श्रवण एवं मनन रूपज्ञान

images 60

अग्निदेव कहते है – अब मैं संसाररूप अज्ञानजनित बंधन से छुटकारा पाने के लिये ‘ब्रह्मज्ञान’ का वर्णन करता हूँ | ‘ यह आत्मा परब्रह्म हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूँ |’ ऐसा निश्वय हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता हैं | घट आदि वस्तुओं की भान्ति यह देह दृश्य होने के कारण आत्मा नहीं हैं; क्योंकि सो जानेपर अथवा मृत्यु हो जानेपर यह बात निश्चितरूप से समझ में आ जाती है कि ‘देह से आत्मा भिन्न है’ | यदि देह ही आत्मा होता तो सोने या मरने के बाद भी पूर्ववत व्यवहार करता; (आत्मा के) ‘अविकारी’ आदि विशेषणों के समान विशेषण से युक्त निर्विकाररूप में प्रतीत होता | नेत्र आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि वे ‘करण’ हैं | यही हाल मन और बुद्धि का भी है | वे भी दीपक की भान्ति प्रकाश के ‘करण’ हैं, अत: आत्मा नहीं हो सकते | ‘प्राण’ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि सुषुप्तावस्था में उसपर जड़ता का प्रभाव रहता हैं | जाग्रत और स्वप्नावस्था में प्राण के साथ चैतन्य मिला-सा रहता है, इसलिये उसका [पृथक बोध नहीं होता, परन्तु सुषुप्तावस्था में प्राण विज्ञानरहित हैं – यह बात स्पष्टरूप से जानी जाती है | अतएव आत्मा इन्द्रिय आदि रूप नही हैं \ इन्द्रिय आदि आत्मा के करणमात्र है | अहंकार भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि देह की भान्ति वह भी आत्मा से पृथक उपलब्ध होता है | पूर्वोक्त देह आदि से भिन्न यह आत्मा सबके ह्दय में अन्तर्यामीरूप से स्थित है | यह रात में जलते हुए दीपक की भान्ति सबका द्रष्टा और भोक्ता हैं |
समाधि के आरम्भकाल में मुनि को इसप्रकार चिन्तन करना चाहिये –‘ब्रह्मसे आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जलसे प्रथ्वी तथा पृथ्वी से सूक्ष्म शरीर प्रकट हुआ है |’ अपंचीकृत भूतों से पंचीकृत भूतों की उत्पत्ति हुई है | फिर स्थूल शरीर का ध्यान करके ब्रह्म में उसके लय होने की भावना करे | पंचीकृत भुत तथा उनके कार्यों को ‘विराट’ कहते हैं | आत्मा का वह स्थूल शरीर अज्ञान से कल्पित हैं | इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता हैं, उसे धीर पुरुष ‘जागत-अवस्था’ मानते हैं | जाग्रत के अभिमानी आत्मा का नाम ‘विश्व’ हैं | ये (इन्द्रिय-विज्ञान, जाग्रत-अवस्था और उसके अभिमानी देवता) तीनों प्रणव की प्रथम मात्रा ‘अकारस्वरुप’ हैं | अपंचीकृत भुत और उनके कार्य को ‘लिंग’ कहा गया है | सत्रह तत्त्वों (दस इन्द्रिय, पंचतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि) –से युक्त जो आत्मा का सूक्ष्म शरीर हैं, जिसे ‘हिरण्यगर्भ’ नाम दिया गया हैं, उसीको ‘लिंग’ कहते हैं | जाग्रत-अवस्था के संस्कार से उत्पन्न विषयों की प्रतीति को ‘स्वप्न’ कहा गया है | उसका अभिमानी आत्मा ‘तैजस’ नामसे प्रसिद्ध हैं | वह जाग्रत के प्रपंच से पृथक तथा प्रणव की दूसरी मात्रा ‘उकाररूप’ है | स्थूल और सूक्ष्म – दोनों शरीरों का एक ही कारण हैं – ‘आत्मा’ | आभासयुक्त ज्ञान को ‘अध्याह्र्त ज्ञान’ कहते हैं | इन अवस्थाओं का साक्षी ‘ब्रह्म’ न सत हैं, न असत और न सदसतरूप ही है | वह न तो अवयवयुक्त हैं और न अवयव से रहित; न भिन्न हैं न अभिन्न; भिन्नाभिन्नरूप भी नहीं हैं | वह सर्वथा अनिर्वचनीय है | इस बंधनभुत संसार की सृष्टि करनेवाला भी वही हैं | ब्रह्म एक है और केवल ज्ञान से प्राप्त होता हैं; कर्मोद्वारा उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती ||

