जाम्बवान हुंकार करके, गर्जना करके, उछल-उछलकर घूँसे मार रहे थे। श्रीकृष्ण स्थिर खड़े थे। उनका दक्षिण कर केवल आघात कर रहा था किन्तु उनके श्रीमुख पर रोष- श्रम की कोई रेखा नहीं थी।
जाम्बवान को आश्चर्य था- कौन है यह? लेकिन उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था। उनके शरीर पर पड़ने वाली प्रत्येक मुष्टि का बहुत कठिन, बहुत पीड़ादायक थी। लगता था कि मांस, स्नायु और अस्थि तक कुचल उठी हो। एक क्षण का विराम किये बिना पूरे अट्ठाइस दिन-रात यह मुष्टि का युद्ध चलता रहा। जाम्बवान शिथिल पड़ने लगे। उनका उछलना और गर्जना करना बन्द हो गया। उनकी गुर्राहट घट गयी। उनको लगा कि शरीर का अंग-अंग, एक-एक पेशी, एक-एक स्नायु-बंधन टूट रहा है। पूरा शरीर भारी मुष्टि-प्रहार से कुचला जा चुका है। अस्थियाँ तक आहत हो गयी हैं। अब और नहीं- अब और आघात सहन नहीं किया जा सकता। अब मूर्छा आयी- अब नेत्रों के आगे चिनगारियाँ उड़ने लगीं। पूरी शक्ति एकत्र करके दोनों हाथों की मुट्ठियां बाँधकर उछलकर श्रीकृष्णचन्द्र के वक्षस्थल पर आघात किया जाम्बवान ने और चीत्कार करके चरणों पर गिर पड़े।
आघात तो आवेश में हो गया किन्तु आघात के साथ वक्षस्थल पर दृष्टि चली गयी। ‘यह श्रीवत्सांकित, भृगुलताभूषित वक्ष- जाम्बवन्त के लिये यह वक्षस्थल भी क्या अपरिचित है। वे सीधे गिरे चरणों पर- मेरे स्वामी क्षमा ……..’
अपने आराध्य से ही युद्ध कर रहे थे वे। दूसरा कोई भला उनके प्रहार को सहन करने में समर्थ कहाँ था किन्तु आराध्य के साथ ही यह धृष्टता।
जाम्बवन्त को पश्चात्ताप करने के लिये दो क्षण भी नहीं मिले। उनके सदा-सदा के परिचित अमृतस्यन्दीकर उसी स्नेह, उसी वात्सल्य से उनके शरीर पर मस्तक से कटि तक घूम रहे थे। पीड़ा-व्यथा सब जैसी कभी थी ही नहीं। शरीर में नवीन जीवन, बल, उत्साह परिपूर्ण हो रहा था- अमृत-संचार हो रहा था। वे दयाधाम अपने स्नेहासिक्त कण्ठ से कह रहे थे- ‘उठो रीछपति मैं सन्तुष्ट हुआ। प्रसन्न हूँ मैं। उठो तो सही।’
जाम्बवान उन चरणों को छोड़कर उठना ही नहीं चाहते थे किन्तु झुककर विशाल बाहु में भरकर प्रभु ने सदा की भाँति उठाकर वक्ष से लगा लिया। ‘प्रभु पधारे’ जाम्बवान गद्गद कंठ बोल नहीं पा रहे थे।
‘मैं तो इस मणि की शोध में निकला था। इसी के लिये यहाँ आ गया’ श्रीकृष्णचन्द्र हँसे- ‘इसे लेकर मुझ पर लांछन लगा है। मणि जिसकी है, उसे देकर वह लांछन दूर करना है मुझे।
