रामचरितमानस एहि नामा।
सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।।
मन करि बिषय अनल बन जरई।
होई सुखी जौं एहिं सर परई।।
भावार्थ-
इसका नाम रामचरितमानस है, जिसके सुनते ही कानों को शांति मिलती है। मनरूपी हाथी विषयरूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरितमानस रूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाए।
त्रेतायुग में आदिकवि हुए ‘वाल्मीकि’ और आदिकाव्य हुआ उनके द्वारा रचित ‘रामायण’। परन्तु संस्कृत भाषा में होने के कारण वह महाकाव्य जन-जन तक नहीं पहुंच पाया। भगवत्कृपा से कलियुग में वही वाल्मीकिजी गोस्वामी तुलसीदासजी के रूप में प्रकट हुए जिन्होंने सरल व सरस हिन्दी- अवधी मिश्रित भाषा में ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना की।
गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस कोई साधारण ग्रन्थ, उपन्यास या किताब नहीं है वरन् श्रीरामचरितमानस का प्रत्येक दोहा, प्रत्येक सोरठा, प्रत्येक श्लोक, प्रत्येक छन्द और प्रत्येक शब्द साक्षात् वेद के समान है। श्रीरामचरितमानस परात्पर ब्रह्म भगवान श्रीराम का वांग्मयस्वरूप है। यह दिव्य ग्रन्थ समस्त वेद, शास्त्र, पुराण और उपनिषदों का सार है।
गोस्वामी तुलसीदासजी को भगवान शंकर, मारुतिनंदन हनुमान, पराम्बा पार्वतीजी, परब्रह्म भगवान श्रीराम और शेषावतार लक्ष्मणजी ने समय-समय पर अपना दर्शन देकर श्रीरामचरितमानस उनसे लिखवाया और भगवान श्रीराम ने ‘शब्दावतार’ के रूप में श्रीरामचरितमानस में प्रवेश किया। इसीलिए यह मनुष्य को सच्ची चेतना देने वाला और पग-पग पर पथ-प्रदर्शन करने वाला लोकमंगल ग्रन्थ माना गया है।
हनुमानजी की कृपा से तुलसीदासजी को श्रीराम के दर्शन हुए। भगवान राम-लक्ष्मण उन्हें दर्शन देने के लिए घोड़ों पर सवार होकर राजकुमार के वेश में आए परन्तु तुलसीदासजी उन्हें पहचान नहीं पाए। दूसरी बार संवत् १६०७, मौनी अमावस्या, बुधवार के दिन प्रात:काल गोस्वामी तुलसीदासजी चित्रकूट के रामघाट पर पूजा के लिए चंदन घिस रहे थे, तब भगवान राम और लक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने के लिए कहा। हनुमानजी ने सोचा कि ये शायद प्रभु श्रीराम-लक्ष्मण को न पहचानें, इसलिए तोते का रूप धरकर चेतावनी का दोहा पड़ने लगे-
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर।
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर।।
भगवान श्रीराम की अद्भुत छवि देखकर तुलसीदासजी अपनी सुध-बुध भूल गए। तब भगवान श्रीराम ने अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने व तुलसीदासजी के तिलक किया और अन्तर्ध्यान हो गए। तुलसीदासजी सारा दिन बेसुध पड़े रहे, तब रात्रि में आकर हनुमानजी ने उन्हें जगाया और उनकी दशा सामान्य की।
संवत् १६१६ में कामदगिरि में सूरदासजी तुलसीदासजी से मिलने आए और अपना ग्रन्थ ‘सूरसागर’ उन्हें दिखाया और दो पद गाकर सुनाए। तुलसीदासजी ने सूरसागर को हृदय से लगा लिया। इसके बाद वे काशी में प्रह्लाद-घाट पर एक ब्राह्मण के घर पर रहने लगे। वहां उनकी कवित्व-शक्ति जाग्रत हुई और वह संस्कृत में रचना करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि दिन में वे जितनी रचना करते रात में सब-की-सब गायब हो जातीं। यह घटना रोज होती, तुलसीदासजी को समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए ?
