ऐसो कब करिहो प्रिया-प्रीतम
निशदिन टहल महल चित्त लाऊँ ।
सुन्दर सरस स्वरूप माधुरी
अनिमिष अचवत नैन सिराऊँ ॥
नव-सत नव श्रृंगार मनोहर
सुभग अंग प्रति अंग धराऊँ ।
‘ललितविहारिणि’ यही लालसा
सहज सनेह युगल – पद पाऊँ ॥
हे प्रिया प्रियतम ! आप मेरे मन को कब ऐसा करोगे कि मैं आपके निजमहल की प्रेमपूर्वक सेवा अपने मन से निरन्तर करता रहूँ?
कब मैं अपने नेत्रों से आपके रूप माधुरी के मधुर रस का पान कर उन्हें रसानंद में डुबाऊँगा ?
ऐसा कब होगा कि नवीन सोलह श्रृंगार से विभूषित आपके सुन्दर अंगों से संयुक्त होकर निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करूँगा ?
श्री ललित विहारिणी जी कहते हैं कि मेरी एकमात्र यही इच्छा है की आप मुझे अपने दिव्य चरण कमलों के प्रति सहज और निस्वार्थ प्रेम प्रदान करें ।