प्रत्येक बातकी एक सीमा होती है। कन्याकी अवस्था बढ़ती जा रही थी। महाराजको लोक-निन्दाका भय था। लोग कानाफूसी करने भी लगे थे; किंतु राजकन्या थी अपने अहंकारमें वह किसी राजकुमारको वरण करनेको प्रस्तुत ही नहीं होती थी। अन्तमें महाराजने पड़ोसके युवक राजा रंगमोहनसे कुछ मन्त्रणा करके घोषणा कर दी – ‘राजकुमारीके आगामी जन्म दिन प्रातःकाल जो पुरुष नगरद्वारमें पहिले प्रवेश करेगा, उसके साथ राजकुमारीका विवाह कर दिया जायगा, फिर वह कोई भी हो। ‘
राजकुमारीका जन्मदिन आया। प्रातः काल नगरद्वारमें सबसे पहिले प्रविष्ट होनेवाले पुरुषको राजसेवक पकड़ लाये। वह था फटे-चिथड़े लपेटे एक भिक्षुक। परंतु वह युवक था, सुन्दर था और पूरा अलमस्त था। उसके मुखपर सदा प्रसन्नता खेलती रहती थी। महाराजने राजपुरोहितको बुलवाया और बिना किसी धूम-धामके उन्होंने उसी दिन उस भिक्षुकके साथ राजकन्याका विवाह कर दिया। राजकुमारी चिल्लायी, मचली और रोते-रोते उसने अपने सुन्दर नेत्र लाल बना लिये; किंतु आज उसके पिता निष्ठुर बन गये थे। उन्होंने पुत्रीके रोने-चिल्लानेपर ध्यान ही नहीं दिया। भिक्षुकको केवल पाँच स्वर्णमुद्रा देकर उन्होंने कहा- ‘तू अपनी पत्नीको लेकर मेरे राज्यसे शीघ्र निकल जा। स्मरण रख कियदि फिर तू या तेरी पत्नी मेरे राज्यमें आयी तो प्राणदण्ड दिया जायगा।’
‘चलो मन्दाकिनी!’ भिक्षुकने राजकन्याका हाथ पकड़ा और चल पड़ा। रोती-बिलखती राजकुमारी उसके साथ जानेको विवश थी परंतु भिखारी ज्यों-का त्यों प्रसन्न था। वह पत्नीके रोनेपर ध्यान दिये बिना गीत गाता जाता था।
राजकन्याको पैदल ही पिताके राज्यसे बाहर जाना पड़ा। भिखारी उससे मधुर भाषामें बोलता था, उसे प्रसन्न करनेका प्रयत्न करता था। पर्याप्त दूर जानेपर जंगलमें नदी किनारे एक फुसकी झोपड़ी में दोनों पहुँचे। भिखारीने कहा- ‘अब यही तुम्हारा घर है। तुम्हें स्वयं अब जंगलके पत्ते और लकड़ियाँ लानी पड़ेंगी। कन्द मूल जो कुछ मिलेगा, उसे उबालकर खाना पड़ेगा । पासके गाँवमें लकड़ियाँ बेचने जाना होगा। मैं भी जितना बन सकेगा, तुम्हारी सहायता करूँगा।’
राजकन्याके लिये यह जीवन कितना दुःखद था, यह आप अनुमान कर सकते हैं; किंतु विवशता सब करा लेती है। एक ही सुख उसे था कि भिखारी उसके साथ बहुत प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। कुछ दिनों बाद भिखारीने वह झोपड़ी छोड़ दी। मन्दाकिनीको लेकर वह एक गाँवमें आया। वहीं ये दोनों एक खंडहरप्राय घरमें रहने लगे। भिखारी कहींसे कुछ पैसे ले आया और उससे उसने मिट्टीके बर्तन खरीदे। पत्नीसे उसने कहा- ‘इन बर्तनोंको बाजारमें ले जाकर बेच आओ।”
किसी समय जो राजकन्या थी, उसके लिये सिरपर बर्तन उठाकर बाजारमें जाना बड़ा कठिन जान पड़ा; किंतु जाना पड़ा उसे भिखारीने उसे स्पष्ट कह दिया कि यदि उसकी आज्ञाका पालन न करना हो तो वह मन्दाकिनीको छोड़कर चला जायगा। बेचारी मन्दाकिनी वर्तन सिरपर उठाकर बाजागयी। उसे बर्तन बेचना तो आता नहीं था, दूसरोंसे नम्र व्यवहार करना भी नहीं आता था। बाजारमें बर्तन रखकर वह उनके पास खड़ी रही। भूमिमें बैठना उसे बहुत बुरा लगा।
