तोते का गुण है निर्मोही होना। संन्यासी भी एक बार घर बार रूपी पिंजरा छोड़ देता है तो मुड़ के नहीं देखता। एक बार स्वतंत्र हुए तोते को सोने का पिंजरा भी आकर्षित नहीं कर सकता। संभवत: इसीलिये गुरु दिव्यानंद ने अपने शिष्य का नाम तोता पुरी रखा होगा।
विधिवत संन्यास की दीक्षा लेने के बाद घोर तपस्या करके नर्मदा तट पर तोता पुरी निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हुए। निर्विकल्प मतलब कि अस्तित्व बोध के अतिरिक्त कुछ नहीं। चेतना का विस्तार इतना कि समूचा ब्रह्मांड ही समा जाये। व्यक्ति की चेतना समष्टि में समा जाये। बूँद सागर में मिल कर सागर हो जाये।
गंगा सागर की तीर्थ यात्रा कर के तोता पुरी लौटते समय दक्षिणेश्वर के गंगा तट पर धूनी लगा कर रम गये। गंगा घाट पर गूढ़ चिंतन में निमग्न गदाधर को पहले तोता पुरी ने ही देखा और उनमें आंतरिक चेतना के प्रस्फुटित होते प्रकाश को वह पहचान गये। निकट जा कर उन्होंने कहा कि “वत्स मैं देख रहा हूँ कि तुम सत्य के मार्ग पर काफी दूरी तक अग्रसर हो चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें अंतिम मंजिल तक पहुँचा सकता हूं। मैं तुम्हें वेदान्त की शिक्षा दूँगा।”
सरल चित्त गदाधर बाबू ने कहा मैं माँ से पूछ लूं। उन्होंने कहा “अवश्य।” तोता पुरी विस्मित हो गये जब गदाधर को मां काली से बात करते देखा।
गदाधर अनुमति लेकर वापस आ गये तब तोता पुरी ने शर्त रखी कि तुम्हें अपना सब कुछ इसी क्षण विसर्जित करना होगा । पृथ्वी की तरह नग्न हो कर सांकेतिक रूप से अपनी देह का भी संस्कार करना होगा तभी तुम इन गैरिक वस्त्रों को धारण करने के पात्र बन सकोगे।
गदाधर तुरंत तैयार हो गये और अब तोता पुरी ने उन्हें अद्वैत वेदांत का गहन उपदेश देना शुरू किया ।
रामकृष्ण परमहंस सविकल्प समाधि में तो जा ही चुके
थे, जब काली के सिवा सारा अस्तित्व तिरोहित हो जाता था। लेकिन यहां निर्विकल्प समाधि की बात थी जहां कुछ भी शेष नहीं रहना था।
रामकृष्ण हर तरह प्रयत्न करके अपने अंतरतम तक गोते लगा कर हार गये और तोता पुरी से कहा कि मुझसे नहीं हो सकेगा। सब कुछ तिरोहित हो जाता है पर ज्योतिर्मयी माँ मुझसे नहीं छूटती ।
तोता पुरी पंजाब के दीर्घकाय बलशाली लंबे तगड़े साधु थे। उन्होंने रोष भरे शब्दों कहा, ”क्या कहा ? तुझसे नहीं होगा ? तुझको करना होगा।“ काँच का टुकड़ा ले कर माथे पर चुभोते हुए बोले इस बार जैसे ही काली प्रकट हो तुम विचारों की तलवार से उसे काट फेंकना ।
रामकृष्ण ने ऐसा ही किया काली को काट फेंका, अब कुछ भी शेष नहीं रहा। चेतना का एक महासागर था जिसमें थोड़ा बहुत रामकृष्ण का अहम् था वह भी धीरे धीरे तिरोहित हो गया और रामकृष्ण निर्विकल्प समाधि में चले गये। तोता पुरी चकित और विस्मित थे और एक दिन समाधि नहीं टूटी तब कुछ भयभीत भी हुए। रामकृष्ण की समाधि तीन दिन तक नही टूटी। अब वह ब्रह्म के साथ एकाकार हो चुके थे सत् चित् आनंद की अवस्था में। तोता पुरी ने कहा कि मैंने जो चालीस साल की गहन तपस्या में पाया था वह रामकृष्ण ने एक दिन में पा लिया।
तोता पुरी कहीं तीन दिन से अधिक नहीं रुकते थे । ठाकुर के प्रेम में उन्हें ग्यारह महीने दक्षिणेश्वर में रुकना पड़ा ।