जब ब्राह्यज्ञान के साधनभूत इन्द्रियों का सर्वथा लय हो जाता है, केवल बुद्धि की ही स्थिति रहती हैं, उस अवस्था को ‘सुषुप्ति’ कहते हैं | ‘बुद्धि’ और ‘सुषुप्ति’ दोनों के अभिमानी आत्मा का नाम ‘प्राज्ञ’ है | ये तीनों ‘मकार’ एवं प्रणवरूप माने गये हैं | यह प्राज्ञ ही अकार, उकार और मकारस्वरुप हैं | ‘अहम’ पदका लक्ष्यार्थभुत चित्स्वरूप आत्मा इन जाग्रत और स्वप्न आदि अवस्थाओं का साक्षी हैं | उसमे अज्ञान और उसके कार्यभूत स्न्सारादिक बंधन नहीं हैं | मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य, आनंद एवं अद्वैतस्वरुप ब्रह्म हूँ | मैं ज्योतिर्मय परब्रह्म हूँ | सर्वथा मुक्त प्रणव (ॐ) वाच्य परमेश्वर हूँ | मैं ही ज्ञान एवं समाधिरूप ब्रह्म हूँ | बंधनका नाश करनेवाला भी मैं ही हूँ | चिरंतन, आनंदमय, सत्य, ज्ञान और अनंत आदि नामों से लक्षित परब्रह्म मैं ही हूँ | ‘यह आत्मा परब्रह्म हैं, वह ब्रह्म तुम हो’- इस प्रकार गुरुद्वारा बोध कराये जानेपर जीव यह अनुभव करता हैं कि मैं इस देहसे विलक्षण परब्रह्म हूँ | वह जो सूर्यमंडल में प्रकाशमय पुरुष हैं, वह मैं ही हूँ | मैं ही ॐकार तथा अखंड परमेश्वर हूँ | इसप्रकार ब्रह्म को जाननेवाला पुरुष इस असार संसार में मुक्त होकर ब्रह्मरूप हो जाता है ||



