पण्डित श्रीरामजी महाराज संस्कृतके महान् धुरन्धर विद्वान् थे संस्कृत आपकी मातृभाषा थी। आपका सारा परिवार संस्कृतमें ही बातचीत करता था आपके यहाँ सैकड़ों पीढ़ियोंसे इसी प्रकार संस्कृतमें ही बातचीत करनेकी परम्परा चली आयी थी आपके पूर्वजोंकी यह प्रतिज्ञा थी कि हम न तो संस्कृतको छोड़कर एक शब्द दूसरी भाषाका बोलेंगे और न सनातनधर्मको छोड़कर किसी भी मत-मतान्तरके चक्करगें फँसेंगे मुहीमुद्दी आटा माँगकर पेट भरना पड़े तो भी चिन्ता नहीं, भिखारी बनकर भी देववाणी संस्कृतकी, वेद-शास्त्रोंकी और सनातन धर्मकी रक्षा करेंगे। इस प्रतिज्ञाका पालनकरते हुए पं0 श्रीरामजी महाराज अपनी धर्मपत्नी तथा बाल-बच्चोंको लेकर श्रीगङ्गाजीके किनारे-किनारे विचरा करते थे। पाँच-सात मील चलकर सारा परिवार गाँवसे बाहर किसी देवमन्दिरमें या वृक्षके नीचे ठहर जाता ये गाँव जाकर आटा माँग लेते और रूखा-सूखा जैसा होता, अपने हाथोंसे बनाकर भोजन पा लेते। अगले दिन फिर श्रीगङ्गाकिनारे आगे बढ़ जाते। अवकाशके समय बच्चोंको संस्कृतके ग्रन्थ पढ़ाते जाते तथा स्तोत्र कण्ठ कराते ।
एक बार श्रीरामजी महाराज घूमते-घामते एक राजाकी रियासत में पहुँच गये और गाँवसे बाहर एकवृक्षके नीचे ठहर गये। दोपहरको शहरमें गये और मुट्ठी मुट्ठी आटा घरोंसे माँग लाये। उसीसे भोजन बनने। लगा। आपकी धर्मपत्नी भी पतिव्रता थीं और बच्चे। भी ऋषि पुत्र थे। अकस्मात् राजपुरोहित उधर आ निकले। उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मणपरिवार वृक्षके नीचे ठहरा हुआ है। माथेपर तिलक, गलेमें यज्ञोपवीत, सिरपर लम्बी चोटी, ऋषि-मण्डली -सी प्रतीत हो रही है। पास आकर देखा तो रोटी बनायी जा रही है। छोटे बच्चे तथा ब्राह्मणी सभी संस्कृतमें बोल रहे हैं। हिंदीका एक अक्षर न तो समझते हैं न बोलते हैं। राजपुरोहितको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजपुरोहितजीने पं0 श्रीरामजी महाराजसे संस्कृतमें बातें कीं। उनको यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि आजसे नहीं, सैकड़ों वर्षोंसे इनके पूर्वज संस्कृतमें बोलते चले आ रहे हैं और संस्कृतकी, धर्मकी तथा वेद-शास्त्रोंकी रक्षाके लिये ही भिखारी बने मारे-मारे डोल रहे हैं। राजपुरोहितोंने आकर सारा वृत्तान्त राजा साहबको सुनाया तो राजा साहब भी सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पुरोहितोंसे कहा कि ‘ऐसे ऋषि परिवारको महलोंमें बुलाया जाय और मुझे परिवारसहित उनके दर्शन-पूजन करनेका सौभाग्य प्राप्त कराया जाय।’
राजा साहबको साथ लेकर राजपुरोहित उनके पास आये और उन्होंने राजमहलमें पधारनेके लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना की। पण्डितजीने कहा कि ‘हमें राजाओंके महलोंमें जाकर क्या करना है। हम तो श्रीगङ्गाकिनारे विचरनेवाले भिक्षुक ब्राह्मण हैं।’ राजा साहबके बहुत प्रार्थना करनेपर आपने अगले दिन सपरिवार राजमहलमें जाना स्वीकार कर लिया। इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने स्वागतकी खूब तैयारी की। अगले दिन जब यह ऋषि-परिवार आपके यहाँ पहुँचा तब वहाँ हजारों स्त्री-पुरुषोंका जमघट हो गया। बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ श्रीरामजी महाराज, आपकी धर्मपत्नी और बच्चोंको लाया गया और सुवर्णके सिंहासनोंपर बैठाया गया। राजा साहबने स्वयंअपनी रानीसहित सोनेके पात्रोंमें ब्राह्मणदेवता, ब्राह्मणी तथा बच्चोंके चरण धोकर पूजन किया, आरती उतारी और चाँदीके थालोंमें सोनेकी अशर्फियाँ और हजारों रुपयोंके बढ़िया-बढ़िया दुशाले लाकर सामने रख दिये। सबने यह देखा कि उस ब्राह्मण परिवारने उन अशर्फियों और दुशालोंकी ओर ताकातक नहीं जब स्वयं राजा साहबने भेंट स्वीकार करनेके लिये करबद्ध प्रार्थना की तब पण्डितजीने धर्मपत्नीकी ओर देखकर पूछा कि ‘क्या आजके लिये आटा है ?’ ब्राह्मणीने ‘कहा- ‘नहीं तो’ आपने राजा साहबसे कहा कि ‘बस आजके लिये आटा चाहिये। वे अशर्फियोंके थाल और दुशाले मुझे नहीं चाहिये।’
राजा साहब – महाराज! मैं क्षत्रिय हूँ, दे चुका, स्वीकार कीजिये।
पण्डितजी – मैं ले चुका, आप वापस ले जाइये।
राजा साहब-क्या दिया दान वापस लेना उचित है ?
