जैसे छाया कूप की, बाहरि निकसै नाहिं।
जन रज्जब यूँ राखिये, मन मनसा हरि माहि।।
वैसे हरि में मन को लगाये रखो। और वैसे हरि को मन में बसाये रखो। जैसे छाया कूप की। अपनी गहरी से गहरी अंतरंग दशा में हरि को पुकारते रहो।
अपने रोएँ रोएँ में बस जाने दो। अपनी धड़कन धड़कन में समा जाने दो। जितनी गहराई तक ले जा सको अपने भीतर, ले जाओ हरि के स्मरण को। गहरे—सें—गहरे उतारते जाओ। यही भजन की प्रक्रिया है।
भजन की प्रक्रिया के चार तल हैं।
चार गहराइयाँ हैं।
एक, जब तुम ओंठ से भगवान का नाम लेते हो। जब तुम ओंठ से पुकारते हो—राम, राम।
दूसरा तल, जब तुम ओंठ से नहीं पूउकारते, सिर्फ कंठ में ही गुनगुनाते हो—राम, राम। ओंठ बंद हैं, कंठ में ही आवाज चल रही है।
तीसरा तल, जब तुम कंठ पर भी नहीं लाते, सिर्फ चित्त में ही विचार चलता है—राम, राम। कंठ भी कँपता नहीं।
और चौथा, जब चित्त भी नहीं कँपता। सिर्फ भाव में ही राम की दशा होती है।
न राम शब्द होता है, न वाणी होती है, न स्वर होता है, सिर्फ भाव होता है एक गहन ।
उस चौथी दशा में तुम कुएँ की आखिरी गहराई में पहुँच गये—जैसे छाया कूप की,
वहाँ जब राम उतर जाता है, फिर तुमसे उसे कोई छीन नहीं सकता। जब तक वहा नहीं उतर गया है, तब तक तो मन का ही संबंध रहेगा। वहाँ उतरते ही मन तो बाहर का संबंध हो जाता है, मनातीत संबंध हो जाता है।
उस जाप को ही अजपा कहा है। जाप तो गया, लेकिन स्मरण है।
अब बोल नहीं उठते, लेकिन भाव है
🙏जय सियाराम जय जय राम 🙏
भगवान् श्रीराम जी ने विभीषणजी को कहा है कि नौ जगह मनुष्य की ममता रहती है, माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार में, जहाँ जहाँ हमारा मन डूबता है वहाँ वहाँ हम डूब जाते हैं, इन सब ममता के धांगो को बट कर एक रस्सी बना।
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
अर्थ-
श्रीराम जी ने कहा- हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत् का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
अर्थ-
और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार,
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अर्थ-
इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है,
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।
अर्थ-
ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता।
हनुमानजी कहते हैं सज्जन कौन है, जो बोलते, उठते, सोते, जागते हरि नाम लेता है, भगवान का सुमिरन करता है वह सज्जन हैं, सागर की तरह दूसरे को बढते हुए देख उमड़ता हो वो सज्जन हैं, जो सबकी ममता प्रभु से जोड दे, प्रभु के चरणों में छोड़ दे ‘सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणंब्रज’ वह सज्जन हैं, भगवान् बोले ऐसे सज्जन से हनुमानजी हठपूर्वक मित्रता करते हैं।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।
ऐसे तो हनुमानजी ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर जय कपीस तिहुँ लोक उजागर’ हनुमानजी वानरों के रक्षक हैं, ‘राखेहू सकल कपिन के प्राणा’ यह कपियों के वास्तव में ईश्वर है, रक्षक हैं, ‘जय कपीस तिहुँ लोक उजागर’ श्री हनुमानजी का यश तीनों लोकों में हैं, इसलिए! स्वर्ग में देवता भी इनका यशोगान करते हैं,
मृत्युलोक में राम-रावण संग्राम में सारे ऋषि-मुनि, सारे मानव एवं दानव सभी ने यहां तक की दानवराज रावण ने भी हनुमानजी की प्रशंसा की है, पाताललोक में अहिरावण व महिरावण ने भगवान् को हरण करके ले गए थे तो जाकर देवी की प्रतिमा में विराजमान होकर श्री हनुमानजी ने भगवान् की रक्षा की है, बडा मार्मिक प्रसंग है, हनुमानजी देवी की प्रतिमा में प्रवेश कर गयें।
अहिरावण, महिरावण ने देवीजी को प्रसन्न करने के लिए ५६ भोग लगायें और हनुमानजी युद्ध में बहुत दिनों तक भोजन नहीं कर पाए थे, टोकरी पे टोकरी चढाये जा रहे हैं, हनुमानजी कह रहे हैं चले आओ और हनुमानजी लडडू खा-खा कर बहुत प्रसन्न हैं, अहिरावण और महिरावण देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न, कि आज देवीजी बहुत प्रसन्न हैं।
हनुमानजी सोच रहे हैं कि बेटा चिंता मत कर, एक साथ इसका फल दूंगा, पाताललोक में और नागलोक में अहिरावण, महिरावण, भूलोक में ऋषि व मुनि, मृत्युलोक में देवता, ‘लोकउजागर’ ऐसे हैं श्री हनुमानजी, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है।
श्री हनुमानजी महाराज जब भगवान् श्रीरामजी के दूत बन कर जानकीजी के पास में गयें तो माँ ने यही प्रश्न किया, तुम हो कौन? अपना पत्ता व परिचय दो, तो हनुमानजी ने अपने परिचय में इतना ही कहा ‘रामदूत मैं मातु जानकी, सत्य सपथ करूणा निधान की’ अपने परिचय में हनुमानजी यही बोले माँ मैं भगवान् श्रीरामजी का दूत हूँ।
हनुमानजी की वाणी सुनकर माँ ने कहा दूत बन कर क्यो आये हो तुम तो पूत बनने के योग्य हो, पूत बन कर क्यो नही आयें? हनुमानजी बोले पूत तो आप बनाओगी तभी तो बनूँगा, हनुमानजी ने इतना कहा तो जानकीजी आगे जब भी बोली हमेशा पूत शब्द का ही प्रयोग किया है, ‘सुत कपि सब तुमहि समाना’ जब-जब बोली है जानकीजी ने पुत्र बोलकर ही सम्बोधित किया।
इसके बाद भगवान् भी बोले हैं ‘सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाही’ क्योंकि पुत्र का जो प्रमाण पत्र है वह माँ देती है, भगवान् अगर पहले पुत्र कह कर संबोधित करते तो जगत की व्यवहारिक कठिनाई खडी हो जाती, क्योंकि पुत्र तो माँ के द्वारा प्रमाणित होता है, क्योंकि माँ जो बोलेगी, माँ ही तो बोलेगी कि मैने जन्म दिया है।
अतः माँ जानकीजी और भगवान् श्रीराम जी को प्रणाम करते हुये भक्त शिरोमणि श्रीहनुमान जी से आप सभी को भगवान् की भक्ति की कामना के साथ मंगलमय् शुभकामनाएं।