सिगरेट आपकी तो उसका धुआँ किसका

tree leaves green

एक बार कैलासाश्रम ऋषिकेशसे ब्रह्मलीन महात्मा स्वामीजी श्रीप्रकाशानन्दपुरीजी होशियारपुर से हरद्वार पधार रहे थे। रेलके अम्बाला छावनी स्टेशनपर खड़ी होते ही तीन-चार पहलवान सेवकों के साथ एक नवशिक्षित युवक धूम्रपान करता हुआ स्वामीजीवाले डिब्बे में चढ़ा। जिन नाक, आँख, मुखको प्रथम कभी सिगरेटके धुएँका परिचय नहीं था, उनको इससे बड़ा कष्ट हुआ। परंतु उस अल्हड़ युवकसे कुछ कहना तो दूर रहा, उसकी ओर झाँकनेकी श्री हिम्मत किसीकी न हो सकी यह करुण दृश्य स्वामीजीसे नहीं देखा जा सका। उन्होंने युवकसे कहा ‘आप नीचे प्लेटफॉर्मपर उतरकर धूम्रपान करें।’ युवक ‘क्यों? हम क्यों नीचे उतरें? हमारा सिगरेट पीना जो सहन न कर सकता हो, वही उतर जाय।’ स्वामीजी ‘आप देख रहे हैं कि आपके अतिरिक्त अन्य किसीको भी सहन नहीं हो रहा है, ऐसी दशामें सबके उतरनेकी अपेक्षा अकेले आपको ही यह कष्ट करना उचित है।’

युवक- ‘सिगरेट हमारी है, हम पी रहे हैं, इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है? अपनी चीजका उपयोग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं, हमें नीचे उतारनेका तुम्हें क्या अधिकार है? हाँ, तुमसे न सहा जाता हो तो लो हमसे सिगरेट लो और तुम भी पियो।’ स्वामीजी शान्त, सौम्य, परंतु प्रभावोत्पादक ढंगसे बोले-‘जो कुछ बिगड़ रहा है वह तो सबके सामने है, इस बीभत्स धूमसे अनभ्यस्त इन बच्चे एवं माताओंकी मुखमुद्रा तो देखिये। आप स्वतन्त्र हैं, ईश्वरके अनुग्रहसे पूर्ण स्वतन्त्र बने रहें; किंतु स्वच्छन्दी बनकर दूसरोंकी स्वतन्त्रताका विघात न करें हम आप सभी भारतीय हैं, इस नाते आपसे उपर्युक्त निवेदन करनेका हमें पूरा अधिकार है। आप हमें सिगरेट भेंट कर रहे हैं, यह आपकी उदारता है,आप और भी उदार बनें; किंतु उड़ाऊ (दूसरोंके मुखपर धुआँ उड़ानेवाले) मत बनें। सिगरेट आपकी है तो उसका धुआँ किसका है? वह भी आपका ही होना चाहिये। आप अपनी सिगरेट अपने ही मुखमें रखें और उसके धुएँको भी अपने ही मुखमें छिपाये रखें।’

युवकको कुछ प्रभावित हुआ-सा देख स्वामीजी और भी अधिक उत्साहसे उसे उपदेश देने लगे ‘मैं आपसे सिगरेटकी आशा नहीं रखता, प्रत्युत इस विनाशकारी व्यसनको सदाके लिये छोड़ देनेकी आशा अवश्य रखता हूँ, मुझे आप कुछ देना चाहते हैं तो यही दीजिये। युवक तो आप हैं ही, कुलीन भी मालूम होते हैं; किंतु आपके मुखपर यौवनकी आभा कहाँ है ? इस सत्यानाशी व्यसनने सब नष्ट कर डाला है। शरीरका स्वास्थ्य अमूल्य है, मनके स्वास्थ्यका महत्त्व इससे भी कहीं अधिक है, सिगरेट दोनोंको चौपट कर देती है। मानवसे दानव बना डालनेवाले व्यसनमें मनुष्य जितना आसक्त रहता है उतना ही आसक्त वह यदि व्यसनियोंके भी जीवनदाता प्रभुमें रह सके तो दानवसे देव बन जाता है।’

