अब हीं बनी है बात, औसर समझि घात,
तऊ न खिसात, बार सौक समझायो है ।
आजु काल्हि जैहैं मरि, काल-व्याल हूँ ते डरि,
भौंडे भजन ही करि कैसो संग पायो है ॥
चित-वित इत देहु सुखहि समझि लेहु
‘सरस’ गुरुनि ग्रन्थ पन्थ यौं बतायो है ।
चरन सरन भय हरन, करन सुख,
तरन संसार कों तू मानस बनायो है ॥
श्री सरस देव जी अपने निज आश्रित साधक जन (अथवा अपने ही मन से कहते हैं):
तेरी बिगड़ी बात बन सकती है, तुझे यह बड़ा सुंदर अवसर मिला है (मानव देह के रूप में) जिससे तू भगवान का भजन कर अपनी बिगड़ी बना सकता है । अब क्यों खिसिया रहा है, अनेक बार समझने के पश्चात भी तेरे को लज्जा नहीं आती ?
तू थोड़े ही दिन में मर जाएगा, काल रूपी महान सर्प तेरे माथे पर छाया है । उससे तू डर और अति सावधानी पूर्वक भजन का शीघ्र ही प्रण करले । विचार कर कि कैसा सुंदर समागम (संग) तुझे आज प्राप्त हो गया है ।
इस अति अद्भुत रस के बारे में विचार कर अपना चित्त वित को इस ओर लगा दे । हमारे श्री गुरु जनों ने अपनी सरस वाणी ग्रंथों में संसार से तरने का यही एक मात्र उपाय बताया है ।
अत: समस्त भय को हरण करने वाले, सुखों के दाता, ऐसे भगवान अथवा रसिक गुरु की शरण ग्रहण करके, माया से उत्तीर्ण होने का प्रयास कर जिसके लिए ही तुझे भगवान ने मानव बनाया है ।