श्रीचक्रपाणिशरण जी महाराज भाग- 2

गतांक से आगे –

माता राधादेवी ने जब देखा उसका बालक रामचन्द्र रात हो गयी अभी भी नही आया ….तो वो खोजने चली गयीं …..एक अपार कष्ट कि वैधव्य जीवन बिताना पड़ेगा अब …और दूसरा अज्ञात दुःख कि कहीं पुत्र “जोगी” न बन जाये । मशान में ही बैठा है रामचन्द्र शून्य में तांकते हुए ….माता ने देख लिया अपने हृदय से लगाकर वो खूब रोईं …..मुझे छोड़कर मत जाना ..मेरा कोई नही है ….वो कुछ नही बोला …उसे बस यही था सबको मरना है ….मेरे पिता मरे हैं …जलते हुए उसने देखा है …उसने ही मृत देह को जलाया है …..ओह ! वो अपनी माता के साथ घर चला आया था । पर उसे नींद नही आरही …..।

समय बीता……आठ वर्ष का हुआ है अब …..यज्ञोपवित संस्कार हुआ रामचन्द्र का ….गायत्री के एक पुरश्चरण की आज्ञा गुरु ने दी ……इसने पूर्ण करके अब आज्ञा माँगी तो गुरु ने कहा …माता से आज्ञा लो ….पर रामचन्द्र जानता है उसने माता से आज्ञा माँगी तो माता जी सीधे विवाह के लिए कह देंगी ….उन्होंने लड़की भी देख कर रखी थी ….इसलिये उन्होंने माता जी से कहा …मैं अभी विद्याध्यन करना चाहता हूँ । पुत्र ! मेरे लिए बहु छोड़ जा …मैं अकेली कैसे रहूँगी ! माता फिर रोने लगीं ….पर रामचन्द्र की सोच थी कि किसी की कन्या को पाणिग्रहण करके ले आऊँ ….तो मेरा कर्तव्य बन जायेगा कि उसकी देख रेख मैं स्वयं करूँ ….पर ये सब अब रामचन्द्र से होने वाला नही था …..इसलिए उन्होंने माता जी को मना कर दिया ….पर ये नही कहा कि मैं विवाह करूँगा नही …..बस ये कहा …मैं काठमाण्डू जा रहा हूँ और वहीं से पढ़ लिखकर वापस आजाऊँगा ।

बेचारी माता ….ये कर भी क्या सकती थी …..बालक रामचन्द्र काठमाण्डू चले गए अपने दूर के चाचा के साथ ……..

हे मन ! तिमि त अबोध छौ ।
हेरेर , सुनेर , बुझेर पनि , संसार मा किन फसेका छौ ।
के सार , के असार , किन न गरेको विचार , अब के गर्नी हो लौ । हे मन ! तिमि त अबोध छौ …..

काठमाण्डू इसके दूर के चाचा ले गये थे पढ़ने के लिये ….पर प्रवल वैराग्य की आँधी इनको संसार से हटा रही थी ….ये जब विचलित होते या संसार का मोह इन्हें पकड़ता …तो ये एकान्त में अपने मन को समझाते ….हे मन तू कितना भोला है …देख कर , सुनकर और समझ कर भी संसार में फँसना क्यों चाहता है ? क्या सार है क्या असार इस पर तो विचार कर …..इन सब मन की शिक्षा पर ये रामचन्द्र गीत बनाकर गाते थे…..अकेले में यही गुनगुनाते थे ।

संस्कृत व्याकरण पढ़ने लगे …पढ़ते थे पर …..”सा विद्या या विमुक्तये “…विद्या तो वो है जो मुक्त करे …..पर ये विद्या तो बांधेंगी …..राम चन्द्र सोचते …..क्या करना है जीवन में क्या पाना है ….अभी तक ये समझ ही नही पाये थे बड़े होते गये ….पन्द्रह वर्ष के हो गए …इन्होंने शास्त्र अध्ययन पूरा किया …..पर अब क्या करना है ?