युवक ध्यानसे सुन रहा था, अतः स्वामीजीने प्रसन्नतापूर्वक अपना वक्तव्य चालू रखा –’हम अपने जीवनकी लम्बाईको यद्यपि नहीं बढ़ा सकते, तथापि उसकी चौड़ाई, गहराई एवं ऊँचाईको अवश्य बढ़ा सकते हैं और इसके लिये जीवनको दुर्व्यसनोंसे ऊपर उठाना आवश्यक है। निर्मल वस्तुके संसर्गसे हमें निर्मलताका अनुभव नहीं होता, परंतु मलिन वस्तुके तो स्पर्शमात्रसे ही मलिनताका चेप प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाया करता है। शुभ संस्कार सहसा नहीं पड़ते, अशुभ अभ्यास सहज ही हो जाता है। कपड़ेपर दाग लगनेमें देर नहींलगती, देर लगती है दागके छुड़ानेमें। उसके लिये खर्च तथा परिश्रम भी करना पड़ता है, इतनेपर भी सम्भव है, दाग सर्वथा साफ न हो, थोड़ा-बहुत धब्बा रह जाय । अपने जीवनकी भी यही दशा है। जीवनको कलङ्कित करनेवाले व्यसनके लग जानेकी आशङ्का पद-पदपर रहती है, अतः सदा सावधान रहना उचित है, असावधानीसे भी एक बार व्यसन लग गया तो फिर घोर परिश्रमके बिना उसका छूटना असम्भव है। दीर्घकालका व्यसन स्वभाव बन जाता है और स्वभाव (भला या बुरा, जैसा भी हो) सुदृढ़ हो जाता है। तात्पर्य कि व्यसनको शीघ्रातिशीघ्र छोड़नेके प्रयत्नमें तन-मनसे तत्पर हो जाना चाहिये। सुखकी आशा अथवा दुःखके डरसे हम समझमें न आनेवाली और विचार करनेपर असत्य प्रतीत होनेवाली मान्यताओंको तो जोरसे पकड़े रहते हैं और सत्यकोछूनेमें भी सकुचाते हैं। आप तो नि:स्पृह एवं निडर मालूम देते हैं, यही नहीं, सौम्य एवं सुज्ञ भी प्रतीत | होते हैं। मेरी बातें आपने ध्यानसे सुनी हैं, यदि हितकर जँची हों तो इनपर अभीसे अमल शुरू होना चाहिये और इस दुराग्रही दुर्व्यसनका त्याग करनेकी हिम्मत करनी चाहिये। बस, यही भिक्षा मैं आपसे चाहता हूँ। | परम दयानिधान परमात्मा आपको सद्बुद्धि दें, शक्ति दें, साहस दें।’

युवकका संस्कारी हृदय पुकार उठा, – ‘दूँगा, दूँगा, स्वामीजीको मनचाही भिक्षा अवश्य दूँगा।’ उसने सिगरेटका डिब्बा फेंक दिया और सबके सामने ही स्वामीजीके चरण पकड़कर प्रतिज्ञा की, ‘भगवन्! मर जाना कबूल, पर सिगरेट पीना हराम है।’ खानदानी, श्रद्धालु तथा युवा हृदय स्वामीके उपदेशामृतसे प्रभावित था !

