लाला बलदेवसिंहजी देहरादूनके रईस थे। वे प्राणिमात्रमें भगवान्की ज्योतिका निरन्तर अनुभव करते थे। प्रेम-तत्त्वका उच्चकोटिका अनुभव उन्हें प्राप्त था। प्राणिमात्रसे उनका प्रेमका बर्ताव प्रत्यक्ष था। कोई भी प्राणी कितना ही उनके विरुद्ध अपना भाव या आचरण रखता हो, उनके प्रेममें किसी प्रकारकी कमी नहीं होती, बल्कि विरोधियोंके प्रति तो उनका विशेष प्रेम दिखायी देता था। उनके जीवनके कई अनुभव और आदर्श विलक्षण घटनाएँ मेरे देखने सुननेमें आयी हैं। उनमेंसे दो घटनाएँ संक्षेपमें लिख रहा है।
डाकूके रूपमें परम पिता एक बार उन्हें कुछ डाकुओंका एक पत्र मिला।जिसमें लिखा था ‘अमुक तारीखको हमलोग आपके | यहाँ डाका डालने आयेंगे।’ इसको पढ़कर उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके चेहरेसे और बातचीतसे यही प्रकट होता था कि मानो साक्षात् भगवान् ही या उनके अपने पूर्वजोंके आत्मा ही डाकुओंके रूपमें पधारेंगे। इसलिये उस दिन उनके स्वागतके लिये लालाजीने हलवा, पूरी आदि बहुत-सी चीजें बनवायीं और बड़े उत्साह तथा आनन्दके साथ उनकी प्रतीक्षा की गयी। लालाजीके भतीजे श्रीअनिरुद्धकुमारके नाम भी ऐसा ही पत्र आया था। वे पत्र पढ़कर बहुत घबरा गये। उन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट तथा जिलाधीशको सूचना दी और अपनी रक्षाके लिये बड़ी तैयारी की। वे जब बलदेवसिंहजीकेपास इस पत्रकी सूचना देने आये, उस समय में वहाँ मौजूद था, मैंने देखा – उनके चेहरेपर बड़ी घबराहट थी। लालाजीने उनको बहुत समझाया और कहा कि ‘भैया! मेरे पास भी ऐसी चिट्ठी आयी है। पर मुझे तो इस बातसे बहुत हर्ष हो रहा है। पता नहीं, भगवान् ही उनके रूपमें पधार रहे हैं या हमारे तुम्हारे बाप-दादोंकी आत्मा उन्होंके रूपमें आ रही है। इसलिये मैं तो उनके स्वागतके लिये आनन्द और उत्साहके साथ तैयारी कर रहा हूँ, तुमको भी ऐसा ही करना चाहिये और बहुत आनन्द तथा हर्ष मनाना चाहिये। यह तो परम पिताकी बहुत बड़ी कृपा है। यदि उन लोगोंके कामकी चीज होगी और वे ले जायेंगे तो बहुत ही आनन्दकी बात होगी।’ लाला बलदेवसिंजा अनिरुद्धकुमारजी को अच्छी नहीं लगी थीं। वे मनमें कुछ नाराज से भी हुए थे; परंतु जिस तारीखको डाकुओंने आनेकी सूचना दी थी, उस तारीखको कोई आया नहीं। लालाजीको इसका विचार हुआ और डाकुओंके स्वागतके लिये बने हुए हलवा-पूरी आदिको हमलोगोंने खाया। प्रजाके रूपमें परम पिता
इनके भतीजे श्रीअनिरुद्धकुमारजी जमींदार थे। एक बार मालगुजारीका रुपया वसूल न होनेके कारण उन्होंने रैयतोंको धमकाया और डाँटा। कुछ कहा-सुनी हो गयी। इसपर प्रजाके लोगोंने दुःखी होकर उनके विरुद्ध फौजदारी कोर्टमें मामला कर दिया। मामला सच्चा था और उन लोगोंके पास काफी सबूत थे, अतएव मामला कुछ संगीन हो गया। अनिरुद्धकुमारजीने अपने चचा लाला बलदेवसिंहजी से सलाह पूछी। दोनों ओरके वकील बैरिस्टर लोग मामलेको अपने-अपने पक्षपर खूब सजाकर लड़ रहे थे। लालाजीने अनिरुद्धकुमारजीको समझाया कि ‘जिनको तुमने रैयत समझा और जिनके साथ ऐसा बर्ताव किया तो साक्षात् भगवान् के ही रूप हैं, सबमें परम पिताजीकी ज्योति ही प्रकाशित हो रही है। अथवा पता नहीं, उनके भीतर हमलोगोंके बाप-दादोंकी आत्माही आयी हुई है। तुमको उनसे माफी माँग लेनी चाहिये तथा उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिये। परंतु