लाला बाबू भाग – 3

गतांक से आगे –

पढ़े लिखे थे ही लाला बाबू ….और उन दिनों उड़ीसा राज्य अंग्रेजों के अधिकार में था ….ये अत्यन्त बुद्धिमान थे ….अंग्रेज़ी इनकी बहुत अच्छी थी …इसलिये अंग्रेजों के अधिकारियों ने इन्हें कलेक्टर का पद दे दिया …..ये इसी बात से प्रसन्न थे । वहाँ इनको एक अपनी ही जात कायस्थ की कन्या से ही प्रेम हो गया और इन्होंने विवाह भी कर लिया ।

“लाला ! तेरे दादा जी बहुत बीमार हैं …..तू आजा ।”

अपनी ओफिस में बैठे लाला बाबू टेलीग्राम पढ़ रहे थे …कलकत्ता से इनके दादा जी ने भेजा था ….कलकत्ता अपने घर में स्वयं ही लाला बाबू ने सूचना भिजवा दी थी ये कहकर कि अब मुझे किसी से पैसा नही चाहिए …मैं स्वयं कमाने लगा हूँ । उड़ीसा भुवनेश्वर में मैं कलेक्टर हूँ ।

ये पढ़कर दादा और दुखी हो रहे थे ….और इसी दुःख के कारण वो बीमार भी रहने लगे थे ।

पर लाला बाबू को अपने दादा जी की अभी भी वो बात चुभी हुयी थी कि ….”अगर इस तरह लुटाना हो तो स्वयं कमाओ ।” इसलिये ये लगे हुये थे धन कमाने में …..पत्नी सुशील थी ….समय बीतता गया …और एक दिन इनके पुत्र भी हो गया, जुड़वा पुत्र ।

उन्हीं दिनों इनको श्रीजगन्नाथ भगवान के धाम पुरी में रहने का अवसर मिल गया ….ये इस बात से बड़े प्रसन्न थे …पत्नी , बच्चों के साथ कुछ दिन के लिए अपने मायके चली गयी थी । लाला, ये नित्य श्रीजगन्नाथ भगवान के मन्दिर जाते …वहाँ का प्रसाद ग्रहण करते ….कलेक्टर थे तो पुजारी लोग भी आदर करते थे ….उनके ही निवास पर प्रसाद पहुँच जाता ….फिर तो इन्होंने बाहर का भोजन करना ही छोड़ दिया था ……फिर प्रसाद ! वो भी जगन्नाथ भगवान का ….उससे इनके मन के पाप सब धुलते जा रहे थे …इनका मन पवित्र हो गया था ….इन्हें बहुत अच्छा लगता था जब ये समुद्र किनारे बैठते और वहाँ साधु महात्मा महामन्त्र का गान करते हुये आते ….ये उन्हें देखते थे …ये उनके साथ महामन्त्र का गान करते …..कभी कभी उन्हीं की मुद्रा में नाचने लगते ।

एक दिन …..

श्री जगन्नाथ मन्दिर के निकट ही चैतन्य महाप्रभु की कथा एक वृद्घ महात्मा सुना रहे थे …ये अपनी गाड़ी से उसी ओर किसी कारणवश गये हुये थे …वाणी में इतनी मधुरता थी कि वो वहीं रुक गये ….गाड़ी को एक तरफ लगाकर कथा में गये ….जूते खोल कर बैठ गये ….वो महात्मा महाप्रभु की पत्नी श्रीविष्णुप्रिया के त्याग की चर्चा कर रहे थे ….वो बता रहे थे कि प्रेम में कितना महान त्याग था विष्णुप्रिया का । सब भूल गए लाला बाबू ….वो तो कथा सुनते हुए हिलकियों से रो पड़े ।

तुम कलकत्ता के प्राणकृष्ण जी के पुत्र हो ? उन महात्मा जी ने कथा रोकर पूछा ।

लाला बाबू चौंक गये ….हाँ गुरुदेव ! पर आप कैसे जानते हैं ? फिर तुरन्त लाला बाबू ने पहचान लिया ….इनका एक चित्र भी लाला बाबू के पूजा घर में रखा हुआ है …इन्हीं की कृपा से मेरा जन्म हुआ है …यही तो हैं मेरे परिवार के गुरुदेव । लाला बाबू तुरंत साष्टांग चरणों में लेट गए ।