‘यह मणि तो मैंने सिंह को मारकर प्राप्त की है’ जाम्बवान ने मणि की ओर देखा। उन्हें लगता ही नहीं है कि उनके ये आराध्य युगों के पश्चात मिले हैं। उन्हें तो ऐसा ही लगता है कि अभी-अभी कुछ क्षण पीछे ही वे अपने प्रभु के श्रीचरणों में पुनः बैठ गये हैं और उन परमोदार से संकोच कैसा। इन्होंने सदा सम्मान ही दिया है जाम्बवान को। अतः मणि पर अपना स्वत्व प्रकट करके उन रीछपति ने कहा- ‘प्रभु जब इस रीछ के बिल को धन्य करने पधारे हैं तो यदि इसकी अर्चा स्वीकार करें, मणि उस अर्चा का उपहार बन सकती है।’
श्रीकृष्णचन्द्र कैसे कह देंगे कि मणि पर अब जाम्बवान का स्वत्व नहीं है। इस अपने नैष्ठिक सेवक से बलपूर्वक मणि छीनी भी कैसे जा सकती है। इतनी भूमिका और ‘यदि’ जिसके साथ है, वह अर्चा सामान्य तो नहीं होगी। सामान्य अर्चन तो जाम्बवन्त कर ही रहे हैं। उन्होंने चरण धो लिये हैं और अब माल्य, चन्दन- ये न भी हों उनकी गुफा में तो कन्द-मूल-फल स्वीकार करने के लिये तो आग्रह की आवश्यकता नहीं है।
‘आपकी इच्छा पूर्ण हो’ श्रीकृष्णचन्द्र ने सस्मित कह दिया। जाम्बवन्त उठे और अपनी कन्या को ले आये- ‘हम पशुओं में कोई औपचारिक कृत्य आवश्यक नहीं होता। आप इसका कर-ग्रहण कर लें और मणि के साथ इसे भी अपनी सेवा मे स्वीकार करें’
‘आप उपदेव, सृष्टिकर्ता के मानसपुत्र, आप ब्राह्म-विवाह भी कर रहे हैं इस विनम्रता से’ श्रीकृष्णचन्द्र ने जाम्बवती का पाणि-ग्रहण किया।
‘आपके इस संबंध से मैं सम्मानित हुआ’ मणि इस कन्या-दान का दहेज बनकर मिली श्रीकृष्णचन्द्र को। जाम्बवन्त ने कोई और औपचारिकता नहीं की। गुहा के द्वार तक वे केवल पहुँचाने आये। अपने को वे अपने इन आराध्य का नित्य सेवक ही समझते रहे हैं, अतः इनके साथ औपचारिकता क्या। जाम्बवान ने तो फिर नहीं देखा पुत्री की ओर भी। वह आराध्य के चरणों में अर्पित हो गयी- उनकी हो गयी।जाम्बवान निश्चिन्त हो गये।
“कृष्णचन्द्र उस घोर अन्धकार पूर्ण गुहा से नहीं निकले”- वन में मणि की शोथ करने जो लोग साथ गये थे, उन्होंने जो समाचार दिया था वह बड़ा ही भयानक समाचार था- ‘रात्रि दिन उस गुहा से भंयकर गुर्राहट ओर वज्रपात जैसा शब्द आ रहा था’ श्रीवसुदेव जी, देवी देवकी, रुक्मिणी जी, महाराज उग्रसेन- सभी सुहृद, सजातीय द्वारिकावासी अत्यंत दुःखी थे। लोभी क्षुद्र हृदय क्रूर सत्राजित ने द्वारिका के जीवन-धन को ही संकट में डाल दिया। पता नहीं क्या हुआ उनका?’
‘क्या किया जाय? क्या उपाय?’ उस अन्धकार पूर्ण भयानक गुफा में प्रवेश का उद्योग पता नहीं भीतर क्या परिणाम उत्पन्न करे।
(क्रमश:)
जय श्रीराधे कृष्णा
Jambavan was shouting, roaring, jumping and punching. Shri Krishna was standing still. His south tax was only hurting but there was no line of anger and labor on his head.
Jambavan was surprised – who is this? But his anger was increasing. Every fist that fell on his body was very hard, very painful. It seemed as if the flesh, tendons and bones had been crushed. This fist fight went on for the whole twenty-eight days and nights without a moment’s pause. Jambavan started to relax. His jumping and roaring stopped. His grumbling subsided. He felt that every part of the body, every muscle, every nerve and ligament was breaking. The whole body has been crushed by the heavy fist-blow. Even the bones are hurt. No more – can’t take the trauma any longer. Now fainted – now sparks started flying in front of the eyes. Gathering all his strength, Jambavan hit the chest of Shrikrishna Chandra by clenching his fists and fell at the feet of Shrikrishna Chandra.
The stroke happened in a fit of rage, but along with the stroke, the vision at the chest went away. ‘This Srivatsankit, Bhrigulatabhushit chest – how unfamiliar is this chest place for Jambavant. They fell straight at the feet – my lord’s pardon…..’ He was fighting with his idol. No one else was able to bear his attack, but this audacity along with adorable.
Jambavant did not get even two moments to repent. Amritsyandikar, his forever acquaintance, was roaming on his body from head to waist with the same affection and affection. All the pain and suffering was like never before. New life, strength, enthusiasm was being filled in the body – nectar-communication was happening. Dayadham was saying in his affectionate voice – ‘Get up, bear bearer, I am satisfied. I am happy Get up then right.
Jambavan didn’t want to get up leaving those feet, but bowing down and filling his huge arm, the Lord lifted him like always and hugged him to the chest. Jambavan Gadgad was not able to speak ‘Lord come’. ‘I had gone out in search of this gem. That’s why I came here’ Shrikrishna Chandra laughed – ‘I have been blamed for this. I have to remove that stigma by giving the gem to whom it belongs.
‘I got this gem by killing a lion’ Jambavan looked at the gem. They don’t even think that they have met their adorable after ages. It seems to them that just a few moments back, they have once again sat down at the feet of their Lord, and why should they hesitate with that Supreme Lord. He has always given respect to Jambavan. Therefore, by expressing his authority on the gem, the bearer said- ‘When the Lord has come to bless this bear’s bill, if you accept its worship, the gem can become a gift to that worshiper.’
How will Shrikrishna Chandra say that Jambavan no longer owns the gem? How can even a gem be snatched from this loyal servant by force? So much role and ‘if’ with whom, that archa will not be normal. Jambavant is doing the normal worship. He has washed his feet and now garlands, sandalwood – even if these are not in his cave, then there is no need to urge him to accept tuber-root-fruit. ‘May your wish come true’ Shri Krishna Chandra said with a smile. Jambavant got up and brought his daughter – ‘ No formal act is necessary in us animals. You accept it and accept it in your service along with the gem.
‘You Upadeva, Manasson of the Creator, you are also doing Brahm-Vivah with this humility’ Shri Krishnachandra took the water of Jambavati. ‘I am honored by this relation of yours’ Shri Krishnachandra got the gem as dowry of this daughter-donation. Jambavant did not do any other formalities. They only came to take you to the entrance of the cave. They have been considering themselves as the daily servants of their beloved, so what is the formality with them. Jambavan didn’t even look at his daughter. She surrendered at the feet of the adorable – she became his. Jambavan became relaxed.
“Krishna Chandra did not come out of that dark cave” – the news given by the people who had gone with him to search for the gem in the forest was very terrible news – ‘The sound like thunder and thunder was coming from that cave during the day and night. Tha ‘Srivasudev ji, Devi Devaki, Rukmini ji, Maharaj Ugrasen – all the friendly, homogeneous residents of Dwarka were extremely sad. Greedy petty hearted cruel Satrajit put Dwarka’s life and wealth in danger. Don’t know what happened to him? ‘What to do? What solution? The industry of entering that dark full of terrible cave does not know what result it will produce inside. (respectively)
Jai Shri Radhe Krishna