एक युवक घुड़सवार बाजारमें आया। उसने मन्दाकिनीसे बर्तनोंके दाम पूछे। मन्दाकिनीने रूखे स्वरमें दाम बताये तो घुड़सवार लौट पड़ा। मोड़ते समय उसका घोड़ा भड़क उठा। फलतः घोड़ेके पैरोंकी ठोकरसे सब वर्तन फूट गये। घुड़सवारने इधर ध्यान ही नहीं दिया। वह चला गया। मन्दाकिनी रोती हुई घर लौटी। भिखारी क्रुद्ध होगा, इस भयसे उसके प्राण काँप रहे थे।
भिखारी आया। रोते-रोते मन्दाकिनीके नेत्र फूल उठे थे। भिखारी कुछ बोला नहीं। परंतु दूसरे दिन उसने कहा- ‘मन्दाकिनी ! कोई काम आता नहीं। मिट्टीके बर्तन फूट गये। अब हम दोनोंका कैसे निर्वाह होगा ? एक उपाय है-नगरमें चलें। राजा रंगमोहनकी पाकशालामें तुम्हें कोई नौकरी दिलवानेका प्रयत्न करें। तुम्हें काम मिल जाय तो तुम्हारी ओरसे निश्चिन्त होकर मैं भी कहीं काम ढूँढूँ। कुछ धन एकत्र हो जानेपर कोई व्यापार कर लूँगा और तब तुम्हें भी अपने पास बुला लूँगा।’
राजा रंगमोहनका नाम सुनकर मन्दाकिनीने दीर्घ श्वास ली। एक समय इस नरेशने उससे विवाह करनेका प्रस्ताव किया था। आज वह राजरानी होती; किंतु हाय रे गर्व ! उसी राजभवनमें दासी बनने वह जा रही है। जानेके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं । मन्दाकिनी नगरमें गयी और राजाकी पाकशालामें उसे नौकरी मिल गयी। भिखारी उससे बिदा होकर कहीं चला गया।
मन्दाकिनीका गर्व नष्ट हो गया था। उसका स्वभाव बदल गया था। अब वह अत्यन्त विनम्र, परिश्रमी औरसावधान सेविका बन गयी थी । रसोई-घरकी अध्यक्षा रम्भाकुमारी उसके कार्यसे अत्यन्त संतुष्ट थीं। वसन्त पञ्चमी आयी। राजा रंगमोहनका यह जन्मदिन था। सभी सेवकोंको इस दिन नरेश अपने हाथसे पुरस्कृत करते थे। दूसरी सेविकाओंके साथ मन्दाकिनीको भी राजसभामें जाना पड़ा। जब सब सेवक पुरस्कृत हो चुके और सब सेविकाएँ भी पुरस्कार पा चुकीं, तब उसे पुकारा गया। वह हाथ जोड़े, मस्तक झुकाये राजसिंहासनके सामने खड़ी हो गयी। नरेशने कहा ‘मन्दाकिनी! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हें तो मैं अपनी रानी बनाना चाहता हूँ।’
मन्दाकिनी चौंक पड़ी; वह बोली- ‘महाराज ! आपको ऐसी अधर्मपूर्ण बात नहीं करनी चाहिये। मैं परस्त्री हूँ। क्या हुआ जो मेरा पति भिक्षुक है। मेरा तो वही सर्वस्व है। उसे छोड़कर मैं दूसरे पुरुषकी कामना नहीं करती। वहीं मेरा स्वामी है। आपकी मुझपर बहुत कृपा है तो इतना अनुग्रह करें कि मेरे पतिका पता लगवाकर उसे बुला दें। मैं पाकशाला में सेवा करके प्रसन्न हूँ।’
महाराज रंगमोहन भीतर चले गये और थोड़ी देर में वह भिखारी राजमहलसे निकला । मन्दाकिनी उसे देखते ही दौड़कर उसके पैरोंपर गिर पड़ी। भिखारी मुसकराया—’मन्दाकिनी! मुझे ध्यानसे देखो तो। तुम्हें मुझमें और रंगमोहनमें कुछ सादृश्य नहीं मिलता ?”
