(मनुष्य के कर्म)

।। श्रीहरि: ।।

महर्षि शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सातवें दिन समझाते हुए अंतिम उपदेश दिया-

हे राजन ! मृत्युलोक में प्राणी अकेला ही पैदा होता है, अकेले ही मरता है। प्राणी का धन-वैभव घर में ही छूट जाता है। मित्र और स्वजन श्मशान में छूट जाते हैं। शरीर को अग्नि ले लेती है। पाप-पुण्य ही उस जीव के साथ जाते हैं। अकेले ही वह पाप-पुण्य का भोग करता है परन्तु धर्म ही उसका अनुसरण करता है।

‘शरीर और गुण (पुण्यकर्म) इन दोनों में बहुत अंतर है, क्योंकि शरीर तो थोड़े ही दिनों तक रहता है किन्तु गुण प्रलयकाल तक बने रहते हैं। जिसके गुण और धर्म जीवित हैं, वह वास्तव में जी रहा है।’

वेदों में जिन कर्मों का विधान है, वे धर्म (पुण्य) हैं और उनके विपरीत कर्म अधर्म (पाप) कहलाते हैं। मनुष्य एक दिन या एक क्षण में ऐसे पुण्य या पाप कर सकता है कि उसका भोग सहस्त्रों वर्षों में भी पूर्ण न हो।

सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियां, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल और धर्म- ये सब मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं।

सूर्य रात्रि में नहीं रहता और चन्द्रमा दिन में नहीं रहता, जलती हुई अग्नि भी हर समय नहीं रहती; किन्तु रात-दिन और संध्या में से कोई एक तो हर समय रहता ही है। दिशाएं, आकाश, वायु, पृथ्वी, जल सदैव रहते हैं, मनुष्य इन्हें छोड़कर कहीं भाग नहीं सकता, इनसे छुप नहीं सकता। मनुष्य की इन्द्रियां, काल और धर्म भी सदैव उसके साथ रहते हैं। कोई भी कर्म किसी- न किसी इन्द्रिय द्वारा किसी- न- किसी समय (काल) होगा ही। उस कर्म का प्रभाव मनुष्य के ग्रह-नक्षत्रों व पंचमहाभूतों पर पड़ता है। जब मनुष्य कोई गलत कार्य करता है तो धर्मदेव उस गलत कर्म की सूचना देते हैं और उसका दण्ड मनुष्य को अवश्य मिलता है।

पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है। जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है। पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है।

कर्मों के अवशेष भाग को भोगने के लिए मनुष्य मृत्युलोक में स्थावर-जंगम अर्थात् वृक्ष, गुल्म (झाड़ी), लता, बेल, पर्वत और तृण- आदि योनि प्राप्त करता है। ये सब दु:खों के भोग की योनियां हैं। वृक्षयोनि में दीर्घकाल तक सर्दी-गर्मी सहना, काटे जाने व अग्नि में जलाये जाने सम्बधी दु:ख भोगना पड़ता है। यदि जीव कीटयोनि प्राप्त करता है तो अपने से बलवान प्राणियों द्वारा दी गयी पीड़ा सहता है, शीत-वायु और भूख के क्लेश सहते हुए मल-मूत्र में विचरण करना आदि दारुण दु:ख उठाता है।

इसी तरह से पशुयोनि में आने पर अपने से बलवान पशु द्वारा दी गयी पीड़ा का कष्ट पाता रहता है। पक्षी की योनि में आने पर कभी वायु पीकर रहना तो कभी अपवित्र वस्तुओं को खाने का कष्ट उठाना पड़ता है। यदि भार ढोने वाले पशुओं की योनि में जीव आता है तो रस्सी से बांधे जाने, डण्डों से पीटे जाने व हल जोतने का दारुण दु:ख जीव को सहना पड़ता है।

इस संसार-चक्र में मनुष्य घड़ी के पेण्डुलम की भांति विभिन्न पापयोनियों में जन्म लेता और मरता है-

