… ये अंतरंग बातें मुझे ही बताते थे प्रभु ! उनके हृदय में उनकी आल्हादिनी किस तरह से विराजमान थीं ये मुझ से ज्यादा भला और कौन जान सकता है ।

मैं प्रभु के चरणों में प्रणाम करके चल पड़ा था… अशोक वाटिका की ओर…

…पर जाते हुए मेरी आँखों के सामने वही दृश्य बारम्बार उभर रहे थे… कि मेरी माँ मैथिली को किस तरह से प्रताड़ित किया था उन राक्षसियों ने ।

मेरे सामने… ओह ! वो नित्य ही ऐसा करती ही होंगी…

आज मैं उन सब को छोड़ूंगा नही… मैं क्रोध से भर गया था ।


ये क्या ! मेरी सूचना से पहले ही माँ मैथिली के पास ये समाचार पहुँच गया था कि दशग्रीव रावण को प्रभु ने मार दिया है ।

माँ मैथिली के आस-पास सब खड़ी थीं… सब राक्षसियाँ ।

मैं जब उतरा उस अशोक वाटिका में… और “जय श्रीराम” का मैंने उच्च स्वर में उदघोष किया… तो सब राक्षसियाँ डर के मारे काँप उठी और दूर जाकर खड़ी हो गयीं… बस पास में तो वह त्रिजटा ही थी ।

मैंने माँ के चरणों में प्रणाम किया… और रावण के मारे जाने की घटना सुना दी ।… मुझे पता है पवनपुत्र !… मुझे नित्य युद्ध के मैदान की समस्त घटना ये त्रिजटा आकर बता देती थीं… ये कहते हुए त्रिजटा की ओर बड़े प्रेम से देखा था… माँ ने ।

पर मेरे हृदय में तो त्रिजटा को छोड़कर अन्य समस्त राक्षसियों के प्रति अत्यंत क्रोध था… और मैंने अपने उस क्रोध को माँ के सामने प्रकट कर ही दिया ।

माँ ! आप आज्ञा दें… आपके आज्ञा की प्रतीक्षा में हूँ मैं ।

बड़े शान्त भाव से मुझे कहा माँ ने… कैसी आज्ञा हनुमान !

यही की इन समस्त राक्षसियों को मैं अभी मार देना चाहता हूँ…

इन्हें मसल दूँगा मैं… ओह ! आपको कैसे प्रताड़ित करती थीं ये ।

तलवार दिखा-दिखा कर… और तो और… आपको खा जाने की धमकी भी देती थीं… भरत भैया ! मैंने क्रोध में भर कर ये सारी बातें कहीं…।

माँ मैथिली ने मेरे मुख मण्डल को देखा… फिर दूर खड़ी उन राक्षसियों को देखा… जो मेरे इस प्रकार कहने से डर के मारे थर-थर काँप रही थीं ।

भरत भैया ! तभी मैंने अनुभव किया… माँ के अंदर करुणा का स्रोत फूट पड़ा था… ये क्या कह रहे हो पवनपुत्र ?

हाँ… माँ ! इन्होंने आपका अपराध किया है… इसलिए मैं इन्हें छोड़ूंगा नही ।

गम्भीर हो गयीं थीं माँ… मेरी बातें सुनकर ।

हनुमान ! क्या इस जगत में ऐसा कोई भी जीव है जिससे आज तक अपराध न हुआ हो ?

मैंने सोचा भी नही था कि माँ मुझ से ऐसा कहेंगी… मैं चकित था माँ मैथिली उनका पक्ष ले रही थीं… जिन्होंने उन्हें मात्र ताड़ना दी थी… दुःख दिया था… पर आश्चर्य ! उनके प्रति भी करुणा !

माँ बोलती गयीं… हनुमान ! इनका क्या अपराध है… इन्होंने तो अपने स्वामी रावण की आज्ञा का पालन किया है… इनका ये पक्ष देखा जाए तो ये दया की पात्र हैं मात्र ।

ईमानदारी से इन्होंने अपने स्वामी रावण की आज्ञा का पालन किया ।

हनुमान ! हाँ… तुमसे फिर भी चूक हुयी है अपने स्वामी के आज्ञा पालन में… पर इनसे नही हुयी…

मैं सुन रहा था माँ की करुणा इन राक्षसियों पर कैसे बरस रही थी ।

मुझ से आज्ञा पालन में चूक हुयी ?

हाँ… माँ बोलीं… और बड़ी दृढ़ता से बोलीं…

बताओ ! तुम्हारे स्वामी ने अभी तुम्हें क्या आज्ञा दी है… कि इन्हें मारकर आओ ?…

मैंने अपना सिर झुका लिया था… नही माँ !

