देखो रोते तो दोनों हैं, नाम जपने वाले भी,न जपने वाले भी। पर कारण में बड़ा अंतर है।
न जपने वाला रोता है कि अगर नाम जप लिया होता तो इतना कष्ट न उठाना पड़ता,और जपने वाला रोता है कि थोड़ा बहुत नाम जपा था,उसका इतना फल मिल रहा है,अगर और जप लेता तो कितना मिल जाता।
नाम जप की तो इतनी महिमा है।यह बैठकर भी करना है और चलते फिरते भी।विशेष बात यह है कि नाम जप के साथ में, उन “एक” इष्ट( सतगुरु) के मुखमंडल का ध्यान करते रहें।जैसे तुम अपने दो दिन के बच्चे को गोद में लेकर, लाखों की भीड़ में चलते हों। चलते भी हो, उस बच्चे का ध्यान भी रहता है, वैसे ही नाम भी चलता रहे, रूप ध्यान भी रहता रहे। बस इतनी ही विधि है।
अब मन नाम छोड़कर भागे तो भागे, परेशान नहीं होना, बस फिर फिर पकड़ लाओ। नाम भूला, फिर याद आया, तो भूलने पर रोओ मत कि हाय हाय भूल गया, बल्कि याद आने का धन्यवाद करो कि याद आ गया, समझो की सतगुरु स्वयं ही तुम्हें याद कर रहे हैं, तभी तो तुम्हें नाम पुनः याद आया।
अंतिम बात, जिस दिन मन भागकर वापिस आए, और आप देखें कि भीतर तो नाम अपने से चल रहा है। कि अरे!! मेरा ध्यान तो कहीं और था, फिर यह नाम कौन जप रहा था