माता-पिता को कष्ट पहुंचाने वाले को कछुवे की योनि में जाना पड़ता है।

मित्र का अपमान करने वाला गधे की योनि में जन्म लेता है।

छल-कपट कर जीवनयापन करने वाला बंदर की योनि में जाता है।

अपने पास रखी किसी की धरोहर को हड़पने वाला मनुष्य कीड़े की योनि में जन्म लेता है।

विश्वासघात करने से मनुष्य को मछली की योनि मिलती है।

विवाह, यज्ञ आदि शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाले को कृमियोनि मिलती है।

देवता, पितर व ब्राह्मणों को भोजन न कराकर स्वयं खा लेता है वह काकयोनि (कौए) में जाता है।

इस प्रकार बहुत-सी योनियों में भ्रमण करके जीव किसी महान पुण्य के कारण मनुष्ययोनि प्राप्त करता है। मनुष्ययोनि प्राप्त करके भी यदि दरिद्र, रोगी, काना या अपाहिज जीवन मिले तो बहुत अपमान व कष्ट भोगना पड़ता है।

इसलिए दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर संसार-बंधन से मुक्त होने के लिए प्राणी को भगवान विष्णु की सेवा-आराधना करनी चाहिए क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता व संसार-बंधन से छुड़ाने वाले मोक्षदाता हैं। भगवान विष्णु के जो-जो स्वरूप हैं, उनकी भक्ति करने से मनुष्य संसार-सागर आसानी से पार कर परमध ाम को प्राप्त करता है।

भगवान विष्णु ने संसार-सागर से पार होने का उपाय भगवान रुद्र को बताते हुए कहा कि ‘विष्णुसहस्रनाम’ स्तोत्र से मेरी नित्य स्तुति करने से मनुष्य भवसागर को सहज ही पार कर लेता है।

‘जिनका मन भगवान विष्णु की भक्ति में अनुरक्त है, उनका अहोभाग्य है, अहोभाग्य है; क्योंकि योगियों के लिए भी दुर्लभ मुक्ति उन भक्तों के हाथ में ही रहती है।’
(नारदपुराण)

भक्त अपने आराध्य के लोक में जाते हैं। भगवान के लोक में कुछ भी बनकर रहना सालोक्य-मुक्ति है। भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना सार्ष्टि-मुक्ति है। भगवान के समान रूप पाकर वहां रहना सारुप्य-मुक्ति है। भगवान के आभूषणादि बनकर रहना सामीप्य-मुक्ति कहलाती है। भगवान के श्रीविग्रह में मिल जाना सायुज्य-मुक्ति है।

जिस जीव को भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है, वह भगवान की इच्छा से उनके साथ या अलग से संसार में दिव्य जन्म ले सकता है। वह कर्मबन्धन में नहीं बंधा होता है। संसार में भगवत्कार्य समाप्त करके वह पुन: भगवद्धाम चला जाता है।

मनुष्य बिना कर्म किए रह नहीं सकता। कर्म करेगा तो पाप-पुण्य दोनों होंगे। लेकिन जो मनुष्य सबमें भगवत्दृष्टि रखकर भगवान की सेवा के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए और भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है तो उसके कर्म भी अकर्म बन जाते हैं और कर्म-बंधन में नहीं बांधते हैं। वह संसार में रहते हुए भी नित्यमुक्त है।

तत्त्वज्ञानी पुरुष संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। उनके प्राण निकलकर कहीं जाते नहीं बल्कि परमात्मा में लीन हो जाते हैं। सती स्त्रियां, युद्ध में मारे गए वीर और उत्तरायण के शुक्ल-मार्ग से जाने वाले योगी मुक्त हो जाते हैं।

गीता में शुक्ल तथा कृष्ण मार्ग कहकर दो गतियों का वर्णन है-

जिनमें वासना शेष है, वे धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष, दक्षिणायन के देवताओं द्वारा ले जाए जाते हैं। ऊर्ध्वलोक में अपने पुण्य भोगकर वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेते हैं।