फिर क्या आज्ञा मिली थी तुम्हें ? माँ बोलती गयीं ।

उनका ध्यान बेचारी डर से काँप रही उन राक्षसियों के ऊपर था ।

मुझे आज्ञा मिली थी कि मैं आपको ये सूचना दूँ… कि रावण मारा गया ।

मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया था… और मेरी माँ के करुणापूर्ण हृदय का दर्शन हो रहा था ।

भरत भैया ! इतनी करुणा तो प्रभु श्रीराम में भी मैंने नही देखी ।

माँ मैथिली ने मुझे एक रहस्य की बात बताई…

तुम्हें क्या लगता है… इस रावण की इतनी हिम्मत थी कि मुझे मेरे प्राण श्रीराम से अलग कर सके ?

पर मैं प्रेम करती हूँ… नही नही… मात्र प्रेम करती हूँ अपने प्राण श्रीराम से… ये कहना भी कितना कम है मेरे लिए ।

हम दोनों अलग ही कब हैं… एक हैं ।

पर हनुमान ! मेरे प्राण धन श्रीराम ने प्रतिज्ञा कर ली थी जब उन्होंने ऋषि मुनियों के अस्थियों के पर्वत देखे… कि मैं राक्षसों से विहीन कर दूँगा इस पृथ्वी को… बेचारे तप में लीन ऋषि मुनियों को मार-मार कर खा गए थे ये राक्षस… और उनके हड्डियों का पहाड़ बन गया था… ओह !

मेरे प्राण धन श्रीराम का हृदय द्रवित हो उठा था… कर ली थी उन्होंने प्रतिज्ञा… कि राक्षस विहीन करूँगा पृथ्वी को ।

पर राक्षस किस के द्वारा संचालित थे… मुख्य कौन था इन राक्षसों का ?… रावण !

मैंने विचार किया… रावण को मार देंगे तो राक्षस समाज अपने आप मर जाएगा ।

पर हनुमान ! नीति कहती हैं… बिना व्यक्तिगत अपराध के आप किसी और राज्य के नरेश को मार नही सकते… इससे लोक कीर्ति में हानि होती है…

मेरे प्राण धन का व्यक्तिगत तो कोई नुकसान किया नही था रावण ने ।

और अब प्रतिज्ञा कर चुके थे मेरे प्राण श्रीराम…।

मैं सोच में पड़ गयी… वध करेंगे रावण का मेरे प्रभु…

और अगर इन्होंने ऐसा किया तो लोक में इनकी निन्दा होगी ।

मैं कैसे सह सकती थी अपने प्राण धन की निन्दा ।

तब मैंने स्वयं ये निर्णय किया कि मैं ही रावण की लंका में जाऊँगी… ये सारी भूमिका मैंने ही बनाई थी… ताकि मेरे स्वामी श्रीराम लोक की अपकीर्ति से बच जाएँ… और लोक में ये बात फैले की… रावण ने राम की पत्नी का हरण किया इसलिये राम ने रावण का वध किया ।

मैंने लोक में अपकीर्ति से बचाने के लिये… अपने प्रभु श्रीराम को… स्वयं रावण के यहाँ आ गई… ये सब मेरा ही किया हुआ है… नही तो इस रावण की मजाल कि मुझे देख भी ले ।

हे हनुमान ! रावण को अपने धाम में भेज दिया है… प्रभु ने ।

फिर तुम इन बेचारी राक्षसियों के पीछे क्यों पड़े हो… अपराध किया है इन्होंने… पर अपराध किससे नही होता ?

भरत भैया ! मैंने माँ का ये रूप आज देखा… सारी ये लीला इन्हीं आद्यशक्ति की थी… ये सब जो-जो हुआ… सब इन्हीं ने किया था… ओह ! कैसा विलक्षण प्रेम है… माँ मैथिली का अपने प्राणधन श्रीराम के प्रति…।

स्वयं रावण के यहाँ रहकर… अपने प्राणप्रियतम श्रीराम को लोक निन्दा से बचाया… आज मुझे लगा… आद्य शक्ति ही मुख्य हैं और वही लीला कर रही हैं… ब्रह्म भी तो शक्ति के बिना अधूरा है…।

मैंने माँ मैथिली के चरणों में प्रणाम किया था ।

शेष चर्चा कल…

जनक सुता जग जननी जानकी
अतिशय प्रिय करुणा निधान की…

Harisharan

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