साधकों !
“जीवन मिला है दूसरों को सुख देने के लिये… सुख लेने के लिये नही”…
बस इतनी सी बात अगर समझ में आ जाये… तो ये “रसोपासना” आपके समझ में आ जायेगी ।
“सखीभाव” का यही सिद्धान्त है… अपने प्रियतम को अगर आपने अपने सुख का साधन बना लिया है… तो प्रेम आपको प्राप्त नही होगा… वह प्रेम मोह का रूप ले लेगा… फिर मोह के दलदल में ऐसे फंस जाओगे कि आये दिन शिकायत और दुःख से कराहते ही रहोगे… जो इस संसार में सर्वत्र देखने को मिलता ही रहता है ।
क्यों प्रेम सरोवर में विहार नही करते ? क्यों मोह के कीचड़ में लथपथ रहते हो… क्यों भिखारी की भाँति हाथ फैलाकर अपने प्रियतम के आगे खड़े रहते हो… बादशाह क्यों नही बनते ? मेरी बात मानो, देने में मस्त हो जाओ… सुख बाँटने में मस्ती का अनुभव करो… लेने के पीछे मत पड़ो… अपने प्रियतम के हृदय पात्र में बस अपनी आत्मीयता का दान करते जाओ… उन्हें तुमसे सुख मिल रहा है ना ? इस बात का ध्यान रखो… स्वयं को सुख मिले इस बात को त्याग दो… यही सच्चा प्रेम है… नही तो मोह को ही प्रेम समझ बैठोगे तुम ।
“रसोपासना” इसी सिद्धान्त पर चलती है… सच पूछो तो सखियों का अनुपम प्रेम ही युगल सरकार को तृप्ति देती है… और युगल सरकार की तृप्ति और आनन्द ही सखियों का लक्ष्य है… यही इन्हें पाना है… स्वसुख की इच्छा सखियों के मन में उठती ही नही है… बस ये युगलवर प्रसन्न रहें… इसी कामना से ये सब करती हैं ।
है ना विलक्षण उपासना ? केश काटने नही हैं… वल्कल पहनने नही हैं… इत्र फुलेल सब लगाना है… वस्त्र सुन्दर लगाने हैं… क्यों ? क्यों कि युगल देखें तो उनके नेत्रों को अच्छा लगे… ये सब अपने लिये नही… प्रियतम के लिये ।
उफ़ !
चलो… ध्यान में बैठिये… आँखें बन्द कीजिये… और चलिये उस नित्य निकुञ्ज में… जहाँ सखियाँ प्रातः के समय स्नान कर रही हैं… और ध्यान से सुनिये उनकी प्रेम पूर्ण बातों को… इन्हीं की बातों में रसोपासना के गूढ़ सिद्धान्त निहित हैं ।
यमुना के जल में सखियाँ स्नान कर रही हैं… अपने सुन्दर केशों में सुरभित खली लगाती हैं… और मलमल कर उन्हें धोती हैं… अपने स्वर्ण के समान चमकते हुये अंगों में उबटन मलती हैं… ताकि देह और चमक उठे… यमुना के सलिल में मींड़ मींड़ के अपने देह को धोती हैं… “श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा”… का नामोच्चारण करती हुयी जल से बाहर आती हैं… और स्वच्छ वसन से अपने अंगों को पोंछती हैं… श्रीराधारानी की प्रसादी इत्र फुलेल सबके पास है… उन प्रसादी इत्र फुलेल को अपने अंगों में लगाती हैं… आहा ! पूरा वातावरण युगल के प्रसादी इत्र से सुगन्धित हो उठा है ।
“ये नीली साड़ी मुझे “श्रीजी” ने कल दी थी… चहकती हुयी श्री रंगदेवी ने अन्य सखियों को बताया… रंगदेवी सखी के गौर अंग में वह नीली साड़ी बहुत सुन्दर लग रही है…
आप नीली साड़ी ही क्यों पहनती हैं ? इन्दुलेखा सखी ने पूछा था ।
क्यों कि मुझे एक बार श्रीजी ने कहा… रंगदेवी ! तुम नीली साड़ी में अच्छी लगती हो… बस… मेरी श्रीजी को अच्छी लगे तो मैं वही पहनूँगी… अच्छा ! इन्दु ! तू मुझे पूछ रही है… तू बता तू लाल साड़ी ही क्यों पहनती है ? ये सुनकर खिलखिला के हँसी इन्दुलेखा ।
मुझे तो युगल सरकार ने ही कहा है… कि तुम लाल साड़ी ही पहनो… अब उन्हें जो प्रिय है… वही हमें प्रिय है… उनको जो अच्छा लगे वही करना हमारे लिये साधना है… इन्दु ने कहा ।