पुराण लगाया है काठमाण्डू में किसी ने …..अठारह पुराण ….राम चन्द्र सुनने के लिए चले गये ….उस समय श्रीमदभागवत का पाठ चल रहा था ….ये जाकर बैठ गये …पर ये क्या ! भागवत के पाठक ने जैसे ही एक श्लोक पढ़ा ……ये उठ कर खड़े हो ….पास में गये ….रामचन्द्र ने भागवत उठा ली अपने हाथों में ….वो पाठ करने वाला मना करता रहा …पर रामचन्द्र को मतलब नही था …उन्होंने स्वयं वो श्लोक पढ़ा ….चार बार पढ़ा …….

“स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे , अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ।”

सबसे बड़ा धर्म मनुष्य का यही है कि हेतु रहित भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करे ।

आहा ! नाच उठे राम चन्द्र ….सबसे बड़ा धर्म यही है …भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति ….पर मात्र भक्ति नही …हेतु रहित भक्ति ….कोई कारण नही …अकारण ।

वो भागवत जी को अपने माथे से लगाकर भागे भगवान पशुपतिनाथ के मन्दिर की ओर …उन्होंने जाकर साष्टांग प्रणाम किया भगवान पशुपतिनाथ को …दर्शन किये….और वही बैठ गये …शान्त भाव से …बाग़मती नदी बह रही हैं …उनकी कल कल की ध्वनि सुनाई दे रही है ।

रात्रि हो गयी …मन्दिर से उन्हें बाहर जाना पड़ा ….पर बाग़मती से कोई नही निकाल सकता । वो वहाँ जाकर बैठ गये ….इस पवित्र नदी को वो देखते रहे ।

देखते देखते उन्हें झपकी आगयी ……

कौन हो आप ? “अनादि योगी” ….उस विशाल काय योगी ने उत्तर दिया ।

राम चन्द्र ने हाथ जोड़कर पूछा …..एक बात बताओ ….अहेतु भक्ति यानी ? “अकारण भक्ति”……योगी का उत्तर था …उस अकारण भक्ति से क्या होगा ? वो योगी हंसा था ….कारण से भक्ति करोगे तो कल को तुम्हारा कारण अधूरा रह गया पूरा नही पाया तो भक्ति तुम्हारी छूट जाएगी …पर अकारण में आनन्द है ….तू दे या न दे …हम तुझ से प्रेम करते हैं ।

तो किसकी भक्ति करूँ ? रामचन्द्र पूछ रहे हैं ….”भगवान श्रीकृष्ण की” …..क्यों की वही हैं सबके मूल …इतना कहकर वो योगी सामने के पर्वत शृंखला में खो गये थे ।

ए तिमि हो बनारस जाने ?

एक आदमी ने रामचन्द्र को आकर रात्रि में झकझोर कर उठाया ….वो कोई बस वाला था उसके सब यात्री आगये थे ..किन्तु एक युवा रह गया था ….उठा रामचन्द्र ….तुम्ही हो जिसे बनारस जाना है ? उस आदमी ने पूछा था ….रामचन्द्र ने सिर “हाँ” में ही हिला दिया ….तो चलो …रामचन्द्र चल दिया ….पर वो योगी कौन था ? सपना कहकर उस बात को झुठलाया नही जा सकता ….फिर ये बनारस ले जाने वाला कौन है ? रामचन्द्र ने प्रणाम किया भगवान पशुपतिनाथ को ….वो अनादि योगी पशुपतिनाथ ही थे …और मुझे अब बनारस भेज रहे हैं …प्रसन्नता में भरकर वो बनारस के लिए बस में बैठ गया था । अस्तित्व सब व्यवस्था करेगा ….बस हमारी तैयारी होनी चाहिये ….यही सब सोचते हुये नदी पर्वतों से वो अब तराई में उतर रहा था ।

शेष कल –

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