आठवें दिन तुलसीदासजी को स्वप्न में भगवान शंकर ने कहा कि तुम अपनी भाषा में काव्य-रचना करो। तुलसीदासजी उठकर बैठ गए। उनके हृदय में स्वप्न की आवाज गूंजने लगी। उसी समय भगवान शंकर और माता पार्वती दोनों ही उनके सामने प्रकट हुए और बोले-
‘तुम जाकर अयोध्या में रहो और वहीं अपनी मातृभाषा में काव्य-रचना करो, संस्कृत के पचड़े में मत पड़ो। जिससे सबका कल्याण हो वही करना चाहिए। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान सफल होगी।’ यह कहकर भगवान शंकर और पार्वतीजी अन्तर्ध्यान हो गए।
तुलसीदासजी अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए अयोध्या में आकर रहने लगे। वे केवल एक बार दूध पीकर रहते थे। संवत् १६३१, चैत्र शुक्ल रामनवमी के दिन वही योग बने जो त्रेतायुग में रामजन्म के दिन थे। प्रात:काल हनुमानजी ने प्रकट होकर तुलसीदासजी का अभिषेक किया। भगवान शंकर, पार्वती, गणेशजी, सरस्वतीजी, नारदजी और शेषजी ने तुलसीदासजी को आशीर्वाद दिया। सबकी कृपा और आज्ञा प्राप्त करके तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना शुरु की। दो वर्ष, सात महीने, छब्बीस दिन- संवत् १६३३ में मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में श्रीरामविवाह के दिन श्रीरामचरितमानस की रचना पूरी हुई। इस ग्रन्थ में बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड के रूप में सात काण्ड हैं। ‘गागर में सागर’ की तरह इन सातों काण्डों में श्रीराम के चरित्र का वर्णन है।
इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति मंगलवार के दिन हुई। तब हनुमानजी पुन: प्रकट हुए और पूरी रामायण सुनी और गोस्वामीजी को आशीर्वाद दिया कि यह कृति तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देगी।
इसके बाद तुलसीदासजी भगवान की आज्ञा से काशी चले आए और वहां भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को उन्होंने श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक श्रीविश्वनाथजी के मन्दिर में रख दी गयी। सवेरे जब मन्दिर के पट खोले गए तो उस पर लिखा पाया गया- ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ और नीचे भगवान की सही थी। मन्दिर में उपस्थित लोगों ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की आवाज भी सुनी। देवताओं ने जय-जयकार करते हुए फूल बरसाए और तुलसीदासजी को वरदान दिए।
गोस्वामीजी ने श्रीरामचरितमानस को सबसे पहले संत श्रीरूपारण स्वामीजी को सुनाया जो मिथिला में रहते थे और भगवान श्रीराम को अपना जामाता मानकर प्रेम करते थे। इसके बाद भगवान ने तुलसीदासजी को काशी में रहने की आज्ञा दी।
श्रीरामचरितमानस की प्रसिद्धि से काशी के संस्कृत विद्वानों को बड़ी ईर्ष्या व चिन्ता होने लगी। वे दल बनाकर गोस्वामीजी की पुस्तक को ही नष्ट करने की कोशिश करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिए दो चोर भेजे। चोरों ने देखा कि गोस्वामीजी की कुटी के बाहर श्याम और गौर वर्ण के दो वीर बालक पहरा दे रहे हैं। रात भर बड़ी सावधानी से उन्हें पहरा देते देखकर चोर बहुत प्रभावित हुए और श्रीराम व लक्ष्मण के दर्शन से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने तुलसीदासजी के पास जाकर पूछा कि तुम्हारे ये पहरेदार कौन हैं? तुलसीदासजी ने गद्गद् कण्ठ से कहा कि तुम लोग धन्य हो जो तुम्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हुए। गोस्वामीजी समझ गए कि मेरे कारण प्रभु को कष्ट उठाना पड़ता है इसलिए उनके पास जो कुछ भी था, वह सब लुटा दिया।
तुलसीदासजी ने पुस्तक की मूल प्रति अपने मित्र टोडरमल के घर रख दी और दूसरी प्रति लिखी। अब तो पुस्तक का दिन-दूना प्रचार होने लगा। ईर्ष्यालु पण्डितों ने वटेश्वर मिश्र नामक तान्त्रिक को तुलसीदासजी का अनिष्ट करने के लिए कहा। तान्त्रिक ने मारण-मोहन प्रयोग के लिए भैरव को भेजा। हनुमानजी को तुलसीदासजी की रक्षा करते देखकर भैरव भयभीत होकर लौट आया और मारण प्रयोग तान्त्रिक पर ही उलटा पड़ गया।
आखिर में पण्डितों ने मधुसूदन सरस्वतीजी की शरण ली और कहा कि भगवान शिव ने तुलसीदास की पुस्तक सही तो कर दी परन्तु यह किस श्रेणी की पुस्तक है, यह बात नहीं बतलायी है। मधुसूदन सरस्वतीजी ने जब पुस्तक पढ़ी को उस पर अपनी राय लिख दी-
आनन्दकानने ह्यस्मिन् जंगमस्तुलसीतरु:।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता।।
श्रीरामचरितमानस मन्त्रमय है
एक बार सूरदासजी से किसी ने पूछा कि कविता सबसे उत्तम किसकी है ? इस पर उन्होंने कहा- ‘मेरी।’ फिर उसने पूछा गया कि गोस्वामी तुलसीदासजी की कविता को आप कैसी समझते हैं ? इस पर सूरदासजी ने कहा- ‘वह कविता नही है, मन्त्र है।’
श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां और दोहे आदि मन्त्र की तरह जपने पर महान फल देते हैं, बस मनुष्य को श्रद्धा-विश्वास से श्रीरामचरितमानस का पाठ करना चाहिए।
श्रीरामचरितमानस भारत के हर घर में बड़े आदर के साथ पढ़ी व पूजी जाती है। इसने कितने बिगड़ों को सुधारा है, कितने मोक्ष के अभिलाषियों को मोक्ष की प्राप्ति करायी है। श्रीरामचरितमानस अपनी शरण में आने वाले प्राणी को श्रीरामप्रेम की मस्ती में सराबोर कर श्रीराम से मिलाती है और जीवन को सार्थक कर देती है।
रामचरितमानस से बढ़कर मानव के लिए कोई नीति-ग्रन्थ नहीं हो सकता। इसमें गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र-मित्र के आदर्शों के साथ धर्मनीति, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, सत्य, त्याग, सेवा, प्रेम, क्षमा, परोपकार, शौर्य, दान आदि मूल्यों का सुन्दर विवेचन है। लोक-व्यवहार की सारी बातें हमें इसमें मिल जाती हैं। इसलिए भगवान शंकर द्वारा इस पर लिखे गये ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की कसौटी पर यह खरा उतरता है।
।। जय भगवान श्री सीताराम ।।