एक बार कैलासाश्रम ऋषिकेशसे ब्रह्मलीन महात्मा स्वामीजी श्रीप्रकाशानन्दपुरीजी होशियारपुर से हरद्वार पधार रहे थे। रेलके अम्बाला छावनी स्टेशनपर खड़ी होते ही तीन-चार पहलवान सेवकों के साथ एक नवशिक्षित युवक धूम्रपान करता हुआ स्वामीजीवाले डिब्बे में चढ़ा। जिन नाक, आँख, मुखको प्रथम कभी सिगरेटके धुएँका परिचय नहीं था, उनको इससे बड़ा कष्ट हुआ। परंतु उस अल्हड़ युवकसे कुछ कहना तो दूर रहा, उसकी ओर झाँकनेकी श्री हिम्मत किसीकी न हो सकी यह करुण दृश्य स्वामीजीसे नहीं देखा जा सका। उन्होंने युवकसे कहा ‘आप नीचे प्लेटफॉर्मपर उतरकर धूम्रपान करें।’ युवक ‘क्यों? हम क्यों नीचे उतरें? हमारा सिगरेट पीना जो सहन न कर सकता हो, वही उतर जाय।’ स्वामीजी ‘आप देख रहे हैं कि आपके अतिरिक्त अन्य किसीको भी सहन नहीं हो रहा है, ऐसी दशामें सबके उतरनेकी अपेक्षा अकेले आपको ही यह कष्ट करना उचित है।’
युवक- ‘सिगरेट हमारी है, हम पी रहे हैं, इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है? अपनी चीजका उपयोग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं, हमें नीचे उतारनेका तुम्हें क्या अधिकार है? हाँ, तुमसे न सहा जाता हो तो लो हमसे सिगरेट लो और तुम भी पियो।’ स्वामीजी शान्त, सौम्य, परंतु प्रभावोत्पादक ढंगसे बोले-‘जो कुछ बिगड़ रहा है वह तो सबके सामने है, इस बीभत्स धूमसे अनभ्यस्त इन बच्चे एवं माताओंकी मुखमुद्रा तो देखिये। आप स्वतन्त्र हैं, ईश्वरके अनुग्रहसे पूर्ण स्वतन्त्र बने रहें; किंतु स्वच्छन्दी बनकर दूसरोंकी स्वतन्त्रताका विघात न करें हम आप सभी भारतीय हैं, इस नाते आपसे उपर्युक्त निवेदन करनेका हमें पूरा अधिकार है। आप हमें सिगरेट भेंट कर रहे हैं, यह आपकी उदारता है,आप और भी उदार बनें; किंतु उड़ाऊ (दूसरोंके मुखपर धुआँ उड़ानेवाले) मत बनें। सिगरेट आपकी है तो उसका धुआँ किसका है? वह भी आपका ही होना चाहिये। आप अपनी सिगरेट अपने ही मुखमें रखें और उसके धुएँको भी अपने ही मुखमें छिपाये रखें।’
युवकको कुछ प्रभावित हुआ-सा देख स्वामीजी और भी अधिक उत्साहसे उसे उपदेश देने लगे ‘मैं आपसे सिगरेटकी आशा नहीं रखता, प्रत्युत इस विनाशकारी व्यसनको सदाके लिये छोड़ देनेकी आशा अवश्य रखता हूँ, मुझे आप कुछ देना चाहते हैं तो यही दीजिये। युवक तो आप हैं ही, कुलीन भी मालूम होते हैं; किंतु आपके मुखपर यौवनकी आभा कहाँ है ? इस सत्यानाशी व्यसनने सब नष्ट कर डाला है। शरीरका स्वास्थ्य अमूल्य है, मनके स्वास्थ्यका महत्त्व इससे भी कहीं अधिक है, सिगरेट दोनोंको चौपट कर देती है। मानवसे दानव बना डालनेवाले व्यसनमें मनुष्य जितना आसक्त रहता है उतना ही आसक्त वह यदि व्यसनियोंके भी जीवनदाता प्रभुमें रह सके तो दानवसे देव बन जाता है।’
युवक ध्यानसे सुन रहा था, अतः स्वामीजीने प्रसन्नतापूर्वक अपना वक्तव्य चालू रखा -‘हम अपने जीवनकी लम्बाईको यद्यपि नहीं बढ़ा सकते, तथापि उसकी चौड़ाई, गहराई एवं ऊँचाईको अवश्य बढ़ा सकते हैं और इसके लिये जीवनको दुर्व्यसनोंसे ऊपर उठाना आवश्यक है। निर्मल वस्तुके संसर्गसे हमें निर्मलताका अनुभव नहीं होता, परंतु मलिन वस्तुके तो स्पर्शमात्रसे ही मलिनताका चेप प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाया करता है। शुभ संस्कार सहसा नहीं पड़ते, अशुभ अभ्यास सहज ही हो जाता है। कपड़ेपर दाग लगनेमें देर नहींलगती, देर लगती है दागके छुड़ानेमें। उसके लिये खर्च तथा परिश्रम भी करना पड़ता है, इतनेपर भी सम्भव है, दाग सर्वथा साफ न हो, थोड़ा-बहुत धब्बा रह जाय । अपने जीवनकी भी यही दशा है। जीवनको कलङ्कित करनेवाले व्यसनके लग जानेकी आशङ्का पद-पदपर रहती है, अतः सदा सावधान रहना उचित है, असावधानीसे भी एक बार व्यसन लग गया तो फिर घोर परिश्रमके बिना उसका छूटना असम्भव है। दीर्घकालका व्यसन स्वभाव बन जाता है और स्वभाव (भला या बुरा, जैसा भी हो) सुदृढ़ हो जाता है। तात्पर्य कि व्यसनको शीघ्रातिशीघ्र छोड़नेके प्रयत्नमें तन-मनसे तत्पर हो जाना चाहिये। सुखकी आशा अथवा दुःखके डरसे हम समझमें न आनेवाली और विचार करनेपर असत्य प्रतीत होनेवाली मान्यताओंको तो जोरसे पकड़े रहते हैं और सत्यकोछूनेमें भी सकुचाते हैं। आप तो नि:स्पृह एवं निडर मालूम देते हैं, यही नहीं, सौम्य एवं सुज्ञ भी प्रतीत | होते हैं। मेरी बातें आपने ध्यानसे सुनी हैं, यदि हितकर जँची हों तो इनपर अभीसे अमल शुरू होना चाहिये और इस दुराग्रही दुर्व्यसनका त्याग करनेकी हिम्मत करनी चाहिये। बस, यही भिक्षा मैं आपसे चाहता हूँ। | परम दयानिधान परमात्मा आपको सद्बुद्धि दें, शक्ति दें, साहस दें।’
युवकका संस्कारी हृदय पुकार उठा, – ‘दूँगा, दूँगा, स्वामीजीको मनचाही भिक्षा अवश्य दूँगा।’ उसने सिगरेटका डिब्बा फेंक दिया और सबके सामने ही स्वामीजीके चरण पकड़कर प्रतिज्ञा की, ‘भगवन्! मर जाना कबूल, पर सिगरेट पीना हराम है।’ खानदानी, श्रद्धालु तथा युवा हृदय स्वामीके उपदेशामृतसे प्रभावित था !

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