यह लौकिकता से अलौकिकता की यात्रा है,

जय श्री कृष्ण जी
यह लौकिकता से अलौकिकता की यात्रा है, एक लौकिक उदाहरण के साथ।

बिधि- बिधान के साथ पाणिग्रहण करते हैं
जब एक वंर- कन्या एक दूजे को वरंते है तो, एक बार ही जयमाल पहनाते है, नित्य थोड़ी पहनाते है ?

और सात सात जन्मों के उस पवित्र बंधन को वरं वधु दोनों स्वीकार कर एक दूसरे के हो जाते है।

ठीक उसी प्रकार जब भक्ति भगवान को वरंती है तो,बस भगवान की हो जाती है,और भगवान उनके हो जाते हैं।

यही प्रेम बंधन भक्त भगवान के प्रेम को अमर बनाता है,और कुछ अलग से नहीं करना रहता है, यह आत्मा रूपी कन्या,और परमात्मा रूपी वरं का पाणिग्रहण संस्कार है या यूं कहें मिलन है।

मानव जीवन के सभी कर्म करते हुए मनुष्य,उन्हें ईश्वर को सौंपता चले बस।

ग्रहस्थ आश्रम से बड़ा कोई आश्रम है ही नहीं,जो सबकी झोली भरता है, वो ही सबसे ऊंचा सच्चा साधु है, संन्यासी है।
जय श्री राधे राधे जी।

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