प्राचीन समयकी बात है। सिंहकेतु नामक एक पञ्चालदेशीय राजकुमार अपने सेवकोंको साथ लेकर एक दिन वनमें शिकार खेलने गया। उसके सेवकोंमेंसे एक शयरको शिकारको खोजमें इधर-उधर घूमते एक टूटा-फूटा शिवालय दीख पड़ा। उसके चबूतरेपर एक शिवलिङ्ग पड़ा था, जो टूटकर जलहरीसे सर्वथा अलग हो गया था। शबरने उसे मूर्तिमान् सौभाग्यकी तरह उठा लिया। वह राजकुमारके पास पहुंचा और विनयपूर्वक उसे शिवलिङ्ग दिखलाकर कहने लगा ‘प्रभो! देखिये यह कैसा सुन्दर शिवलिङ्ग है। आप यदि कृपापूर्वक मुझे पूजाकी विधि बता दें तो मैं निय इसकी पूजा किया करूँ।’ निषादके इस प्रकार पूछनेपर राजकुमारने प्रेमपूर्वक पूजाको विधि बतला दी। षोडशोपचार पूजनके अतिरिक्तउसने चिताभस्म चढ़ानेकी बात भी बतलायी। अब वह शबर प्रतिदिन स्नान कराकर चन्दन, अक्षत, वनके नये नये पत्र, पुष्प, फल, धूप, दीप, नृत्य, गीत, वाद्यके द्वारा भगवान् महेश्वरका पूजन करने लगा। वह प्रतिदिन चिताभस्म भी अवश्य भेंट करता। तत्पश्चात् वह स्वयं प्रसाद ग्रहण करता। इस प्रकार वह श्रद्धालु शबर पत्नीके साथ भक्तिपूर्वक भगवान् शंकरकी आराधना में तल्लीन हो गया।
एक दिन वह शबर पूजाके लिये बैठा तो देखता है कि पात्रमें चिताभस्म तनिक भी शेष नहीं है। उसने बड़े प्रयत्नसे इधर-उधर ढूँढ़ा, पर उसे कहीं भी चिताभस्म नहीं मिला । अन्तमें उसने स्थिति पत्नीसे व्यक्त की। साथ ही उसने यह भी कहा कि ‘यदि चिताभस्म नहीं मिलता तो पूजा बिना मैं अब क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकता।’स्त्रीने उसे चिन्तित देखकर कहा- ‘नाथ ! डरिये मत। एक उपाय है। यह घर तो पुराना हो ही गया है। मैं इसमें आग लगाकर उसीमें प्रवेश कर जाती हूँ । इससे आपकी पूजाके निमित्त पर्याप्त चिताभस्म तैयार हो जायगी।’ बहुत वाद-विवादके बाद शबर भी उसके प्रस्तावसे सहमत हो गया। शबरीने स्वामीकी आज्ञा पाकर स्नान किया और उस घरमें आग लगाकर अग्निकी तीन बार परिक्रमा की, पतिको नमस्कार किया और सदाशिव भगवान्का हृदयमें ध्यान करती हुई अग्निमें घुस गयी। वह क्षणभरमें जलकर भस्म हो गयी। फिर शबरने उस भस्मसे भगवान् भूतनाथकी पूजा की।
शबरको कोई विषाद तो था नहीं । स्वभाववशात् पूजाके बाद वह प्रसाद देनेके लिये अपनी स्त्रीको पुकारने लगा। स्मरण करते ही वह स्त्री तुरंत आकरखड़ी हो गयी। अब शबरको उसके जलनेकी बात | याद आयी । आश्चर्यचकित होकर उसने पूछा कि ‘तुम और यह मकान तो सब जल गये थे, फिर यह सब कैसे हुआ?’