मेरा जूड़ा बना दो सुदेवी ! आज बन नही रहा… ललिता सखी ने कहा… सुदेवी ने पीले रंग की साड़ी पहनी है… पहन ली है ।
हाँ अभी बना देती हूँ… जूड़ा बनाने ललिता सखी के निकट आईँ सुदेवी ।
जूड़ा बनाती सुदेवी से पूछा ललिता सखी ने… तुम्हें श्याम सुन्दर ज्यादा प्रिय हैं… या श्रीजी ? हँसती बहुत है सुदेवी ललिता सखी का प्रश्न सुनकर… बोलती कम हैं और हँसती ज्यादा हैं ।
ये कैसा प्रश्न है आपका ? श्याम सुन्दर हमारी प्रिया श्रीराधा रानी को प्रिय हैं… तो हमारी स्वामिनी को जो प्रिय हों… वह हमें भी प्रिय हैं हीं । सुदेवी कम शब्दों में बहुत कुछ बोलती हैं… नही… सुदेवी ! तुम्हें हमने “श्याम श्याम” कहते हुये ही सुना है ना ! इसलिये पूछ रही हैं ललिता । चित्रा सखी ने ये बात कही थी ।
फिर जूड़ा बनाते हुए छोड़कर हँसने लगीं सुदेवी ।
अच्छा ! ज्यादा मत हँसो सुदेवी ! जूड़ा जल्दी बना दो… नही तो युगल की सेवा में बिलम्ब हो जायेगा । ललिता सखी ने कहा ।
जूड़ा तो बन गया ललिता जु !… पर एक बात से हँसी आ गयी… सुदेवी ने कहा ।
… अब जल्दी बता भी दे… रंग देवी ने सुदेवी से कहा… रंगदेवी की ये छोटी बहन हैं ।
“श्री जी” एक दिन कुञ्ज में अकेली अनमनी-सी बैठी थीं… मैं उनके पास थी… श्याम सुन्दर से कोई बात हो गयी थी शायद ।
उदास सी बैठी थीं… मैं उनके चरणों को देख रही थी लाल लाल रंग के उनके चरण… और बैठी-बैठी उनके चरण चिन्हों को गिन रही थी… बज्र, अंकुश, ध्वजा, यव, लता, स्वस्तिक… तभी मुझे पता नही क्यों जम्हाई आ गयी… मैंने मुँह में हाथ रखा और दूसरी तरफ मुड़ते, जम्हाई लेते हुये मेरे मुँह से निकल गया… हे श्याम !
बस ये “श्याम” नाम सुनते ही… श्रीजी का मुखमण्डल तो खिल गया… वो प्रसन्नता से चहक उठीं… और मुझसे बोलीं… सुदेवी ! तू मेरे सामने यही नाम लिया कर मुझे प्रसन्नता होती है ।
अब बताओ… मैं अपनी प्रसन्नता देखूँ कि श्रीजी की ?
तो मेरे मन ने कहा… नही… श्रीजी की प्रसन्नता में ही हम सब की प्रसन्नता है… सुदेवी की बात सुनकर सब सखियाँ प्रसन्न हो गयीं… बोलीं… तभी तो हम सब युगल नाम का आश्रय लेती हैं… क्यों कि श्याम सुन्दर को श्रीजी का नाम प्रिय है… और श्री जी को श्याम सुन्दर का… इसलिये हम सब युगल नाम जपती हैं…
🙏राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
🙏राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
सब सखियाँ फिर शुरू हो गयीं… आहा ! गाती जा रही हैं और सजती जा रही हैं… आँखों में अंजन लगाया है… मोटा अंजन लगाया है… फिर भाल में श्रीजी की प्रसादी श्याम बिन्दु, दोनों भौहों के मध्य में लगाया… और रोली का टीका जो श्याम सुन्दर की प्रसादी है उसे अपने भाल पर लगाया ।
रोली श्रीजी का श्याम सुन्दर लगाते हैं… और श्याम बिन्दु भाल पर श्रीजी लगाती हैं… आहा !
मणि – आभूषण सखियों ने धारण किये… मोतियों की लड़ी अपने गले में धारण की… ये सब प्रसादी है युगल की ।
बस इसके बाद सब… अपने कुञ्ज में आईँ… कुञ्ज से सुवर्ण की थाल ली… उसमें भाँति-भाँति की वस्तुएँ रखीं… और चलीं अब युगल सरकार को जगाने… दिव्य वृन्दावन है… सखियों को सज-धज कर जाते हुए जब देखा पक्षियों ने… तो सब कलरव करने लगे… मोर नाचने लगे… सखियाँ हँसती हैं इन सबको देखकर ।
🙏मोहन मन्दिर चौक में , मिली सब सखी समाज !
बीन बजावहिं गावहीं, मधुर मधुर सुर साज !!
शेष “रसचर्चा” कल…
🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