मै शरीर नहीं हूं

तत्वप्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है । साधकको 3 बातोंको स्वीकार कर लेना आवश्यक है। मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नही है, शरीर मेरे लिए नही हैं

यह है कि तुम शरीर नहीं हो , तुम आत्मा हो , एक दिन शरीर छोड़कर यहां से निकलोगे और परमात्मा कण-कण में हैं ,तुम इस शरीर में रहते हुए अंदर ही अंदर परमात्मा से जुडो ।
तुझ आत्मा और परमात्मा के बीच में किसी बिचौलिए आ, गुरु और किसी की जरूरत नहीं हैं ।
सिर्फ तुझ आत्मा को परमात्मा से प्रार्थना करने की जरूरत है ।
हे प्रभु, मुझे क्षमा कर, अपनी शरण में ले लें, इस शरीर रूपी साधन से जो तू चाहता है वह करवा लें और मुझे ऐसी दृष्टि प्रदान कर कि मैं शरीर से होते हुए को देखता रहूं बिना लेकिन किंतु परंतु किए बगैर और हर पल तुझे निहारता रहूं।

मैं शरीर नहीं हूँ – मैं चिन्मय सत्तारूप हूँ, मै आत्म स्वरूप हूं, शरीर रूप नही हूँ । हमारी सत्ता होनापन शरीरके अधीन नहीं है । शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । शरीरको अपना मानना मूल दोष है, जिससे संपूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । जन्मना मरना हमारा धर्म नहीं है प्रत्युत शरीरका धर्म है ।

  शरीर मेरा नही है – अनंत ब्रह्माण्डोंमें तिनके जितनी वस्तु भी हमारी नही हैं फिर शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर संसारके व्यवहार (कर्तव्यपालन) के लिए अपना माना हुआ है । यह वास्तवमें अपना नही है । शरीर सर्वथा प्रकृति का है । शरीर पर हमारा कोई वश नहीं चलता । हम अपनी इच्छाके अनुसार शरीरको बदल नही सकते, बूढ़ेसे जवान तथा रोगी से निरोग नहीं बन सकते । जिस पर वश न चले उसको अपना मान लेना मूर्खता ही है ।

  शरीर मेरे लिए नही हैं – शरीर आदि वस्तुएँ संसारके काम आती हैं, हमारे काम नहीं ।शरीर केवल कर्म करनेका साधन है और कर्म केवल संसारके लिए ही होता है । शरीर परिवार, समाज, अथवा संसारकी सेवाके लिये है अपने लिये है ही नहीं । महिमा शरीरकी नही, प्रत्युत विवेककी है । आकृतिका नाम मनुष्य नहीं है प्रत्युत विवेकशक्तिका नाम मनुष्य है ।

यह है कि तुम शरीर नहीं हो , तुम आत्मा हो , एक दिन शरीर छोड़कर यहां से निकलोगे और परमात्मा कण-कण में हैं ,तुम इस शरीर में रहते हुए अंदर ही अंदर परमात्मा से जुडो ।
तुझ आत्मा और परमात्मा के बीच में किसी बिचौलिए, एजेंट , गुरु और किसी की जरूरत नहीं हैं ।
सिर्फ तुझ आत्मा को परमात्मा से प्रार्थना करने की जरूरत है ।
हे प्रभु, मुझे क्षमा कर, अपनी शरण में ले लें, इस शरीर रूपी साधन से जो तू चाहता है वह करवा लें और मुझे ऐसी दृष्टि प्रदान कर कि मैं शरीर से होते हुए को देखता रहूं बिना लेकिन किंतु परंतु किए बगैर और हर पल तुझे निहारता रहूं।

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