वनगमन के समय जब लक्ष्मण जी ने साथ चलने का हठ किया तो प्रभु ने कहा, अच्छा, माँ से बिदा माँगकर आओ।
मागहु बिदा मातु सन जाई।
लक्ष्मण जी गये। सुमित्राजी ने समाचार सुना तो उनकी आँखों में आँसू आ गये। श्रीलक्ष्मण जी को लगा कि अरे, माँ के भीतर तो मेरी ममता जग गयी, अब क्या होगा?
लखन लखेउ भा अनरथ आजू।
एहिं सनेह बस करब अकाजू।।
श्रीलक्ष्मण जी ने पूछा, मां, आपकी आँखों में आँसू क्यों आ गये?
माँ सुमित्राजी ने कहा, तुम्हारा व्यवहार देखकर आँसू आ गये। यदि मुझसे बिना पूछे ही तुम चले जाते तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। अरे, तुम्हारी माँ तो वहीं खड़ी थी, उनसे आज्ञा माँगनी थी।
तात तुम्हारि मातु बैदेही।
वैदेही के बेटे होकर तुमने इस देह को अर्थात् मुझको माता मान लिया?
सुमित्राजी शरीर से ऊपर उठ गयी थी और कह दिया,
जौं पै सीय रामु बन जाहीं।
अवध तुम्हार काज़ु कछु नाहीं।।
सुमित्राजी के मुख से अन्त में निकला, पुत्र लक्ष्मण,
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू।
सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू।।
श्रीलक्ष्मण जी को सुनकर आश्चर्य हुआ और पूछा, आप तो अभी-अभी कह रही थीं कि तुम तो सीताजी के बेटे हो, फिर आप मुझे पुत्र कहकर क्यों पुकार रही हैं?
सुमित्रा जी ने कहा, तुम मुझे माँ न मानो, तब तुम्हारा कल्याण है और मैं तुम्हें बेटा मानूँ तो मेरा कल्याण है। अगर तुम मुझे माँ कहकर वन में चले भी जाओगे तो तुम्हें याद आती रहेगी कि मेरी माँ अयोध्या में है। इसलिए मेरे नाते की याद से तुम भगवान को भूल जाओगे और मैं जब यह मानूँगी कि श्रीलक्ष्मण मेरा बेटा है और वह प्रभु के चरणों की सेवा कर रहा है तो मुझे भगवान की याद आयेगी। नाता तो वही मानना चाहिए कि जिसमें भगवान् की याद आये। मेरे लिए पुत्र का नाता सहायक है, पर तुम्हारे लिए बाधक है। इसलिए मैं तुम्हें पुत्र कहूँ और तुम मुझे माँ न कहो, यही ठीक रहेगा।
सुमित्रा मां ने आगे कहा, तुम्हे पुत्र मानकर मैं इसलिए भी प्रसन्न हो रही हूं कि जैसे भगवान को दूध का भोग लगाने पर दूध के पहले भगवान के द्वारा कटोरे का स्पर्श होगा, वैसे ही तुम तो उनके चरणों में बने रहोगे, पर माँ के नाते से मुझे तो उन चरणों से वंचित रहना होगा, परन्तु तुम्हें छाती से लगाकर मैं भी उन चरणों का आनन्द ले सकूंगी, क्योंकि तुम्हारे हृदय में उनके चरण रहेंगे।
इतना उच्च भाव है। इसका अर्थ है, सुमित्रा अम्बा भाव में स्थित हैं, जब वन से लौट करके श्रीलक्ष्मण जी आये और सुमित्राजी के चरणों में प्रणाम किया तो न जाने कितनी देर तक उनको हृदय से लगाये रहीं।
लोग समझते हैं कि इतने वर्षों बाद बेटा मिला है, इसलिए हृदय से लगाये हुए हैं, परन्तु सुमित्राजी का भाव दूसरा है। भाव की दृष्टि से मां राम को साक्षात ईश्वर मानती हैं, पर संसार की दृष्टि से वह पुत्र हैं। ईश्वर के नाते मां राम जी के चरणों को छूना चाहती हूँ, लेकिन उन्होंने पुत्र होने के नाते छूने नहीं दिया, लेकिन मां को याद आ गयी कि लक्ष्मण जी चौदह वर्षों तक श्रीराम जी के चरणों को हृदय में धारण किए रहे, इसलिए लक्ष्मण जी को हृदय से लगाकर श्रीराम जी के चरणों का स्पर्श सुख मां को मिल जायेगा। सुमित्रा जी के इस भाव का दिव्य सुख कितना विलक्षण है?
हमारा सम्बन्ध जीतेजी परमात्मा राम से बन जाये आप भगवान को पुत्र मानो पति मानो आप भगवान से सम्बन्ध को बना कर रखे तभी जीव का कल्याण है