मनुष्य का जीवन चक्र अनेक प्रकार की विविधताओं से भरा होता है जिसमें सुख- दु:खु, आशा-निराशा तथा जय-पराजय के अनेक रंग समाहित होते हैं । वास्तविक रूप में मनुष्य की हार और जीत उसके मनोयोग पर आधारित होती है । मन के योग से उसकी विजय अवश्यंभावी है परंतु मन के हारने पर निश्चय ही उसे पराजय का मुँह देखना पड़ता है।
हमारा मन है हमारी ताकत आदि शंकराचार्यजी का कहना है—‘मन की जीत मनुष्य की सबसे बड़ी जीत है । जिसने अपने मन को जीत लिया है उसने सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली है ।’
हमारा मन ही हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु है । यही हमें हंसाता है, यही हमें रुलाता है । यही खुशियों के ढेर लगा देता है तो कभी यही दुखों की गहरी खाई में ढकेल देता है । मानव मन अग्नि के समान है जो मनुष्य को बुरे और नकारात्मक विचारों में फंसाकर जीवन में आग लगा सकता है या अच्छे और सकारात्मक विचारों की ज्योति से जीवन को प्रकाशित भी कर सकता है । मन की मजबूती के आगे निर्धनता, दुर्भाग्य, मुसीबतें या बाधाएं टिक ही नहीं सकतीं । मजबूत मन और दृढ़ आत्मविश्वास को कोई नहीं हरा सकता ।
इसीलिए मैथिलीशरण गुप्तजी ने कहा है—‘नर हो, न निराश करो मन को ।’ मन की शक्तियों को कभी कमजोर न पड़ने दें ।
गीता (६।३४) में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं—
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।
अर्थात्—‘मन बहुत चंचल, उद्दण्ड, बली और हठी है । मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान है ।’
इसी आधार पर शास्त्रों में मन की कुछ विशेषताएं बतायी गयीं हैं—
▪️ मन कभी स्थिर नहीं होता; एक सेकण्ड में ही हजारों मील दूर की उड़ान भर लेता है, इसलिए मन को चंचल कहा गया है ।
▪️ मनुष्य का मन सदैव अतृप्त, भूखा रहता है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर कुछ ही देर में उससे मन भर जाता है और फिर मन में किसी नयी वस्तु की भूख पैदा हो जाती है ।
▪️ मन बड़ा मूर्ख है । बार-बार समझाने पर भी समझता नहीं है और राग-द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार में डूबा रहता है ।
▪️ मानव मन की एक विशेषता यह है कि यह मैला और दूषित है क्योंकि इसमें बुरे और निम्न श्रेणी के विचार भी जन्म लेते हैं ।
▪️ मानव मन को पागल भी कहा गया है क्योंकि यह इन्द्रियों का दास बनकर विषयों के पीछे दौड़ता रहता है ।
मन के इन्हीं दुर्गणों के कारण इसे ‘मनुष्य का शत्रु’ कहा गया है । मन को मनमानी न करने की सीख देते हुए कहा गया है—‘मन के मते न चालिये, यह सतगुरु की सीख ।’
संसार के सभी प्राणी सुख की खोज में लगे रहते हैं किन्तु स्थायी सुख किसी को प्राप्त नहीं होता है । किसी विद्वान ने कहा है—‘मनुष्य का मन सदा दु:ख और बैचेनी की अवस्था में इधर-से-उधर झूलता रहता है ।
मन को वश में करने की साधना
गीता (६।२६) में मन को साधने के लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।
अर्थात्—‘साधक को चाहिए कि मन जहां-जहां जाए, जिस-जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब-जब जाए, उसको वहां-वहां से, उस कारण से, वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मा में लगाना चाहिए।’
कितने ही साधु-संन्यासी अपने मन को वश में करने के लिए हठयोग को सहारा लेते हैं । इस प्रकार का अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है । जिस चीज पर मन जाए, उससे मन को रोकने के लिए यदि हठ करके अभ्यास किया जाए तो फिर मन उस वस्तु पर नहीं जाता है ।
▪️ स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी ‘टाका माटी’ के खेल का अभ्यास किया करते थे । वे एक हाथ में ‘टाका’ यानी सिक्का और दूसरे में मिट्टी का ढेला लेते और ‘टाका माटी’, ‘टाका माटी’ कहते हुए उन्हें दूर फेंक देते थे । ऐसा अभ्यास वे पैसे के प्रलोभन से बचने के लिए अर्थात् पैसा और मिट्टी को एक बराबर समझने के लिए करते थे ।
▪️ स्वामी रामतीर्थ को सेव बहुत प्रिय थे । किसी भी महत्त्वपूर्ण काम को करते हुए भी उनका मन सेवों की ओर चला जाता था । एक दिन स्वामीजी ने कुछ सेव लाकर सामने बने आले में रख दिए, जिससे कि उनकी नजर सदैव उन सेवों पर पड़े । स्वामी रामतीर्थ का मन बार-बार सेवों की ओर जाता और वे बार-बार खींचकर उसे दूसरी ओर लगाते । इस तरफ उनका अपने मन से आठ दिन तक युद्ध चलता रहा, तब तक सेव सड़ गए और फिर उन्हें फेंक दिया गया । लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि सेवों के प्रति उनके मन में जो कमजोरी थी वह दूर हो गयी और फिर कभी किसी कार्य को करते हुए उनका मन सेवों पर नहीं गया ।
मन से लड़ना व्यर्थ है,मनोविज्ञान के अनुसार मन को गतिहीन करना संभव नहीं । जैसे साइकिल पर चढ़ा व्यक्ति साइकिल को रोककर एक जगह नहीं रह सकता, उसे चलाना ही पड़ता है । हां, यह संभव है कि साइकिल को एक ओर न ले जाकर दूसरी ओर ले जाया जाए । उसी तरह मन को भी वश में करने के लिए उसकी दिशा को मोड़ देना चाहिए । इसके लिए गीता में ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ का श्रेष्ठ उपाय बतलाया गया है—
▪️ हमें अपने-आपको ऐसा बनाना चाहिए कि जिससे हम अपने मन को संसार के हजारों काम में व्यस्त रख सकें अर्थात् कर्मयोग; और
▪️ जो भी करें वह यह जानकर करें कि यह परमात्मा की पूजा है—
जहँ जहँ जाऊँ सोइ परिक्रमा, जोइ जोइ करूँ सो पूजा ।
सहज समाधि सदा उर राखूँ, भाव मिटा दूँ दूजा ।।
इस तरह हम अपने मन को अपना शत्रु बनाने की बजाय मित्र बना सकते है।
Human life cycle is full of variety in which there are many colors of happiness-sadness, hope-disappointment and victory and defeat. In reality, man’s victory and defeat are based on his intention. His victory is inevitable with the yoga of the mind, but when the mind loses, he has to face defeat.
