| श्री हरि: ||
गत पोस्ट से आगे …………
जब तक साक्षात परमात्मा की प्राप्ति न हो जाय, तब तक पुस्तकों के आधार पर महात्माओं के बताये अनुसार ही परमात्मा का ध्यान किया जाय | मन से ही सब क्रिया होती है, मन से ही भगवान् के साथ सब प्रकार रमण करें | मनन कहो चाहे क्रीड़ा कहो सब प्रकार सब प्रकार की क्रिया क्रीड़ा ही कही जाती है | मन से ही उनके चरणों का स्पर्श करने से ही शरीर प्रेमोन्मत हो जाय, रोमांच होने लगे | ऐसे ही मन से ही भगवान से वार्तालाप करे | वार्तालाप करते समय मानो भगवान् से ही बात कर रहा हूँ | भगवान् जो कुछ बोल रहे हैं वह मानो मैं सुन रहा हूँ | वहाँ जो कुछ होता है मन से ही होता है | भगवान् की वाणी में अलौकिकता दीखती है | मन से ही मानो भगवान् का दर्शन एवं स्पर्श कर रहा हूँ | सब क्रिया मन से ही हो रही है | इस प्रकार के रमण का फल यह होता है कि भगवान् साक्षात मिल जाते हैं |
‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ – इस प्रकार जो करता है उनको मैं यह बुद्धियोग देता हूँ | जिससे वे मेरे को ही प्राप्त हो जाते हैं | भगवान् के प्राप्त होने के बाद जो कुछ होता है स्वत: ही हो जाता है | उस समय की जितनी बात बतायी जाती है, एकान्त में मन से उस तरह करने से विशेष लाभ होता है | भगवान् में जब श्रद्धा हो जाती है उस समय जब भगवान् की बात कहे तो बहुत प्यारी लगती है | कोई अपना अतिशय प्रेमी कलकता में वास करता है | कोई आदमी कलकता से आये तो उससे पहले उस प्रेमी की बात पूछने की मन में रहती है | इससे मालूम होता है कि इसकी बड़ी भारी प्रीति है | भगवान् का भक्त है, उनसे मिलकर भगवान् की बात पूछना अतिशय प्रेम है | कानों से भगवान् का नाम सुन ले तो सुनकर मुग्ध हो जाय |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *जन्म-मरण से छुटकारा* पुस्तक कोड १७९० से |
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|| श्री हरि: ||
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[2]भगवान् से मानसिक
रमण की विशेषता
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