भाग – 01रसोपासना” की भूमिका

आज के विचार


नही… नही… मुझ से नही लिखा जाएगा ।

गौरांगी ! मैं उस रस का वर्णन कैसे कर पाऊँगा… मेरी लेखनी रुक जायेगी… मेरी बुद्धि काम देगी ?

हरि जी ! ये बुद्धि का विषय ही कहाँ है… ये तो हृदय की पुकार है…ये तो हृदय जब अपने प्रियतम से मिलने के लिये हाहाकार कर उठता है…तब ये प्रकट होता है…बस उस तड़फ़ की ओर अपना ध्यान केंद्रित कीजिये…अनन्त जन्मों से जो प्यास है वो किसकी है ? धन या पद की तो है नही…बालक और पत्नी की भी नही… फिर किसकी ? रस की… रस को पाने की…उसी रस का वर्णन कीजिये… लिखिये हरि जी ! लिखिये !

🙏”सदा सनातन एक रस, सदा बसत सब काल !
श्री राधा रानी जहाँ, राजा मोहन लाल !! “

गौरांगी मुझ से कह रही थी… उसका आग्रह था ।

भद्दा तो नही लगेगा ? मैंने गौरांगी से पूछा ।

उसने कहा ना ! रस का वर्णन अगर बुद्धि से हो तो भद्दा लगता है… आप तो हृदय के मन्दिर में बैठे “युगलवर” का दर्शन कीजिये… फिर देखिये… लेखनी चल पड़ेगी ।

मैंने न “हाँ” कहा… न “ना”… बस युगलघाट से गौरांगी को बिना कुछ बोले चल पड़ा…क्या बोलता ? “रस साधना” पर लिखना कोई मजाक तो है नही… और मेरे जैसे नीरस हृदय के व्यक्ति द्वारा !


एक होता है प्रभु सम्मित आदेश, प्रभु की आज्ञाएँ- जैसे – सत्यं वद, धर्मम् चर, स्वाध्यायांमा प्रमदितव्ययः… सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में प्रमाद मत करो ।

ठाकुर जी के ये रूप निरपेक्ष शासक का है…जो करेगा उसका भला होगा… न करेगा वह दण्ड भोगेगा…।

दूसरा ठाकुर जी का रूप है… सखा का…यानि मित्र का परामर्श… या ठाकुर जी एक मित्र के रूप में हमें आश्वासन दे रहे हैं ।

“सर्व धर्मान् परित्यज्यमाम् एकम् शरणम् व्रज”

सब धर्मो को छोड़कर मेरे ही आश्रय में रहो । यहाँ प्रेम है… ठाकुर जी का प्रेम हम लोगों के प्रति है…पर कुछ दूरी है… तभी तो आगे कहते हैं…
“अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः”…
मैं तुझे सारे पापों से मुक्त कर दूँगा… यानि दया कर रहे हैं… पूर्ण प्रेम में दया कहाँ ?

तीसरा है… “प्रेम सम्बन्ध”… प्रियतम का प्रेम पूर्ण सम्भाषण… इसमें ठाकुर जी न कोई आदेश देते हैं… न उपदेश की कोई कठोरता है… इस स्थिति में मात्र ठाकुर जी का कोमल प्रेम है… मात्र प्रेम ।

हाँ इतनी कामना अवश्य है कि – मेरे प्रियतम मुझे ही देखें ।

पर एक है “रस साधना”…”रस” एक ऐसा विलक्षण तत्व है… जो एक होकर भी अनेक रूपों में प्रतिभाषित होता है…इसलिये तो रस को ‘ब्रह्म” कहा गया… रस ब्रह्म है… जैसे ब्रह्म एक होकर भी अनेक रूपों में है… ऐसे ही रस भी एक होकर अनेक रूपों में दिखाई देता है… साहित्य के नव रस तो प्रसिद्ध हैं हीं… इसके अलावा रस के भेद विभेद बहुत कुछ है ।

“रस साधना”…इस साधना को करने वाले “रसिक” कहे जाते हैं…रसिक सबसे ऊँची अवस्था है… ब्रह्म और आल्हादिनी की ही उपासना इनका ध्येय है… स्वसुख वान्छा का पूर्ण त्याग यही इनका सन्यास है… बस प्रियतम सुखी रहें ।

नित्य निकुञ्ज के वासी है ये… वो नित्य निकुञ्ज, जिसका महा प्रलय में भी नाश नही होता… नित्य वृन्दावन, नित्य विहार, ।

श्रीकृष्ण रस रूप ब्रह्म हैं… वह रस ब्रह्म श्रीधाम वृन्दावन विलासी हैं ।

इसी नित्य निकुञ्ज को श्री वृन्दावन कहते हैं…जो अनादि है ।


एक निकुञ्ज की झाँकी –

दूर श्याम सुन्दर खड़े हैं…नील सुन्दर श्याम का श्रीअंग चमक रहा है ।

पास में तपते हुए सुवर्ण की तरह गौर वर्णी श्रीराधारानी खड़ी हैं… बहुत पास में… दूर से सखियाँ देखती हैं…

झुक कर श्रीश्यामसुन्दर कुछ कर रहे हैं…

ओह ! सखियाँ आनन्दित हो उठीं…

गौखुर की धूल “श्री जी” के मुख मण्डल में लग गयी है… श्याम सुन्दर पास में जाकर फूँक मारकर उसे उड़ा रहे हैं ।

आहा ! कितनी सुन्दर झाँकी ।

दूसरी निकुञ्ज झाँकी –

रंगदेवी और सुदेवी ये दो सखियाँ हैं निकुञ्ज की…

पर ये क्या ! रंगदेवी, सुदेवी के मुखमण्डल को चूम रही हैं ।

ये क्या कर रही हैं ?

पर जब ध्यान से देखा…

तो आहा ! सुदेवी अत्यन्त गौर वर्णी हैं… और उनके मुखमण्डल में युगल सरकार का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है… रंगदेवी उसी को चूम रही हैं… उफ़ !

ये क्या है ?

“ये रसोपासना है “

नही नही आपको सिद्धान्त के पचड़े में नही पड़ना… बस लीला झाँकी का चिन्तन करना है… चिन्तन, ध्यान ।

( साधकों ! ये मैंने शुरू किया है “दिव्य रस की साधना”… युगल सरकार की इच्छा से ही हुआ है… आगे वही पूरा करेंगे… मैंने मात्र शुरू किया है…

“श्रीराधाचरितामृतम्” को रसिक सन्त भक्तों ने अपने हृदय से लगाया… पर “श्रीराधाचरितामृतम्” अवतार लीला थी… पर ये अवतार लीला नही है… ये निकुञ्ज लीला है… जो अनादि काल से चल रही है… और चलती रहेगी )

गौरांगी कितने प्रेम से गा रही थी कल युगलघाट में…

जय जय वृन्दावन नित्य बिहार, श्रीराधा पिय परम उदार !
जय सहचरी आदि रँगदेव्य, श्यामा श्यामहिं जिनके सेव्य !
जय नव नित्य कुञ्ज सुखसार, जय यमुना कंकन आकार !
“श्रीहरिप्रिया” सकल सुख सार, सर्व वेद को सारोद्धार !!

कहीं सच तो नही कहा गौरांगी ने… हरि जी ! आपको प्रेम देवता ने पकड़ लिया है… इधर-उधर की बातें आप अब लिख नही सकोगे ।

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

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