Our mind is our strength Adi Shankaracharya says – ‘The victory of the mind is the greatest victory of man. He who has conquered his mind has conquered the whole world.
Our mind is the most important point of our life. This is what makes us laugh, this is what makes us cry. It piles up happiness and sometimes it pushes it into the deep abyss of sorrow. Human mind is like fire, which can set fire to life by trapping a person in bad and negative thoughts or can also illuminate life with the light of good and positive thoughts. Poverty, misfortune, troubles or obstacles cannot stand before the strength of the mind. No one can beat a strong mind and strong self-confidence.
That is why Maithilisharan Guptji has said – ‘Be male, do not disappoint the mind.’ Never let the powers of the mind weaken.
In Gita (6.34), Arjuna says to Krishna:
O Kṛṣṇa, the mind is restless, impulsive, strong and strong. I think it is as difficult to control him as it is to control the wind
Meaning- ‘The mind is very fickle, defiant, strong and obstinate. Controlling the mind is like controlling the air.’
On this basis some characteristics of the mind have been told in the scriptures-
️ The mind is never stable; It can fly thousands of miles away in a second, so the mind is said to be fickle.
The human mind is always satiated, hungry. On getting the desired thing, the mind gets filled with it in a short time and then the hunger for something new arises in the mind.
️ The mind is a big fool. He does not understand even after repeatedly explaining and remains immersed in attachment, hatred, jealousy, ego.
One of the characteristics of human mind is that it is dirty and polluted because bad and low grade thoughts also take birth in it.
The human mind is also called mad because it runs after the objects as a slave of the senses.
Because of these evils of the mind, it has been called ‘enemy of man’. While teaching the mind not to be arbitrary, it has been said – ‘Don’t move your mind, this is the teaching of the Satguru.’
All the creatures of the world are engaged in the search for happiness, but no one gets permanent happiness. Some scholar has said – ‘Man’s mind always keeps swinging here and there in a state of sorrow and restlessness.
meditation practice In Gita (6.26), Lord Krishna tells Arjuna to cultivate the mind-
Wherever the mind moves, it is restless and unsteady. From time to time one should control this and bring it under the control of oneself.
That is, wherever the mind goes, for whatever reason it goes, whenever it goes, whenever it goes, it should be removed from there, because of that reason, that way and then and then into God. should be imposed.
Many sages and sannyasis resort to hatha yoga to control their mind. Everyone can do this type of exercise. If it is practiced with persistence to stop the mind from whatever it is inclined to, then the mind does not go to that object.
Swami Ramakrishna Paramhansji used to practice the game of ‘Taka Mati’. They used to take ‘taka’ or coin in one hand and earthen lump in the other and throw them away saying ‘taka mati’, ‘taka mati’. He used to do this practice to avoid the temptation of money, that is, to consider money and soil as equal.
Seva was very dear to Swami Ramtirtha. Even while doing any important work, his mind used to go towards the sev. One day Swamiji brought some sev and placed them in the front niche, so that his eyes would always be on those sev. Swami Ramtirtha’s mind would repeatedly turn towards the sevās and he would repeatedly drag them and put them on the other side. On this side his war continued for eight days with his own mind, till then the apples got rotten and then they were thrown away. But the result was that the weakness in his mind towards sev was removed and never again while doing any work, his mind went to sev.
Fighting with the mind is futile, according to psychology it is not possible to make the mind motionless. Just as a person on a bicycle cannot stay in one place by stopping the cycle, he has to ride. Yes, it is possible to carry the bicycle instead of to one side and to the other. Similarly, to control the mind, its direction should be diverted. For this, the best way of ‘Karmayoga’ and ‘Bhaktiyoga’ has been told in the Gita-
️ We should make ourselves in such a way that we can keep our mind busy in thousands of works of the world i.e. Karma Yoga; And
Whatever you do, do it knowing that it is the worship of God-
Wherever I go I sleep, whatever I do, I worship. Sahaj samadhi always ur rakoon, let me erase the feeling.
In this way, instead of making our mind our enemy, we can make friends.