आपका कर्तव्य केवल होना है

आपका कर्तव्य केवल ‘होना’ है,यह या वह होना नहीं।’मैं हूं वह मैं हूं’ पूर्ण सत्य है।’निश्चल बनिये’ से संक्षेप में इसकी पद्धति बतायी गयी है।निश्चलता का अर्थ क्या है?इसका अर्थ है अपने आपको नष्ट कर दीजिए, क्योंकि कोई भी रुप या आकार परेशानी का कारण है।’मैं अमुक हूँ’ इस ख्याल को छोड दीजिए।आत्मा(सेल्फ)का अनुभव करने के लिए सिर्फ निश्चल होना आवश्यक है।इससे सरल और क्या हो सकता है?इस कारण आत्मविद्या प्राप्त करने वाला सबसे सरल है।”

अपने मन में अपने नामरुप जैसे हम एक ख्याल मात्र हैं।हम दिनरात उसीसे परिचालित होते हैं जबकि हमारा अस्तित्व,हमारी चेतना(कोंश्यसनेस)नामरुप संबंधी ख्याल मात्र नहीं है।
स्वयं को नामरुप मानकर चले तो फिर अंतहीन पीडाएं झेलनी रही।नामरुप, शरीर का है,हमारा नहीं।हम अजन्मा हैं।हम पहले थे,शरीर बाद में आया।यह चला भी जाता है मगर हम यथावत् बने रहते हैं।यही कारण है जो हर व्यक्ति को लगता है वह अमर है।यह सत्य है।कभी कोई मरता ही नहीं।मर भी नहीं सकता चाहे तो भी।कृष्ण कहते हैं-
‘न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।”
कृष्ण शाश्वत चेतना की भाषा में बोल रहे हैं।यह कोई साधारण वाणी नहीं अपितु स्वयं परम सत्य की उद्घोषणा है।
इस शरीर का हमें इतना लाभ जरूर है कि यह हमें हमारा अनुभव करवा सकता है,करवा रहा है।शरीर का अनुभव मूलतः हमारा खुद का अनुभव है परंतु चेतना बहिर्मुखी होकर शरीर पर आरुढ है इससे भ्रम होता है कि शरीर के अनुभव के कारण हम हैं।
तो इसी भ्रम को हम अपना आधार बनालें।इसे भरपूर अनुभव करें।जितना गहरा अनुभव होगा,विचार छूटते चले जायेंगे।
समस्या न शरीर के कारण है,न आत्मा के कारण।समस्या दोनों के बीच में जो विचार चल रहे हैं उनके कारण है।शरीर उन विचारों के बंधन में नहीं आता(यद्यपि वह रसायनिक, स्नायविक प्रतिक्रिया जरूर करता है),चेतना जरूर बंधन में आती है जो हमारा मूल स्वरुप है।इसीको मुक्त करना हमारा लक्ष्य है।
“केवल अपने आपका सत्य परीक्षण करने एवं जानने योग्य है।अपने ध्यान का लक्ष्य बनाकर मनुष्य को चाहिए कि वह उसे हृदय में जाने।मौन,स्वच्छ तथा मन की चंचलता से रहित चेतना में यह अपने आपका ज्ञान प्रकट होगा।’
‘This knowledge of oneself will be revealed only to the consciousness which is silent,clear and free from the activity of the agitated and suffering mind.”
हमें लगता है हम मन हैं और मन मरने से डरता है।हमें जानना होगा हम शाश्वत चेतना हैं,मन नहीं।इसके लिए हमें हर क्षण शांत,मौन रहकर अपने अस्तित्वबोध से जुडे रहना होगा।इससे मन स्वतः लुप्त हो जायेगा।वह होगा ही नहीं जो मिटने,मिटाने का कल्पित भयचिंता उत्पन्न कर सके।नामरुप युक्त मन ख्यालमात्र होने से अवास्तविक है,कष्टप्रद है।अस्तित्वबोध युक्त हमारा आपा,हमारा होनापन वास्तविक है।इसीको पहचानना चाहिए, इसीके साथ रहना चाहिए।

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