अयोध्या जी में एक उच्च कोटि के संत रहते थे, इन्हें रामायण का श्रवण करने का व्यसन था।
जहां भी कथा चलती वहाँ बड़े प्रेम से कथा सुनते, कभी किसी प्रेमी अथवा संत से कथा कहने की विनती करते।
एक दिन राम कथा सुनाने वाला कोई मिला नहीं। वही पास से एक पंडित जी रामायण की पोथी लेकर जा रहे थे।
पंडित जी ने संत को प्रणाम् किया और पूछा की महाराज ! क्या सेवा करे ?
संत ने कहा, पंडित जी, रामायण की कथा सुना दो परंतु हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रुपया नहीं है, हम तो फक्कड़ साधु है।
माला, लंगोटी और कमंडल के अलावा कुछ है नहीं और कथा भी एकांत में सुनने का मन है हमारा।
पंडित जी ने कहा, ठीक है महाराज, संत और कथा सुनाने वाले पंडित जी दोनों सरयू जी के किनारे कुंजो में जा बैठे।
पंडित जी और संत रोज सही समय पर आकर वहाँ विराजते और कथा चलती रहती।
संत बड़े प्रेम से कथा श्रवण करते थे और भाव विभोर होकर कभी नृत्य करने लगते तो कभी रोने लगते।
जब कथा समाप्त हुई तब संत ने पंडित जी से कहा, पंडित जी.. आपने बहुत अच्छी कथा सुनायी।
हम बहुत प्रसन्न है, हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रूपया तो नहीं है परंतु आज आपको जो चाहिए वह आप मांगो।
संत सिद्ध कोटि के प्रेमी थे, श्री सीताराम जी उनसे संवाद भी किया करते थे।
पंडित जी बोले, महाराज हम बहुत गरीब है, हमें बहुत सारा धन मिल जाये।
संत ने प्रार्थना की कि प्रभु इसे कृपा कर के धन दे दीजिये। भगवान् ने मुस्कुरा दिया..
संत बोले.. तथास्तु.. फिर संत ने पूछा, मांगो और क्या चाहते हो ?
पंडित जी बोले, हमारे घर पुत्र का जन्म हो जाए।
संत ने पुनः प्रार्थना की और श्रीराम जी मुस्कुरा दिए।
संत बोले, तथास्तु, तुम्हे बहुत अच्छा ज्ञानी पुत्र होगा। फिर संत बोले और कुछ माँगना है तो मांग लो।
पंडित जी बोले, श्री सीताराम जी की अखंड भक्ति, प्रेम हमें प्राप्त हो।
संत बोले, नहीं ! यह नहीं मिलेगा।
पंडित जी आश्चर्य में पड़ गए की महात्मा क्या बोल गए। पंडित जी ने पूछा, संत भगवान् ! यह बात समझ नहीं आयी।
संत बोले, तुम्हारे मन में प्रथम प्राथमिकता धन, सम्मान, घर की है। दूसरी प्राथमिकता पुत्र की है और अंतिम प्राथमिकता भगवान् की भक्ति की है।
जब तक हम संसार को, परिवार, धन, पुत्र आदि को प्राथमिकता देते है तब तक भक्ति नहीं मिलती।
भगवान् ने जब केवट से पूछा की तुम्हे क्या चाहिए ? केवट ने कुछ नहीं माँगा।
प्रभु ने पूछा, तुम्हे बहुत सा धन देते है, केवट बोला नहीं..
प्रभु ने कहा, ध्रुव पद ले लो,
केवट बोला, नहीं.. इंद्र पद, पृथ्वी का राजा, और मोक्ष तक देने की बात की परंतु केवट ने कुछ नहीं लिया तब जाकर प्रभु ने उसे भक्ति प्रदान की।
हनुमान जी को जानकी माता ने अनेकों वरदान दिए, बल, बुद्धि, सिद्धि, अमरत्व आदि परंतु उन्हे प्रसन्नता नहीं हुई।
अंत में जानकी जी ने श्री राम जी का प्रेम, अखंड भक्ति का वर दिया।
प्रह्लाद जी ने भी कहा की हमारे मन में मांगने की कभी कोई इच्छा ही न उत्पन्न हो तब भगवान् ने अखंड भक्ति प्रदान की।
जय श्री सीताराम