भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 2 )

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गत पोस्ट से आगे ………….
तदन्तर संसार में जितने भक्त कहलाते थे, उनके पास नारदजी गये और बोले – भक्तजी ! भगवान् की अँगुली में चोट लग गयी है, उसके औषध के रूप में भक्त के खून की बड़ी आवश्यकता है, यदि अपना खून दे दें तो उसमे पट्टी भिगोकर भगवान् की अँगुली पर बाँध दिया जाय जिससे वे अच्छे हो जायँ | उन्होंने कहा कि नारदजी ! बात तो ठीक है, किन्तु हम ऐसे भक्त नहीं हैं, जिससे हमारे खून की पट्टी से भगवान को आराम हो जाय | हम तो साधारण आदमी हैं | नारदजी जहाँ-जहाँ गये किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ कहा, किंतु कहीं भी भक्त के खून की व्यवस्था नहीं हुई | उस समय नारद को याद आयी कि भगवान् कहते थे कि गोपियाँ सबसे बढ़कर मेरी भक्त हैं तो व्रज में चलूँ | घुमते-घुमते वे व्रज में आ गये और गोपियों के सामने जब यह प्रस्ताव पेश किया तो गोपियाँ बहुत खुश हुईं, बोली – नारद बाबा ! भगवान् की अँगुली में चोट लग गयी तो क्या भक्त के खून से आराम हो सकता है ? यदि हो सकता है तो नारद ! तेरे पास क्या कोई खून रखने के लिये बरतन है ? नारद बोले – यह कमण्डलु है | गोपियों ने नारद से कमण्डलु लेकर अपनी जाँघें चीर-चीरकर उस कमण्डलु को खून से भर दिया और कहा – नारदजी ! हम्मे तो ऐसी भक्ति तो नहीं है, पर हमारा खून यदि भगवान् के काम आ जाय तो हमारा जीवन सफल हो जाय | नारदजी खून भरा कमण्डलु लेकर वहाँ आये | भगवान् ने पूछा – नारदजी ! इतना खून कहाँ से लाये ? यह तुम्हें कहाँ मिला ? कैसे मिला ? नारद बोले महाराज ! मैं बहुत भटका पर कहीं खून नहीं मिला | यह खून गोपियों के पास मिला | मैंने जब उनसे खून की बात की तो उन्होंने बड़े हर्ष के साथ हँसते-हँसते अपनी जाँघ काट-काटकर खून देना आरम्भ किया, जिससे मेरा कमण्डलु भर गया | भगवान् ने कहा – नारद ! अब तुम्हारी समझ में आ गया होगा कि सबसे बढ़कर हमारी भक्ति किसमें है ? नारद ने कहा – महाराज ! अब मेरी समझ में आ गया | जब आपने कहा था कि सबसे बढ़कर गोपियाँ हमारी भक्त हैं, तब तो समझ में नहीं आया था | महाराज ! जब भक्त का खून लाने के लिये मैं यहाँ से निकला, तो जहाँ गया वहीँ सूखा जवाब मिला, किसी ने नहीं दिया |
श्रीकृष्ण बोले – नारद ! तू भटकता क्यों फिरा | क्या तू मेरा भक्त नहीं है ? तुमको यह बात नहीं सूझी कि मैं क्यों भटकूँ ? इनकी अँगुली में चोट लगी है तो अभी अपनी जाँघ काटकर अपना खून दे दूँ, जैसे गोपियों ने दिया | तुम भी तो दे सकते थे | नारद बोले – हाँ, महाराज ! यह बात उस समय मेरे ह्रदय में ही नहीं आयी | कृष्ण बोले – गोपियों के कैसे समझ में आई ? नारद बोले – हाँ महाराज ! अब मेरी समझ में आ गयी, मैं तो झूठा ही भक्ति का अभिमान रखता हूँ | आपकी भक्त तो गोपियाँ ही हैं |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |

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