जीवन सुखमय बनाने का सुगमतम साधन (भक्तियोग-ध्यानयोग)

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*🌹अमृतवाणी🌹* *हमें जो मानव शरीर* *मिला है, यह हमारे लिए बहुत ही* *सुयोग की बात है ।इसे हम* *अपने प्रयास से नहीं प्राप्त* *कर सकते । यह तो* *भगवान् की अहैतुकी करुणा से* *ही प्राप्त होता है

इस तरह* *हमारा यह मानव तन* *अत्यन्त दुर्लभ है । इसका पुनः* *मिलना उतना ही कठिन* *है , जितना पके फल के* *गिर जाने पर फिर उसका* *डाल में आ लगना ।* 🌻 इस मानव-तन का महत्व भी अद्वितीय है । *चौरासी लाख* *योनियों में मानव-योनि ही* *ऐसी योनि है, जिसमें* *आत्मा का मुख्यतया* *त्राण किया जा* *सकता है ।* कीट-पतंग, पक्षी, पशु आदि प्राणी भला ईश्वर, जीव और प्रकृति के सम्बन्ध में क्या विचार कर सकते हैं । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोषों में से कुछ कोष ही इन प्राणियों में होते हैं । कोषों का समग्र विकास तो केवल मनुष्य-शरीर में ही होता है । इसलिए मनुष्य की ही 'आत्मा नित्य है , इसके अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय, विषय आदि सब अनित्य हैं '। *ऐसा, विवेक कर सकता है; इसका अभ्यास कर सांसारिक भोगों से विरक्त हो सकता है । इस वैराग्य को दृढ़ कर शम-दम-उपरति-तितिक्षा-श्रद्धा-समाधान रूप सम्पत्तियों को प्राप्त कर सकता है, तब मुमुक्षता आती है और तब कहीं जाकर ब्रह्मविचार का अधिकारी बन सकता है ।* मनुष्य से भिन्न पशु आदि योनियों में साधन- चतुष्टय का यह तारतम्य सम्भव नहीं है । उनके पास वह बुद्धि नहीं होती जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है । अतः *मनुष्य शरीर में ही चौरासी* *लाख योनियों के प्रवाह* *के थपेड़ों से उत्पीड़ित* *आत्मा का त्राण* *सम्भव है । आत्मा का त्राण होता* *है- भगवान की प्राप्ति से ।* आत्मा पूर्ण अमरता, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण सुख चाहता है । इसकी पूर्ति सच्चिदानन्द ब्रह्म की प्राप्ति से ही सम्भव है, क्योंकि भगवान् के अतिरिक्त कोई पूर्ण अमर, पूर्ण ज्ञानस्वरूप और पूर्ण आनन्दस्वरूप नहीं है । इस तरह यह स्पष्ट है कि *मानव-तन का* *एकमात्र लक्ष्य है- भगवत प्राप्ति ।* *इस लक्ष्य की पूर्ति के* *लिए भगवान् ने अनादि काल* *से चेतावनी भी दे रखी है* *।* *कह रखा है कि इस शरीर के* *रहते-रहते भगवान् को* *अवश्य प्राप्त कर लो, नहीं* *तो विनाश-ही- विनाश हाथ* *लगेगा ।* किन्तु माया के चक्कर में पड़कर हमने भगवान् की इस चेतावनी पर कभी ध्यान नहीं दिया । परिणामतः अब तक हमें विनाश- ही- विनाश हाथ लगता आया है । अनादिकाल से हम भटकते, ढहते, ढिमलाते चले आ रहे हैं । कभी-कभी घोर यन्त्रणाओं के मध्य से होकर गुजरना पड़ता है । *गणित के पास* *वह अंक नहीं है जिससे* *हमारे भटकाव के लम्बे* *वर्षों की गणना की जा* *सके ।*

इस लम्बी अवधि में कई बार भगवान् की दया प्राप्त हुई होगी, कई बार हमें मानव-तन मिले होंगे, किन्तु तब से विनाश-ही-विनाश झेलते आ रहे हैं - पूर्ण सुख, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण अमरता की प्राप्ति तो दूर की बात रही । यह परिणाम है भगवान् की चेतावनी की अनसुनी करने का । प्रश्न उठता है कि मानव माया की इस लपेट से निकले कैसे ?

माया की असीम ऊँचाई के सामने बौना मानव खड़ा भी कैसे हो ! जिस माया ने अपनी लपेट से आज तक हमें निकलने न दिया, वह इस बार भी कैसे निकलने देगी! क्या ऐसा कोई उपाय है, जिससे हम पर माया का वश न चले ?

इसका उपाय भी उसी करुणामय ने अनादिकाल से बता रखा है, जिसने हमें मानव-तन प्रदान किया है और जिसने उसके उपयोग के लिए सतर्क भी किया है ;

*वह उपाय बहुत ही सरल है* *और व्यापक इतना है कि* *मानव-जीवन का प्रत्येक क्षण* *उसके दायरे में आ जाता है* *। तब प्रत्येक श्वास* *साधनामय बन जाता है । माया* *भी इस दायरे में पैठ नहीं* *पाती । वर्तमान में वह* *उपाय है--* 👉

*योगसिद्ध महामंत्र-* *ॐ आनन्दमय ॐ* *शान्तिमय का जप और श्री* *विश्वशान्ति ग्रन्थ भाग १के* *पृष्ठ १३ से १६ तक* *प्रकाशित ७ नियमों का पालन ।*

इससे बढ़कर और सुविधाजनक साधन क्या हो सकता है ? भगवान् की करुणा की कोई सीमा नहीं । उसने आत्मा के कल्याण के लिए हमें मानव-तन दिया, उसके उपयोग के लिए चेताया ।

उपयोग न करने पर होने वाले कटु परिणामों को दर्शाया और सुगम साधन दिया जिससे बढ़कर और कोई साधन हो नहीं सकता । ऐसे सुगम साधन का परिचय प्राप्त कर भी जो आलस्य-प्रमाद वश उसकी उपेक्षा कर देता है उसका जीवन पश्चातापमय बन जाता है और प्राप्त होता है शोक व रोना ही रोना ।
🙏🏽 ॐ आनन्दमय 🌹ॐ शान्तिमय🙏🏽
🙏🏽सब आनन्दमय 🌹सब शान्तिमय🙏🏽
🙏🏽 मैं आनन्दमय 🌹 मैं शान्तिमय🙏🏽
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योगसिद्ध महामन्त्र ॐ आनन्दमय ॐ शान्तिमय हर समय जपें आनंद शांति की वृद्धि होगी l
🙏🏻

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