जिनमें कोई वासना शेष नहीं है, वे अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के देवताओं द्वारा ले जाये जाते हैं। वे फिर पृथ्वी पर जन्म लेकर नहीं लौटते हैं।

पितृलोक-
यह एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है। एक जीव को पृथ्वी पर जिस माता-पिता से जन्म लेना है, जिस भाई-बहिन व पत्नी को पाना है, जिन लोगों के द्वारा उसे सुख-दु:ख मिलना है; वे सब लोग अलग-अलग कर्म करके स्वर्ग या नरक में हैं। जब तक वे सब भी इस जीव के अनुकूल योनि में जन्म लेने की स्थिति में न आ जाएं, इस जीव को प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पितृलोक इसलिए एक प्रकार का प्रतीक्षालोक है।

प्रेतलोक-
यह नियम है कि मनुष्य की अंतिम इच्छा या भावना के अनुसार ही उसे गति प्राप्त होती है। जब मनुष्य किसी प्रबल राग-द्वेष, लोभ या मोह के आकर्षण में फंसकर देह त्यागता है तो वह उस राग-द्वेष के बंधन में बंधा आस-पास ही भटकता रहता है। वह मृत पुरुष वायवीय देह पाकर बड़ी यातना भरी योनि प्राप्त करता है। इसीलिए कहा जाता है- ‘अंते मति: सो गति:! अत: हे राजन!भगवान का भजन ही श्रेयस्कर है।

इसी बात को गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-

उमा कहउं मै अनुभव अपना।
सत हरि भजन जगत सब सपना।।

निज अनुभव मैं कहउं खगेसा।
विनु हरि भजन न जाइ कलेसा।।

।। जय भगवान श्रीहरि विष्णु ।।



, Shri Hari:.

Maharishi Shukdevji gave the last sermon explaining to King Parikshit on the seventh day-

Hey Rajan! A living being is born alone in the land of death, dies alone. The wealth and glory of the creature is left at home. Friends and relatives are left in the crematorium. Fire takes the body. Sins and virtues only go with that creature. Alone he experiences sin and virtue, but only religion follows him.

There is a great difference between the body and virtues, because the body lasts only for a few days, but the virtues remain till the doomsday. Whose virtues and dharma are alive, he is really living.’

The deeds that are prescribed in the Vedas are Dharma (virtue) and the deeds contrary to them are called Adharma (sin). A person can do such good deeds or sins in a day or a moment that his enjoyment will not be completed even in thousands of years.

Sun, fire, sky, air, senses, moon, evening, night, day, directions, water, earth, time and religion – all these are witnesses of man’s deeds.

The sun does not remain in the night and the moon does not remain in the day, the burning fire also does not remain all the time; But one of the night-day and evening always remains. Directions, sky, air, earth, water are always there, man cannot run away leaving them, cannot hide from them. Man’s senses, time and religion are always with him. Any action will be done by one or the other senses at some time (Kaal). The effect of that action falls on the planets, constellations and Panchamahabhutas of man. When a man does a wrong deed, Dharmadev informs about that wrong deed and man definitely gets punished for it.

The human body on earth has the capacity to experience happiness or sorrow only up to a limit. The merit or sin which is not possible to be suffered by any human body on earth, the living entity bears its fruit in heaven or hell. When sins or virtues remain so much that their enjoyment is possible on earth, then that soul takes birth in a body on earth.

In order to suffer the residual part of the deeds, man receives the form of immovable-movable i.e. tree, gulm (bush), lata, vine, mountain and grass etc. in the death world. All these are the vaginas of the enjoyment of sorrows. One has to bear the cold and heat for a long time in the Vriksha yoni, and suffer the pain of being cut and burnt in the fire. If the living being attains Keityoni, then he suffers the pain given by the stronger beings than himself, suffering from cold-wind and hunger, wandering in excreta-urine, etc. takes great pain.