शबरीने कहा—’आगमें मैं घुसी तो मुझे लगा कि जैसे मैं जलमें घुसी हूँ। आधे क्षणतक तो प्रगाढ़ निद्रा सी विदित हुई और अब जगी हूँ। जगनेपर देखती हूँ तो यह घर भी पूर्ववत् खड़ा है। अब प्रसादके लिये यहाँ आयी हूँ।’
निषाद- दम्पति इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि उनके सामने एक दिव्य विमान आ गया। उसपर भगवान्के चार गण थे। उन्होंने ज्यों ही उन्हें स्पर्श किया और विमानपर बैठाया, उनके शरीर दिव्य हो गये । वास्तवमें श्रद्धायुक्त भगवदाराधनाका ऐसा ही माहात्म्य है ।
– जा0 श0 (स्कन्द0 ब्राह्म0 ब्रह्मोत्तर0 अध्याय 17)
प्राचीन समयकी बात है। सिंहकेतु नामक एक पञ्चालदेशीय राजकुमार अपने सेवकोंको साथ लेकर एक दिन वनमें शिकार खेलने गया। उसके सेवकोंमेंसे एक शयरको शिकारको खोजमें इधर-उधर घूमते एक टूटा-फूटा शिवालय दीख पड़ा। उसके चबूतरेपर एक शिवलिङ्ग पड़ा था, जो टूटकर जलहरीसे सर्वथा अलग हो गया था। शबरने उसे मूर्तिमान् सौभाग्यकी तरह उठा लिया। वह राजकुमारके पास पहुंचा और विनयपूर्वक उसे शिवलिङ्ग दिखलाकर कहने लगा ‘प्रभो! देखिये यह कैसा सुन्दर शिवलिङ्ग है। आप यदि कृपापूर्वक मुझे पूजाकी विधि बता दें तो मैं निय इसकी पूजा किया करूँ।’ निषादके इस प्रकार पूछनेपर राजकुमारने प्रेमपूर्वक पूजाको विधि बतला दी। षोडशोपचार पूजनके अतिरिक्तउसने चिताभस्म चढ़ानेकी बात भी बतलायी। अब वह शबर प्रतिदिन स्नान कराकर चन्दन, अक्षत, वनके नये नये पत्र, पुष्प, फल, धूप, दीप, नृत्य, गीत, वाद्यके द्वारा भगवान् महेश्वरका पूजन करने लगा। वह प्रतिदिन चिताभस्म भी अवश्य भेंट करता। तत्पश्चात् वह स्वयं प्रसाद ग्रहण करता। इस प्रकार वह श्रद्धालु शबर पत्नीके साथ भक्तिपूर्वक भगवान् शंकरकी आराधना में तल्लीन हो गया।
एक दिन वह शबर पूजाके लिये बैठा तो देखता है कि पात्रमें चिताभस्म तनिक भी शेष नहीं है। उसने बड़े प्रयत्नसे इधर-उधर ढूँढ़ा, पर उसे कहीं भी चिताभस्म नहीं मिला । अन्तमें उसने स्थिति पत्नीसे व्यक्त की। साथ ही उसने यह भी कहा कि ‘यदि चिताभस्म नहीं मिलता तो पूजा बिना मैं अब क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकता।’स्त्रीने उसे चिन्तित देखकर कहा- ‘नाथ ! डरिये मत। एक उपाय है। यह घर तो पुराना हो ही गया है। मैं इसमें आग लगाकर उसीमें प्रवेश कर जाती हूँ । इससे आपकी पूजाके निमित्त पर्याप्त चिताभस्म तैयार हो जायगी।’ बहुत वाद-विवादके बाद शबर भी उसके प्रस्तावसे सहमत हो गया। शबरीने स्वामीकी आज्ञा पाकर स्नान किया और उस घरमें आग लगाकर अग्निकी तीन बार परिक्रमा की, पतिको नमस्कार किया और सदाशिव भगवान्का हृदयमें ध्यान करती हुई अग्निमें घुस गयी। वह क्षणभरमें जलकर भस्म हो गयी। फिर शबरने उस भस्मसे भगवान् भूतनाथकी पूजा की।
शबरको कोई विषाद तो था नहीं । स्वभाववशात् पूजाके बाद वह प्रसाद देनेके लिये अपनी स्त्रीको पुकारने लगा। स्मरण करते ही वह स्त्री तुरंत आकरखड़ी हो गयी। अब शबरको उसके जलनेकी बात | याद आयी । आश्चर्यचकित होकर उसने पूछा कि ‘तुम और यह मकान तो सब जल गये थे, फिर यह सब कैसे हुआ?’
शबरीने कहा—’आगमें मैं घुसी तो मुझे लगा कि जैसे मैं जलमें घुसी हूँ। आधे क्षणतक तो प्रगाढ़ निद्रा सी विदित हुई और अब जगी हूँ। जगनेपर देखती हूँ तो यह घर भी पूर्ववत् खड़ा है। अब प्रसादके लिये यहाँ आयी हूँ।’
निषाद- दम्पति इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि उनके सामने एक दिव्य विमान आ गया। उसपर भगवान्के चार गण थे। उन्होंने ज्यों ही उन्हें स्पर्श किया और विमानपर बैठाया, उनके शरीर दिव्य हो गये । वास्तवमें श्रद्धायुक्त भगवदाराधनाका ऐसा ही माहात्म्य है ।
– जा0 श0 (स्कन्द0 ब्राह्म0 ब्रह्मोत्तर0 अध्याय 17)