अग्निदेव कहते है – अब मैं संसाररूप अज्ञानजनित बंधन से छुटकारा पाने के लिये ‘ब्रह्मज्ञान’ का वर्णन करता हूँ | ‘ यह आत्मा परब्रह्म हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूँ |’ ऐसा निश्वय हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता हैं | घट आदि वस्तुओं की भान्ति यह देह दृश्य होने के कारण आत्मा नहीं हैं; क्योंकि सो जानेपर अथवा मृत्यु हो जानेपर यह बात निश्चितरूप से समझ में आ जाती है कि ‘देह से आत्मा भिन्न है’ | यदि देह ही आत्मा होता तो सोने या मरने के बाद भी पूर्ववत व्यवहार करता; (आत्मा के) ‘अविकारी’ आदि विशेषणों के समान विशेषण से युक्त निर्विकाररूप में प्रतीत होता | नेत्र आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि वे ‘करण’ हैं | यही हाल मन और बुद्धि का भी है | वे भी दीपक की भान्ति प्रकाश के ‘करण’ हैं, अत: आत्मा नहीं हो सकते | ‘प्राण’ भी आत्मा नहीं है; क्योंकि सुषुप्तावस्था में उसपर जड़ता का प्रभाव रहता हैं | जाग्रत और स्वप्नावस्था में प्राण के साथ चैतन्य मिला-सा रहता है, इसलिये उसका [पृथक बोध नहीं होता, परन्तु सुषुप्तावस्था में प्राण विज्ञानरहित हैं – यह बात स्पष्टरूप से जानी जाती है | अतएव आत्मा इन्द्रिय आदि रूप नही हैं \ इन्द्रिय आदि आत्मा के करणमात्र है | अहंकार भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि देह की भान्ति वह भी आत्मा से पृथक उपलब्ध होता है | पूर्वोक्त देह आदि से भिन्न यह आत्मा सबके ह्दय में अन्तर्यामीरूप से स्थित है | यह रात में जलते हुए दीपक की भान्ति सबका द्रष्टा और भोक्ता हैं | समाधि के आरम्भकाल में मुनि को इसप्रकार चिन्तन करना चाहिये -‘ब्रह्मसे आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जलसे प्रथ्वी तथा पृथ्वी से सूक्ष्म शरीर प्रकट हुआ है |’ अपंचीकृत भूतों से पंचीकृत भूतों की उत्पत्ति हुई है | फिर स्थूल शरीर का ध्यान करके ब्रह्म में उसके लय होने की भावना करे | पंचीकृत भुत तथा उनके कार्यों को ‘विराट’ कहते हैं | आत्मा का वह स्थूल शरीर अज्ञान से कल्पित हैं | इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता हैं, उसे धीर पुरुष ‘जागत-अवस्था’ मानते हैं | जाग्रत के अभिमानी आत्मा का नाम ‘विश्व’ हैं | ये (इन्द्रिय-विज्ञान, जाग्रत-अवस्था और उसके अभिमानी देवता) तीनों प्रणव की प्रथम मात्रा ‘अकारस्वरुप’ हैं | अपंचीकृत भुत और उनके कार्य को ‘लिंग’ कहा गया है | सत्रह तत्त्वों (दस इन्द्रिय, पंचतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि) -से युक्त जो आत्मा का सूक्ष्म शरीर हैं, जिसे ‘हिरण्यगर्भ’ नाम दिया गया हैं, उसीको ‘लिंग’ कहते हैं | जाग्रत-अवस्था के संस्कार से उत्पन्न विषयों की प्रतीति को ‘स्वप्न’ कहा गया है | उसका अभिमानी आत्मा ‘तैजस’ नामसे प्रसिद्ध हैं | वह जाग्रत के प्रपंच से पृथक तथा प्रणव की दूसरी मात्रा ‘उकाररूप’ है | स्थूल और सूक्ष्म – दोनों शरीरों का एक ही कारण हैं – ‘आत्मा’ | आभासयुक्त ज्ञान को ‘अध्याह्र्त ज्ञान’ कहते हैं | इन अवस्थाओं का साक्षी ‘ब्रह्म’ न सत हैं, न असत और न सदसतरूप ही है | वह न तो अवयवयुक्त हैं और न अवयव से रहित; न भिन्न हैं न अभिन्न; भिन्नाभिन्नरूप भी नहीं हैं | वह सर्वथा अनिर्वचनीय है | इस बंधनभुत संसार की सृष्टि करनेवाला भी वही हैं | ब्रह्म एक है और केवल ज्ञान से प्राप्त होता हैं; कर्मोद्वारा उसकी उपलब्धि नहीं हो सकती ||

When the senses, which are the means of Brahmanical knowledge, are completely rhythmic, leaving only the state of intelligence, that state is called ‘Sushupti’ The name of the proud soul of both ‘intelligence’ and ‘sleep’ is ‘wise’ These three are considered to be ‘Makara’ and Pranava forms This Prajna is the form of Akara, Ukara and Makara The soul, the target of the term ‘I’, the mind-form, witnesses these waking and dreaming states He does not have the bonds of ignorance and its functional sensations I am the eternal, pure, Buddha, free, true, blissful and non-dual Brahman I am the luminous Supreme Being I am the completely free Pranava (Om) spoken God I am the Brahman in the form of knowledge and trance I am also the destroyer of bondage I am the Supreme Being, who is marked by the names of Eternal, Blissful, Truth, Knowledge and Infinity ‘This soul is Parabrahma, that Brahma is you’- ​​thus enlightened by the Guru, the being feels that I am Parabrahma distinct from this body He who is the luminous man in the solar system is I I am Omkar and the unbroken God Thus the man who knows Brahman is liberated in this immaterial world and becomes Brahma-form ||

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

One Response

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *