धर्म और अध्यात्म मार्ग के चार क्रमिक स्तर (अंक-५)



परम पूज्य श्री सद्गुरूदेव भगवान जी की असीम कृपा एवं उनके अमोघ आशीर्वाद से प्राप्त सुबोध के आधार पर, उन्हीं की सद्प्रेरणा से धर्म और अध्यात्म मार्ग के चार क्रमिक स्तर विषयक, इस महत्वपूर्ण चिंतन में आप सभी धार्मिक एवं अध्यात्मप्रेमी आदरणीय सज्जनों एवं विदुषी देवियों का हार्दिक अभिनन्दन एवं स्वागत है।


इस धरती पर प्रचलित प्रमुख आस्तिक समुदायों, धर्मों, सम्प्रदायों, मत, पंथों, मज़हबों की “ईश्वर संबन्धी” जो ज्ञान-विज्ञान की सैद्धांतिक (theorotical) और व्यावहारिक (practical) जीवन यात्रा हुआ करती है, विशेषरूप से “वैदिक सनातन हिन्दू धर्म” की, उसके “चार” क्रमिक पड़ाव या स्तर (stages) देखने, सुनने व समझने में आया करते हैं, जिनमें से इस चर्चा के विगत-

अंक-१ में पहले स्तर- “आस्तिकता” की; अंक-२ में, दूसरे स्तर- “धार्मिकता” की; अंक-३ में, तीसरे स्तर-“आध्यात्मिकता” की; विवेचना के बाद, कल के अंक-४ में “कृतकृत्यता” पर चर्चा का शुभारम्भ किया गया था, जिसका शेष भाग आज के इस अंक-५ में प्रस्तुत है:-


“कृतकृत्यता”-


धर्म और अध्यात्म मार्ग के चार क्रमिक स्तरों में, “चौथा एवं अंतिम स्तर” है- यह “कृतकृत्यता”। “कृतकृत्यता” का मतलब है- गुरूकृपा से साधक की, शारीरिक अस्मिताभाव से रहित होकर, “आत्मज्ञान एवं ईश्वर दर्शन” की अवस्थिति।

“आत्मा”, जिसकी भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में १२ विशेषताएँ बताई हैं, उनमें से एक है- “सर्वगतः”।

अर्थात् – “आत्मा” सर्वत्र व्याप्त है। इस सृष्टि का, जड़- चेतन, चर-अचर सबकुछ जो भी अस्तित्व है, वह “आत्मतत्व” से, भीतर और बाहर, पूर्णतः आच्छादित है। आत्मतत्व की ऐसी “सर्वगत” सहित, गीतोक्त अन्य ११ विशेषताओं की सम्यक् अनुभूति हो जाना ही “आत्मज्ञान” एवं “ईश्वरदर्शन” है।

“आत्मा” में अविनाशी “ज्ञान” है, अविनाशी “चैतन्य शक्ति” है, अविनाशी “प्रकाश” है, अविनाशी “आनन्द” है, अविनाशी “काल” है, अविनाशी “दिक्” (आकाश) है, अविनाशी “आनन्द” है और अविनाशी “क्रियाशीलता” तथा पंच महाभूतों, पंच तन्मात्राओं, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों एवं अन्तःकरणों से युक्त सभी प्राणियों व पदार्थोंवाली त्रिगुणात्मक एवं द्वन्द्वात्मक प्रकृति सहित, इन सबकी विपरीत, विनाशी स्थितियाँ भी, “आत्मा” में ही विद्यमान हैं।

धर्म और अध्यात्म मार्ग के इस “चौथे” एवं अंतिम स्तर – “कृतकृत्यता” की कुछ अन्य विलक्षणताओं का विवेचन निम्नवत् है-

(i) आध्यात्मिक यात्रा की इस “कृतकृत्यता” के क्षेत्र में विचरण करनेवाला “ज्ञानीभक्त”, हर समय, इस सृष्टि के हर पदार्थ में, हर प्राणी में, हर घटना में, हर छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी वस्तु में, विशालकाय ग्रहों, उपग्रहों, आकाशीय पिंडों व ब्रह्माण्डों आदि में, “पारब्रह्म परमेश्वर परमगुरु” का, अपने “श्रीसदगुरूदेव भगवानजी” का तथा अपनी “आत्मा” का दिव्य दर्शन एवं उनकी दिव्यातिदिव्य लीला का भावविह्वल होकर दर्शन करता है।

(ii) वह सब प्रकार की अनुकूलता और प्रतिकूलतामें समदृष्टि होकर, परमगुरू परमात्मा की अद्भुत लीला का अनुभव करते हुए, कभी आनन्द विभोर होता है तो कभी उसका शरीर पुलकायमान होता है, हृदय द्रवित हो जाता है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाने से उससे बोला ही नहीं जा सकता, वाणी गद्गद् हो जाती है।

(iii) “ज्ञानीभक्त”, ईश्वर के “व्यक्त” और “अव्यक्त”, इस दुर्लभ दर्शन व अनुभूति के कारण, बारम्बार अपने “श्रीसद्गुरूदेव भगवानजी” के स्मरण में खोया हुआ, उनके द्वारा दी गई “दिव्यदृष्टि” की अहैतुकी कृपा की याद करके, शिशकियाँ भर भर कर रोता-बिलखता है, क्योंकि वह रह- रहकर अहोभाव से समझता है कि “गुरूकृपा के बिना” ऐसी कृतकृत्यता की स्थिति की अनुभूति असम्भव थी। इसलिये उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती है और वह भावविह्वल एवं आत्मविभोर होकर स्वयं को किसी और ही आश्चर्यमय व दिव्यानन्दमय लोक में पाता है।

(iv) इसी संसार में, इसी घर-गृहस्थी के सामान्य जीवन में, आध्यात्मिक दुनियाँ की ऐसी निर्मल अध्यात्मिक स्थिति, इस भौतिक संसार से बिल्कुल अलग व बिलक्षण होती है।

(v) ऐसा अनुपम दिव्यानन्द प्रदान करनेवाली अलौकिक प्रेमावस्थिति ही, ईश्वरीय आस्था का तथा श्रीसद्गुरूदेव भगवान जी का, “कृतकृत्यता” स्वरूप हुआ करता है।

(vi) यही है “जीवन मुक्ति” और “सहज समाधि”।

(vii) “देवर्षि नारद” ने भक्तों की इस उच्च भावस्थिति का वर्णन “नारदभक्ति सूत्र” में इस प्रकार किया है-
“कण्ठावरोधरोमाञ्चाश्रुभि: परस्परं लपमाना: पावयन्ति कुलानीं च पृथ्वीं च।

अर्थात् – ऐसे “ज्ञानीभक्त”, जिनका भक्तों के साथ परस्पर या स्वयं के साथ, ईश्वर के सम्बन्ध में प्रेमालाप करते हुए, अपने इष्टदेव के दिव्य स्मरण से, कण्ठ भर आता है, शरीर पुलकायमान हो जाता है, रोमावली खड़ी हो जाती है, प्रेम की विह्वलता में नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है, वे अपने कुलों को पवित्र व धन्य करते हुए, इस पृथ्वी को भी धन्य कर देते हैं।

(viii) “भगवान श्रीकृष्ण गीता में अपने भक्तशिष्य अर्जुन से कह रहे हैं-
यदाभूतपृथग्भावं एकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं
ब्रह्मं सम्पद्यते तदा।।
(गीता १३/३०)

अर्थात्- जिस क्षण अध्यात्ममार्ग का राही, गुरूकृपा से प्राप्त दिव्यदृष्टि से, समस्त सृष्टि के अनन्तरूपमय प्राणियों व पदार्थों को एक परमगुरूतत्वमें ही स्थित तथा उस गुरूतत्व से ही समस्त प्राणियों व पदार्थों की लीला का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दमय ब्रह्मको प्राप्त होकर “कृतकृत्य” हो जाता है।

(ix) “जगद्गुरु भगवान आदि शंकराचार्य जी” भी इसी उच्च कृतकृत्यता के प्रेमभाव की स्थिति में अवस्थित होने पर, अपने श्रीसदगुरूदेव भगवानजी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते हैं – धन्योsहं कृतकृत्योsहं विमुक्तोsहं भवग्रहात्। नित्यानन्द स्वरूपोsहं पूर्णोsहं त्वदनुग्रहात्।। (वि.चू.४८९)

अर्थात्- हे श्रीसद्गुरो!
आपके अनुग्रह से मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य हो गया हूँ, भवदु:खों के ग्राह की पकड़ से मुक्त होकर, नित्यानन्द स्वरूप एवं पूर्ण हो गया हूँ।

(x) संत कबीर साहब भी अपने श्रीसद्गुरूदेव द्वारा प्रदान की गई “कृतकृत्यता” की स्थिति में गद्गद् कण्ठ से कहते हैं- सब धरती कागद करूं, लेखनी सब वनराय। सात समुद्र की मसि करूं, गुरू गुन लिखा न जाय।। यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान। शीश दिये जौं गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।

(xi) स्वामी रामतीर्थ कहने लगते हैं- जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है।

कि हर सै में जल्बा तेरा हू-ब-हू है।
सुनता हूँ हर वक़्त तेरी कहानी।
तेरा ही जिक्र हो रहा कू-ब-कू है।।
दरख़्तों में बैठी ये कहती है कुररी
कि तू ही एक तू है तू ही एक तू है।।

(xii) धर्म और अध्यात्म की यात्रा के इस अंतिम “कृतकृत्यता” स्तरकी महिमा की यथाबोध अभिव्यक्ति, कुछ सीमा तक ही कथनीय व अनुभवगम्य है। उससे परे अगम्य, अव्यक्त व अचिन्त्य है।

“धर्म और अध्यात्म मार्ग के चार क्रमिक स्तर” विषयक यह
दिनांक २३ मार्च से प्रारम्भ की गई चर्चा आज यहीं पर सम्पन्न हो चुकी है।

पाँच अंकों में चली इस चर्चा में सम्मिलित हुए आप सभी धर्म व अध्यात्मप्रेमी आदरणीयजनों का, इस चर्चा का अवलोकन करने तथा इस पर अपनी प्रतिक्रिया/ प्रसन्नता एवं सद्भावनाएँ व्यक्त करने के लिए, सधन्यवाद बहुत-बहुत हार्दिक अभिनन्दन, आभार एवं सादर/सस्नेह अभिवादन जी!

हरि:ॐ तत्सत्



**ॐ श्री सदगुरवे परमात्मने नमो नमः**




Heartfelt greetings to all of you religious and spiritual-loving respectable gentlemen and learned ladies in this important meditation on the four stages of the path of religion and spirituality, and on the basis of understanding received from the infinite grace and unfailing blessings of Param Pujya Shri Sadgurudev Bhagwan Ji. Greetings and welcome.

The major theistic communities, religions, sects, creeds, sects prevalent on this earth are “related to God” which is the theorotical and practical life journey of knowledge-science, especially “Vedic Sanatan Hindu Dharma”. That, its “four” successive stages or stages come to see, hear and understand, of which the past of this discussion-

In Issue-1, the first level – of “theism”; In Issue-2, the second level – of “righteousness”; In Issue-3, of the third level-“Spirituality”; After discussion, the discussion on “Krittriyata” was started in yesterday’s Issue-4, the remaining part of which is presented in today’s Issue-5:-

“Accomplishment”-

Among the four successive levels of the path of religion and spirituality, there is the “fourth and final level” – this “gratitude”. “Kritakrityata” means – by the grace of the Guru, the seeker, being free from bodily identity, attains the position of “Self-Knowledge and God Darshan”.

“Soul”, whose 12 characteristics are mentioned by Lord Krishna in the Gita, is one of them – “Sarvagatah”.

That is – “Atman” is pervading everywhere. Whatever existence of this creation, inert-conscious, variable-changeable, is completely covered, inside and outside, by “Selfhood”. Along with such “all-encompassing” of the Self, proper realization of the other 11 characteristics mentioned in the song is “self-knowledge” and “vision of God”.

“Soul” has indestructible “knowledge”, indestructible “consciousness power”, indestructible “light”, indestructible “joy”, indestructible “time”, indestructible “direction” (sky), indestructible “joy” and The opposite, perishable states, including the indestructible “activity” and the triple and dual nature of all beings and matter consisting of the five Mahabhutas, the five Tanmatras, the senses of action, the senses of perception and the consciousnesses, also exist in the “Atma”

Some other peculiarities of this “fourth” and final level of the path of religion and spirituality – “gratification” are discussed as follows:

(i) The “knowledgeable devotee” who wanders in the field of this “gratitude” of the spiritual journey, at all times, in every object of this creation, in every creature, in every phenomenon, in every smallest and largest object, the giant planets , in satellites, celestial bodies and universes etc., “Parabrahma Parmeshwar Paramguru”, his “Shrisadgurudev Bhagwanji” and his “soul” gets divine darshan and his divine pastimes.

(ii) Being equanimous in all kinds of favors and adversities, experiencing the wonderful pastimes of the Supreme Guru, sometimes his body becomes ecstatic, sometimes his body becomes ecstatic, his heart melts; Can’t go, Vani becomes gadgad.

(iii) “Jnani Bhakta”, “Vyakt” and “Unmanifested” of God, due to this rare darshan and realization, repeatedly lost in the remembrance of his “Shrisadgurudev Bhagwanji”, remembering the causeless grace of “divine sight” given by him , weeps bitterly, because he keeps realizing with gratitude that “without Guru’s grace” the realization of such a state of gratitude was impossible. That’s why tears flow continuously from his eyes and he finds himself in some other wonderful and divinely blissful world by being emotional and self-absorbed.

(iv) In this very world, in this ordinary life of a householder, such a pure spiritual state of the spiritual world is completely different and unique from this material world.

(v) The supernatural state of love that bestows such unique divine bliss is the form of “gratitude” of divine faith and Shri Sadgurudev Bhagwan Ji.

(vi) This is “Jeevan Mukti” and “Sahaj Samadhi”.

(vii) “Devarshi Narada” has described this high state of emotion of the devotees in “Naradabhakti Sutra” as follows- “They cry at each other with tears in their throats and thrills

Means – such “knowledgeable devotees”, whose throat fills with the divine remembrance of their presiding deity, while making love with the devotees, mutually or with themselves, in relation to God Tears begin to flow incessantly from the eyes in the bewilderment of the Lord, while purifying and blessing their clans, they bless this earth as well.

(viii) “Lord Krishna is saying to His devotee disciple Arjuna in the Gita- When he sees the separation of the past as one. And from there, the expansion Then one attains to Brahman. (Gita 13/30)

That is, the moment the follower of the spiritual path, with the divine vision obtained by the Guru’s grace, sees the infinitely formless beings and objects of the entire creation situated in one supreme Gurutatva and the expansion of the pastimes of all beings and matter from that Gurutatva, accomplished” becomes.

(ix) “Jagdguru Bhagwan Adi Shankaracharya Ji” also expressing his gratitude towards his Sri Sadgurudev Bhagwanji, being in the same high state of gratitude and love, says – Dhanyosham kritakrityosham vimuktosham bhavagrahat. I am the form of eternal bliss and I am full by Thy grace. (V.Chu.489)

Means- O Sri Sadguru! By your grace I have become blessed, I have become grateful, I have become free from the grip of the customer of sorrows, I have become eternally blissful and complete.

(x) Saint Kabir Sahib also says in Gadgad voice in the state of “gratitude” given by his Shri Sadgurudev – I will do paper on all the earth, I will write everything on Vanarai. Let me touch the seven seas, Guru Gun should not be written. This body is a cellar of poison, Guru is a mine of nectar. If you get a teacher, even if you give your head, you will live cheaply.

(xi) Swami Ramteerth starts saying – Wherever I see, there you are.

That Jalba Tera Hu-Ba-Hu hai in every Sai. I listen to your story all the time. You are the only one being mentioned. Kurri says sitting in the trees That you are the only you, you are the only you.

(xii) The perceptible expression of the glory of this last “Kritakritya” level of the journey of religion and spirituality, can be said and experienced to some extent. Beyond that is impassable, unmanifest and inconceivable.

This article on “The Four Gradual Levels of the Path of Religion and Spirituality” The discussion that started on March 23 has been concluded here today.

To all of you religion and spirituality lovers who participated in this five-digit discussion, for observing this discussion and expressing your reaction/happiness and good wishes, thank you very much, hearty greetings, gratitude and best regards. !

Hari: Om Tatsat

**Om Sri Sadguruve Paramatmane Namo Namah**

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