अनिरुद्धकुमारजीको यह बात पसंद नहीं आयी। इस स्थितिमें मामलेकी तारीखके दिन स्वयं लाला बलदेवसिंह कोर्टमें गये। इनको देखकर न्यायाधीशने इनका सम्मान किया और अपने समीप कुर्सीपर आदरसे बैठाया। दोनों ओरसे वकील-बैरिस्टर पैरवी कर रहे थे। इस बीच लालाजीने हाकिमसे कहा- आपको इसमें व्यर्थ तकलीफ हो रही है। मैं जानता हूँ अज्ञानताके कारण अनिरुद्ध भूल हुई है। इन लोगोंको अनिरुद्धकुमारने प्रजा सम और अपना लगान वसूल करनेके लिये ऐसा बर्ताव किया। यह बड़े खेदकी बात है। जिनको ये रैयत समझते हैं, उनमें परम पिता परमात्माकी ही प्रत्यक्ष ज्योति है और न मालूम उनके भीतर हमारे ही बाप दादोंकी आत्मा इस रूपमें आयी हुई है। इसलिये मेरी यह इच्छा है कि अनिरुद्धकुमार तुरंत प्रजासे माफी माँग लें और प्रजा इन्हें ऐसा उचित दण्ड दे, जिससे प्रजाकी आत्माको संतोष हो।’
यों कहकर वे उठकर नीचे आ गये और अनिरुद्ध कुमारका हाथ पकड़कर प्रजाके ले गये और बोले- हाथ जोड़कर इनसे माफी माँ इतना सुनते ही प्रजाके सब लोग विह्वल हो गये और लालाजीके तथा अनिरुद्धकुमारजीके चरणोंपर गिरने लगे। लालाजीके इस बर्तावसे वे लोग आनन्द-गद हो गये। मामला उसी समय कोर्टसे उठा लिया गया। सालाजीने प्रजाके सब लोगोंको अनिरुद्धकुमारजीसे गले लगाया। उनको परस्पर हृदयसे हृदय लगाकर मिलाया – और प्रजाके लोगोंके लिये अपने यहाँ प्रीतिभोज कराया। सब और प्रसन्नता छा गयी। सारा वैमनस्य क्षणोंमें दूर हो गया और दोनों पक्ष अपनेको दोषी बताकर क्षमाप्रार्थी हो गये। कचहरी तथा सारे शहरमें यह बात फैल गयी। चारों ओर सद्भावनाका प्रसार हो गया। लोगोंको आर्यमिश्रित अभूतपूर्व आनन्द मिला।
लाला बलदेवसिंहजी देहरादूनके रईस थे। वे प्राणिमात्रमें भगवान्की ज्योतिका निरन्तर अनुभव करते थे। प्रेम-तत्त्वका उच्चकोटिका अनुभव उन्हें प्राप्त था। प्राणिमात्रसे उनका प्रेमका बर्ताव प्रत्यक्ष था। कोई भी प्राणी कितना ही उनके विरुद्ध अपना भाव या आचरण रखता हो, उनके प्रेममें किसी प्रकारकी कमी नहीं होती, बल्कि विरोधियोंके प्रति तो उनका विशेष प्रेम दिखायी देता था। उनके जीवनके कई अनुभव और आदर्श विलक्षण घटनाएँ मेरे देखने सुननेमें आयी हैं। उनमेंसे दो घटनाएँ संक्षेपमें लिख रहा है।
डाकूके रूपमें परम पिता एक बार उन्हें कुछ डाकुओंका एक पत्र मिला।जिसमें लिखा था ‘अमुक तारीखको हमलोग आपके | यहाँ डाका डालने आयेंगे।’ इसको पढ़कर उनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उनके चेहरेसे और बातचीतसे यही प्रकट होता था कि मानो साक्षात् भगवान् ही या उनके अपने पूर्वजोंके आत्मा ही डाकुओंके रूपमें पधारेंगे। इसलिये उस दिन उनके स्वागतके लिये लालाजीने हलवा, पूरी आदि बहुत-सी चीजें बनवायीं और बड़े उत्साह तथा आनन्दके साथ उनकी प्रतीक्षा की गयी। लालाजीके भतीजे श्रीअनिरुद्धकुमारके नाम भी ऐसा ही पत्र आया था। वे पत्र पढ़कर बहुत घबरा गये। उन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट तथा जिलाधीशको सूचना दी और अपनी रक्षाके लिये बड़ी तैयारी की। वे जब बलदेवसिंहजीकेपास इस पत्रकी सूचना देने आये, उस समय में वहाँ मौजूद था, मैंने देखा – उनके चेहरेपर बड़ी घबराहट थी। लालाजीने उनको बहुत समझाया और कहा कि ‘भैया! मेरे पास भी ऐसी चिट्ठी आयी है। पर मुझे तो इस बातसे बहुत हर्ष हो रहा है। पता नहीं, भगवान् ही उनके रूपमें पधार रहे हैं या हमारे तुम्हारे बाप-दादोंकी आत्मा उन्होंके रूपमें आ रही है। इसलिये मैं तो उनके स्वागतके लिये आनन्द और उत्साहके साथ तैयारी कर रहा हूँ, तुमको भी ऐसा ही करना चाहिये और बहुत आनन्द तथा हर्ष मनाना चाहिये। यह तो परम पिताकी बहुत बड़ी कृपा है। यदि उन लोगोंके कामकी चीज होगी और वे ले जायेंगे तो बहुत ही आनन्दकी बात होगी।’ लाला बलदेवसिंजा अनिरुद्धकुमारजी को अच्छी नहीं लगी थीं। वे मनमें कुछ नाराज से भी हुए थे; परंतु जिस तारीखको डाकुओंने आनेकी सूचना दी थी, उस तारीखको कोई आया नहीं। लालाजीको इसका विचार हुआ और डाकुओंके स्वागतके लिये बने हुए हलवा-पूरी आदिको हमलोगोंने खाया। प्रजाके रूपमें परम पिता
इनके भतीजे श्रीअनिरुद्धकुमारजी जमींदार थे। एक बार मालगुजारीका रुपया वसूल न होनेके कारण उन्होंने रैयतोंको धमकाया और डाँटा। कुछ कहा-सुनी हो गयी। इसपर प्रजाके लोगोंने दुःखी होकर उनके विरुद्ध फौजदारी कोर्टमें मामला कर दिया। मामला सच्चा था और उन लोगोंके पास काफी सबूत थे, अतएव मामला कुछ संगीन हो गया। अनिरुद्धकुमारजीने अपने चचा लाला बलदेवसिंहजी से सलाह पूछी। दोनों ओरके वकील बैरिस्टर लोग मामलेको अपने-अपने पक्षपर खूब सजाकर लड़ रहे थे। लालाजीने अनिरुद्धकुमारजीको समझाया कि ‘जिनको तुमने रैयत समझा और जिनके साथ ऐसा बर्ताव किया तो साक्षात् भगवान् के ही रूप हैं, सबमें परम पिताजीकी ज्योति ही प्रकाशित हो रही है। अथवा पता नहीं, उनके भीतर हमलोगोंके बाप-दादोंकी आत्माही आयी हुई है। तुमको उनसे माफी माँग लेनी चाहिये तथा उनका सत्कार-सम्मान करना चाहिये। परंतु अनिरुद्धकुमारजीको यह बात पसंद नहीं आयी। इस स्थितिमें मामलेकी तारीखके दिन स्वयं लाला बलदेवसिंह कोर्टमें गये। इनको देखकर न्यायाधीशने इनका सम्मान किया और अपने समीप कुर्सीपर आदरसे बैठाया। दोनों ओरसे वकील-बैरिस्टर पैरवी कर रहे थे। इस बीच लालाजीने हाकिमसे कहा- आपको इसमें व्यर्थ तकलीफ हो रही है। मैं जानता हूँ अज्ञानताके कारण अनिरुद्ध भूल हुई है। इन लोगोंको अनिरुद्धकुमारने प्रजा सम और अपना लगान वसूल करनेके लिये ऐसा बर्ताव किया। यह बड़े खेदकी बात है। जिनको ये रैयत समझते हैं, उनमें परम पिता परमात्माकी ही प्रत्यक्ष ज्योति है और न मालूम उनके भीतर हमारे ही बाप दादोंकी आत्मा इस रूपमें आयी हुई है। इसलिये मेरी यह इच्छा है कि अनिरुद्धकुमार तुरंत प्रजासे माफी माँग लें और प्रजा इन्हें ऐसा उचित दण्ड दे, जिससे प्रजाकी आत्माको संतोष हो।’
यों कहकर वे उठकर नीचे आ गये और अनिरुद्ध कुमारका हाथ पकड़कर प्रजाके ले गये और बोले- हाथ जोड़कर इनसे माफी माँ इतना सुनते ही प्रजाके सब लोग विह्वल हो गये और लालाजीके तथा अनिरुद्धकुमारजीके चरणोंपर गिरने लगे। लालाजीके इस बर्तावसे वे लोग आनन्द-गद हो गये। मामला उसी समय कोर्टसे उठा लिया गया। सालाजीने प्रजाके सब लोगोंको अनिरुद्धकुमारजीसे गले लगाया। उनको परस्पर हृदयसे हृदय लगाकर मिलाया – और प्रजाके लोगोंके लिये अपने यहाँ प्रीतिभोज कराया। सब और प्रसन्नता छा गयी। सारा वैमनस्य क्षणोंमें दूर हो गया और दोनों पक्ष अपनेको दोषी बताकर क्षमाप्रार्थी हो गये। कचहरी तथा सारे शहरमें यह बात फैल गयी। चारों ओर सद्भावनाका प्रसार हो गया। लोगोंको आर्यमिश्रित अभूतपूर्व आनन्द मिला।