भेद खुल गया था। भिखारीके वेशमें उसका | पाणिग्रहण करनेवाले स्वयं राजा रंगमोहन थे और वह थी उनकी महारानी । राजाने कहा- ‘मन्दाकिनी! क्षमा करना, तुम्हारे अभिमानकी दूसरी कोई औषध मुझे मिलती ही नहीं थी।
‘-सु0 सिं0
प्रत्येक बातकी एक सीमा होती है। कन्याकी अवस्था बढ़ती जा रही थी। महाराजको लोक-निन्दाका भय था। लोग कानाफूसी करने भी लगे थे; किंतु राजकन्या थी अपने अहंकारमें वह किसी राजकुमारको वरण करनेको प्रस्तुत ही नहीं होती थी। अन्तमें महाराजने पड़ोसके युवक राजा रंगमोहनसे कुछ मन्त्रणा करके घोषणा कर दी – ‘राजकुमारीके आगामी जन्म दिन प्रातःकाल जो पुरुष नगरद्वारमें पहिले प्रवेश करेगा, उसके साथ राजकुमारीका विवाह कर दिया जायगा, फिर वह कोई भी हो। ‘
राजकुमारीका जन्मदिन आया। प्रातः काल नगरद्वारमें सबसे पहिले प्रविष्ट होनेवाले पुरुषको राजसेवक पकड़ लाये। वह था फटे-चिथड़े लपेटे एक भिक्षुक। परंतु वह युवक था, सुन्दर था और पूरा अलमस्त था। उसके मुखपर सदा प्रसन्नता खेलती रहती थी। महाराजने राजपुरोहितको बुलवाया और बिना किसी धूम-धामके उन्होंने उसी दिन उस भिक्षुकके साथ राजकन्याका विवाह कर दिया। राजकुमारी चिल्लायी, मचली और रोते-रोते उसने अपने सुन्दर नेत्र लाल बना लिये; किंतु आज उसके पिता निष्ठुर बन गये थे। उन्होंने पुत्रीके रोने-चिल्लानेपर ध्यान ही नहीं दिया। भिक्षुकको केवल पाँच स्वर्णमुद्रा देकर उन्होंने कहा- ‘तू अपनी पत्नीको लेकर मेरे राज्यसे शीघ्र निकल जा। स्मरण रख कियदि फिर तू या तेरी पत्नी मेरे राज्यमें आयी तो प्राणदण्ड दिया जायगा।’
‘चलो मन्दाकिनी!’ भिक्षुकने राजकन्याका हाथ पकड़ा और चल पड़ा। रोती-बिलखती राजकुमारी उसके साथ जानेको विवश थी परंतु भिखारी ज्यों-का त्यों प्रसन्न था। वह पत्नीके रोनेपर ध्यान दिये बिना गीत गाता जाता था।
राजकन्याको पैदल ही पिताके राज्यसे बाहर जाना पड़ा। भिखारी उससे मधुर भाषामें बोलता था, उसे प्रसन्न करनेका प्रयत्न करता था। पर्याप्त दूर जानेपर जंगलमें नदी किनारे एक फुसकी झोपड़ी में दोनों पहुँचे। भिखारीने कहा- ‘अब यही तुम्हारा घर है। तुम्हें स्वयं अब जंगलके पत्ते और लकड़ियाँ लानी पड़ेंगी। कन्द मूल जो कुछ मिलेगा, उसे उबालकर खाना पड़ेगा । पासके गाँवमें लकड़ियाँ बेचने जाना होगा। मैं भी जितना बन सकेगा, तुम्हारी सहायता करूँगा।’
राजकन्याके लिये यह जीवन कितना दुःखद था, यह आप अनुमान कर सकते हैं; किंतु विवशता सब करा लेती है। एक ही सुख उसे था कि भिखारी उसके साथ बहुत प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। कुछ दिनों बाद भिखारीने वह झोपड़ी छोड़ दी। मन्दाकिनीको लेकर वह एक गाँवमें आया। वहीं ये दोनों एक खंडहरप्राय घरमें रहने लगे। भिखारी कहींसे कुछ पैसे ले आया और उससे उसने मिट्टीके बर्तन खरीदे। पत्नीसे उसने कहा- ‘इन बर्तनोंको बाजारमें ले जाकर बेच आओ।”
किसी समय जो राजकन्या थी, उसके लिये सिरपर बर्तन उठाकर बाजारमें जाना बड़ा कठिन जान पड़ा; किंतु जाना पड़ा उसे भिखारीने उसे स्पष्ट कह दिया कि यदि उसकी आज्ञाका पालन न करना हो तो वह मन्दाकिनीको छोड़कर चला जायगा। बेचारी मन्दाकिनी वर्तन सिरपर उठाकर बाजागयी। उसे बर्तन बेचना तो आता नहीं था, दूसरोंसे नम्र व्यवहार करना भी नहीं आता था। बाजारमें बर्तन रखकर वह उनके पास खड़ी रही। भूमिमें बैठना उसे बहुत बुरा लगा।