जो भक्ति के बीज इनके भीतर थे …उन बीजों को अब सत्संग , नाम कीर्तन आदि से जल खाद मिलने लगा …पल्लवित होने लगा वो बीज ।

श्रीवृन्दावन , श्री श्याम सुन्दर , श्रीराधारानी ….लाला बाबू इन महात्मा जी को ही अपना सर्वस्व मानने लगे थे …और ये महात्मा इनको श्रीवृन्दावन के विषय में बताते …श्याम सुन्दर कहते हुए ये भाव में डूब जाते ….और श्रीराधा …कहते हुए तो इनके नेत्रों से अश्रु रुकते ही नही ।

ये महात्मा जी ही नही …लाला बाबू भी भाव जगत में चले जाते ….संग का रंग तो चढ़ता ही है ….वो चढ़ता गया ।

एक दिन महात्मा जी लाला बाबू से बोले ….बाबू ! मैं श्रीवृन्दावन जा रहा हूँ । ओह ! लाला बाबू को बड़ा दुःख हुआ …..क्यों ? तुरन्त पूछ लिया लाला ने । महात्मा जी बोले …श्रीराधारानी मुझे बुला रहीं हैं । चकित भाव से लाला ने महात्मा जी को देखा ….तो उन प्रेम भरे नयनों में एक मत्तता दिखाई दी …अद्भुत प्रेम की मत्तता । लाला ! श्रीराधारानी कह रही थीं मुझे …..”दिन शेष हय गलो” ….दिन डूब रहा है उठो । लाला ! मैं उठा तो श्रीराधा रानी ने मुझ से कहा ….अब आओ मेरे श्रीवृन्दावन ! लाला बाबू उन महात्मा जी की बातों को समझ ही नही पा रहे थे ….फिर महात्मा बोले ….तुम्हें भी बुला रहीं हैं ….पर तुम ध्यान देते नही हो । लाला बाबू उठे प्रणाम किया और बोले ….मेरे बालक हैं ….पत्नी है …महात्मा जी तुरन्त बोले …तो ? ये सब कब तक ?

गाड़ी लेकर लाला बाबू बिना कुछ उत्तर दिये वहाँ से अपने आवास में चले गये ।

पर आवास में एक टेलीग्राम आया हुआ है ….नौकर ने दिया ….लाला ने जैसे ही टेलीग्राम पढ़ा ….लाला ! तेरे दादा जी स्वर्ग सिधार गये । ये सुनते ही लाला बाबू के नेत्रों से अश्रु बहने लगे …..ये क्या हुआ ? मेरे दादा जी मुझ से कितना प्रेम करते थे ….और मैं जिद्दी । वो तुरन्त गाड़ी लेकर अपने ससुराल गये …पत्नी और बालकों को लिया ….फिर अपनी कलेक्टरी से इस्तीफ़ा देते हुये वो कलकत्ता चले गये थे ।

लाला ! अन्तिम समय तुझे देखने की बहुत इच्छा थी दादा को …..पर तेरे जिद्द ने इनकी वो इच्छा पूरी नही की । परिवार के बड़े बड़े लोग कह रहे थे ….लाला बाबू खूब रोये …दादा जी के मृत देह से लिपट कर रोये …..मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है दादा जी तुम्हारा …मैं अपराधी हूँ ।

लोगों ने सम्भाला अब लाला बाबू को ….अपने दादा का दाह संस्कार किया इन्होंने ।

वसीयत में सब कुछ अपने इस पोते को दे गये थे दादा जी …सम्पत्ति बहुत थी इनकी ….ज़मीन जायदाद अपार था ….अब इन्हीं को सम्भालना था सब …पत्नी ने भी हाथ बटाया …पुत्र बड़े हो रहे थे ….उनकी भी शिक्षा अच्छी चल रही थी ।

लाला बाबू ने उड़ीसा के कलेक्टरी से इस्तीफ़ा दे ही दिया था …अब इनको सरकारी काम नौकरी आदि करने की आवश्यकता थी नही …..क्यों की इनके पास अपनी ही कलकत्ता में ज़मीनें बहुत थीं ….ये अब इन्हीं अपने जायदाद को सम्भालने में लगे थे । इन्हीं सब में लाला का समय बीत रहा था । पर एक दिन ……

शेष कल –

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