पण्डितजी त्यागी हुई वस्तुका क्या फिर संग्रह करना उचित है ?
राजा साहब – महाराज! मैं अब क्या करूँ?
पण्डितजी मैं भी लाचार हूँ।
राजा साहब – यह आप ले ही लीजिये।
पण्डितजी – राजा साहब। हम ब्राह्मणोंका धन तो तप है। इसीमें हमारी शोभा है, वह हमारे पास है। आप क्षत्रिय हैं, हमारे तपकी रक्षा कीजिये।
राजा साहब- क्या यह उचित होगा कि एक क्षत्रिय दिया हुआ दान वापस ले ले। क्या इससे सनातनधर्मको क्षति नहीं पहुँचेगी ?
पण्डितजी- अच्छा इसे हमने ले लिया, अब इसे हमारी ओरसे अपने राजपुरोहितको दे दीजिये हमारे और आपके दोनोंके धर्मकी रक्षा हो गयी।
सबने देखा कि ब्राह्मण परिवार एक सेर आटा लेकर और अब सोनेकी अशर्फियोंसे भरे चाँदी के थाल, दुशालोंको ठुकराकर जंगलमें चले जा रहे हैं और फिर वेदपाठ करनेमें संलग्न हैं।
पण्डित श्रीरामजी महाराज संस्कृतके महान् धुरन्धर विद्वान् थे संस्कृत आपकी मातृभाषा थी। आपका सारा परिवार संस्कृतमें ही बातचीत करता था आपके यहाँ सैकड़ों पीढ़ियोंसे इसी प्रकार संस्कृतमें ही बातचीत करनेकी परम्परा चली आयी थी आपके पूर्वजोंकी यह प्रतिज्ञा थी कि हम न तो संस्कृतको छोड़कर एक शब्द दूसरी भाषाका बोलेंगे और न सनातनधर्मको छोड़कर किसी भी मत-मतान्तरके चक्करगें फँसेंगे मुहीमुद्दी आटा माँगकर पेट भरना पड़े तो भी चिन्ता नहीं, भिखारी बनकर भी देववाणी संस्कृतकी, वेद-शास्त्रोंकी और सनातन धर्मकी रक्षा करेंगे। इस प्रतिज्ञाका पालनकरते हुए पं0 श्रीरामजी महाराज अपनी धर्मपत्नी तथा बाल-बच्चोंको लेकर श्रीगङ्गाजीके किनारे-किनारे विचरा करते थे। पाँच-सात मील चलकर सारा परिवार गाँवसे बाहर किसी देवमन्दिरमें या वृक्षके नीचे ठहर जाता ये गाँव जाकर आटा माँग लेते और रूखा-सूखा जैसा होता, अपने हाथोंसे बनाकर भोजन पा लेते। अगले दिन फिर श्रीगङ्गाकिनारे आगे बढ़ जाते। अवकाशके समय बच्चोंको संस्कृतके ग्रन्थ पढ़ाते जाते तथा स्तोत्र कण्ठ कराते ।
एक बार श्रीरामजी महाराज घूमते-घामते एक राजाकी रियासत में पहुँच गये और गाँवसे बाहर एकवृक्षके नीचे ठहर गये। दोपहरको शहरमें गये और मुट्ठी मुट्ठी आटा घरोंसे माँग लाये। उसीसे भोजन बनने। लगा। आपकी धर्मपत्नी भी पतिव्रता थीं और बच्चे। भी ऋषि पुत्र थे। अकस्मात् राजपुरोहित उधर आ निकले। उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मणपरिवार वृक्षके नीचे ठहरा हुआ है। माथेपर तिलक, गलेमें यज्ञोपवीत, सिरपर लम्बी चोटी, ऋषि-मण्डली -सी प्रतीत हो रही है। पास आकर देखा तो रोटी बनायी जा रही है। छोटे बच्चे तथा ब्राह्मणी सभी संस्कृतमें बोल रहे हैं। हिंदीका एक अक्षर न तो समझते हैं न बोलते हैं। राजपुरोहितको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। राजपुरोहितजीने पं0 श्रीरामजी महाराजसे संस्कृतमें बातें कीं। उनको यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि आजसे नहीं, सैकड़ों वर्षोंसे इनके पूर्वज संस्कृतमें बोलते चले आ रहे हैं और संस्कृतकी, धर्मकी तथा वेद-शास्त्रोंकी रक्षाके लिये ही भिखारी बने मारे-मारे डोल रहे हैं। राजपुरोहितोंने आकर सारा वृत्तान्त राजा साहबको सुनाया तो राजा साहब भी सुनकर चकित हो गये। उन्होंने पुरोहितोंसे कहा कि ‘ऐसे ऋषि परिवारको महलोंमें बुलाया जाय और मुझे परिवारसहित उनके दर्शन-पूजन करनेका सौभाग्य प्राप्त कराया जाय।’