एक युवक घुड़सवार बाजारमें आया। उसने मन्दाकिनीसे बर्तनोंके दाम पूछे। मन्दाकिनीने रूखे स्वरमें दाम बताये तो घुड़सवार लौट पड़ा। मोड़ते समय उसका घोड़ा भड़क उठा। फलतः घोड़ेके पैरोंकी ठोकरसे सब वर्तन फूट गये। घुड़सवारने इधर ध्यान ही नहीं दिया। वह चला गया। मन्दाकिनी रोती हुई घर लौटी। भिखारी क्रुद्ध होगा, इस भयसे उसके प्राण काँप रहे थे।
भिखारी आया। रोते-रोते मन्दाकिनीके नेत्र फूल उठे थे। भिखारी कुछ बोला नहीं। परंतु दूसरे दिन उसने कहा- ‘मन्दाकिनी ! कोई काम आता नहीं। मिट्टीके बर्तन फूट गये। अब हम दोनोंका कैसे निर्वाह होगा ? एक उपाय है-नगरमें चलें। राजा रंगमोहनकी पाकशालामें तुम्हें कोई नौकरी दिलवानेका प्रयत्न करें। तुम्हें काम मिल जाय तो तुम्हारी ओरसे निश्चिन्त होकर मैं भी कहीं काम ढूँढूँ। कुछ धन एकत्र हो जानेपर कोई व्यापार कर लूँगा और तब तुम्हें भी अपने पास बुला लूँगा।’
राजा रंगमोहनका नाम सुनकर मन्दाकिनीने दीर्घ श्वास ली। एक समय इस नरेशने उससे विवाह करनेका प्रस्ताव किया था। आज वह राजरानी होती; किंतु हाय रे गर्व ! उसी राजभवनमें दासी बनने वह जा रही है। जानेके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं । मन्दाकिनी नगरमें गयी और राजाकी पाकशालामें उसे नौकरी मिल गयी। भिखारी उससे बिदा होकर कहीं चला गया।
मन्दाकिनीका गर्व नष्ट हो गया था। उसका स्वभाव बदल गया था। अब वह अत्यन्त विनम्र, परिश्रमी औरसावधान सेविका बन गयी थी । रसोई-घरकी अध्यक्षा रम्भाकुमारी उसके कार्यसे अत्यन्त संतुष्ट थीं। वसन्त पञ्चमी आयी। राजा रंगमोहनका यह जन्मदिन था। सभी सेवकोंको इस दिन नरेश अपने हाथसे पुरस्कृत करते थे। दूसरी सेविकाओंके साथ मन्दाकिनीको भी राजसभामें जाना पड़ा। जब सब सेवक पुरस्कृत हो चुके और सब सेविकाएँ भी पुरस्कार पा चुकीं, तब उसे पुकारा गया। वह हाथ जोड़े, मस्तक झुकाये राजसिंहासनके सामने खड़ी हो गयी। नरेशने कहा ‘मन्दाकिनी! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हें तो मैं अपनी रानी बनाना चाहता हूँ।’
मन्दाकिनी चौंक पड़ी; वह बोली- ‘महाराज ! आपको ऐसी अधर्मपूर्ण बात नहीं करनी चाहिये। मैं परस्त्री हूँ। क्या हुआ जो मेरा पति भिक्षुक है। मेरा तो वही सर्वस्व है। उसे छोड़कर मैं दूसरे पुरुषकी कामना नहीं करती। वहीं मेरा स्वामी है। आपकी मुझपर बहुत कृपा है तो इतना अनुग्रह करें कि मेरे पतिका पता लगवाकर उसे बुला दें। मैं पाकशाला में सेवा करके प्रसन्न हूँ।’
महाराज रंगमोहन भीतर चले गये और थोड़ी देर में वह भिखारी राजमहलसे निकला । मन्दाकिनी उसे देखते ही दौड़कर उसके पैरोंपर गिर पड़ी। भिखारी मुसकराया—’मन्दाकिनी! मुझे ध्यानसे देखो तो। तुम्हें मुझमें और रंगमोहनमें कुछ सादृश्य नहीं मिलता ?”
भेद खुल गया था। भिखारीके वेशमें उसका | पाणिग्रहण करनेवाले स्वयं राजा रंगमोहन थे और वह थी उनकी महारानी । राजाने कहा- ‘मन्दाकिनी! क्षमा करना, तुम्हारे अभिमानकी दूसरी कोई औषध मुझे मिलती ही नहीं थी।
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