In the same way, on coming into the animal world, one continues to suffer the pain caused by animals stronger than him. On entering the bird’s vagina, sometimes one has to live by drinking air and sometimes one has to bear the pain of eating unholy things. If the creature comes in the vagina of animals carrying load, then the creature has to bear the pain of being tied with a rope, beaten with sticks and plowed.

In this world-cycle, man takes birth and dies in different sinful states like the pendulum of a clock.

The one who harms the parents has to go into the womb of a tortoise.

One who insults a friend is born in the vagina of a donkey.

The one who lives by deceit goes into the vagina of a monkey.

The person who usurps someone’s heritage kept with him is born in the vagina of a worm.

By betraying a man gets the vagina of a fish.

The one who obstructs the auspicious works like marriage, yagya etc. gets worm.

One who eats himself without offering food to deities, ancestors and Brahmins, goes to Kakayoni (crow).

In this way, by traveling in many births, the soul attains the human birth due to some great virtue. Even after attaining the human form, if one gets a poor, diseased, deaf or handicapped life, then one has to suffer a lot of humiliation and suffering.

That’s why in order to be free from the bondage of the world after getting birth as a rare human being, the creature should serve and worship Lord Vishnu because he is the giver of the fruits of his actions and the one who frees him from the bondage of the world. By worshiping all the forms of Lord Vishnu, man easily crosses the world and the ocean and attains the supreme abode.

Lord Vishnu told Lord Rudra the way to cross the world-ocean and said that by praising me daily with the hymn ‘Vishnu Sahasranama’, man easily crosses the Bhavsagar.

‘ Those whose mind is attached to the devotion of Lord Vishnu, they have bad luck, bad luck; Because salvation, which is rare even for Yogis, remains in the hands of those devotees only. (Naradpuran)

Devotees go to the world of their deity. Salokya-mukti is Salokya-mukti to live as anything in God’s world. To get opulence like God is creation-liberation. Having a form similar to God, living there is Sarupya-mukti. Living like an ornament of God is called nearness-liberation. Sayujya-mukti is to merge in the Srivigraha of God.

The living entity who attains the abode of the Lord may, by the will of the Lord, take a transcendental birth in the world with him or separately. He is not tied in the bondage of karma. After finishing his work in the world, he goes back to the abode of God.

Man cannot live without doing work. If he works, then there will be both sin and virtue. But the person who works for the service of God, to obey His orders and for the pleasure of God, keeping God’s vision in everything, then his actions also become inaction and do not bind him in the bondage of karma. He is eternally free even while living in the world.

Philosophers become free from the traffic of the world. Their soul does not go anywhere after leaving, but gets absorbed in the divine. Sati women, heroes killed in war and yogis going through the Shukla-marg of Uttarayan become free.

In the Gita, there is a description of two motions by saying Shukla and Krishna Marg-

Those in whom lust is left, they are carried away by the gods of smoke, night, Krishna Paksha, Dakshinayan. After enjoying their virtues in the upper world, they are born again on earth.

Those who have no lust left, they are carried away by the gods of Agni, Day, Shuklapaksha, Uttarayan. They do not return to earth after being born again.

Pitrulok- It is a kind of waiting room. The parents from whom a creature has to take birth on earth, the brothers and sisters and the wife, the people through whom it has to get happiness and sorrow; All those people are in heaven or hell by doing different deeds. This Jiva has to wait until all of them are in a position to take birth in a favorable species of this Jiva. Pitrlok is therefore a kind of waiting place.

underworld- It is a rule that according to the last wish or feeling of a man, he gets speed. When a man leaves his body after getting trapped in the attraction of strong attachment-hatred, greed or attachment, then he wanders around bound in the bondage of that attachment-hatred. That dead man gets a very painful vagina after getting an air body. That is why it is said- ‘Ante Mati: So Gati:! Therefore, O king! Only praise of God is the best.

Goswami Tulsidasji has also written the same thing in Ramcharitmanas-

Uma tell me my experience. Sat Hari Bhajan Jagat Sab Sapna.

I tell you my own experience, Khagesa. Without Hari bhajan, there is no trouble.

, Hail Lord Sri Hari Vishnu.

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