राजा साहबको साथ लेकर राजपुरोहित उनके पास आये और उन्होंने राजमहलमें पधारनेके लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना की। पण्डितजीने कहा कि ‘हमें राजाओंके महलोंमें जाकर क्या करना है। हम तो श्रीगङ्गाकिनारे विचरनेवाले भिक्षुक ब्राह्मण हैं।’ राजा साहबके बहुत प्रार्थना करनेपर आपने अगले दिन सपरिवार राजमहलमें जाना स्वीकार कर लिया। इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने स्वागतकी खूब तैयारी की। अगले दिन जब यह ऋषि-परिवार आपके यहाँ पहुँचा तब वहाँ हजारों स्त्री-पुरुषोंका जमघट हो गया। बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ श्रीरामजी महाराज, आपकी धर्मपत्नी और बच्चोंको लाया गया और सुवर्णके सिंहासनोंपर बैठाया गया। राजा साहबने स्वयंअपनी रानीसहित सोनेके पात्रोंमें ब्राह्मणदेवता, ब्राह्मणी तथा बच्चोंके चरण धोकर पूजन किया, आरती उतारी और चाँदीके थालोंमें सोनेकी अशर्फियाँ और हजारों रुपयोंके बढ़िया-बढ़िया दुशाले लाकर सामने रख दिये। सबने यह देखा कि उस ब्राह्मण परिवारने उन अशर्फियों और दुशालोंकी ओर ताकातक नहीं जब स्वयं राजा साहबने भेंट स्वीकार करनेके लिये करबद्ध प्रार्थना की तब पण्डितजीने धर्मपत्नीकी ओर देखकर पूछा कि ‘क्या आजके लिये आटा है ?’ ब्राह्मणीने ‘कहा- ‘नहीं तो’ आपने राजा साहबसे कहा कि ‘बस आजके लिये आटा चाहिये। वे अशर्फियोंके थाल और दुशाले मुझे नहीं चाहिये।’
राजा साहब – महाराज! मैं क्षत्रिय हूँ, दे चुका, स्वीकार कीजिये।
पण्डितजी – मैं ले चुका, आप वापस ले जाइये।
राजा साहब-क्या दिया दान वापस लेना उचित है ?
पण्डितजी त्यागी हुई वस्तुका क्या फिर संग्रह करना उचित है ?
राजा साहब – महाराज! मैं अब क्या करूँ?
पण्डितजी मैं भी लाचार हूँ।
राजा साहब – यह आप ले ही लीजिये।
पण्डितजी – राजा साहब। हम ब्राह्मणोंका धन तो तप है। इसीमें हमारी शोभा है, वह हमारे पास है। आप क्षत्रिय हैं, हमारे तपकी रक्षा कीजिये।
राजा साहब- क्या यह उचित होगा कि एक क्षत्रिय दिया हुआ दान वापस ले ले। क्या इससे सनातनधर्मको क्षति नहीं पहुँचेगी ?
पण्डितजी- अच्छा इसे हमने ले लिया, अब इसे हमारी ओरसे अपने राजपुरोहितको दे दीजिये हमारे और आपके दोनोंके धर्मकी रक्षा हो गयी।
सबने देखा कि ब्राह्मण परिवार एक सेर आटा लेकर और अब सोनेकी अशर्फियोंसे भरे चाँदी के थाल, दुशालोंको ठुकराकर जंगलमें चले जा रहे हैं और फिर वेदपाठ करनेमें संलग्न हैं।