भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 5 )

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गत पोस्ट से आगे ………….
सखियों ने कहा – अभी नहीं, अभी तो हमारी रहस्य की बात हो रही है | यदि वे आ जायँगे तो सब बंद हो जायँगी | जाओ कह दो कि अभी थोड़ी देर वहाँ ठहरें | गोपी ने आकर विनयपूर्वक कहा कि अभी राधारानी की आज्ञा नहीं है | वे कहती हैं कि अभी थोड़ी देर वहीँ प्रतीक्षा करें, क्योंकि यहाँ अभी परस्पर में जो रहस्य की बातें हो रही हैं, वे आपके आने से बंद हो जायँगी | श्रीकृष्ण ने कहा – बंद क्यों हो जायँगी ? बोली – आपके गुणों की बातें, आपके प्रभाव की बातें, आपके विषय की बातें, आपके सम्मुख करने में लज्जा होती है, मन में संकोच होता है | भगवान् ने कहा – जहाँ प्रेम हो वहाँ संकोच नहीं करना चाहिये |
सखी ने जाकर कहा कि वे कहते हैं कि ‘जहाँ प्रेम हो वहाँ संकोच नहीं करना चाहिये | हमारे सम्मुख भी करें तो क्या आपति है | प्रेम में संकोच, भय, मान, प्रतिष्ठा – ये रहते ही नहीं तो तुम्हारे में कहाँ से आ गये ?’ तब वह फिर गयी और वहाँ से यह आदेश आया कि नहीं, अभी थोड़ी देर बाहर प्रतीक्षा करें | भगवान् ने यह कहकर उतर दिया कि हम ज्यादा प्रतीक्षा नहीं कर सकते, फिर भगवान् भीतर चले गये, उन्हें सब गोपियाँ देखकर मुग्ध हो गयीं और भगवान् ने कहा कि मेरे आने से तुम्हें लज्जा होती है ? भय होता है ? वे बोलीं – नहीं | भगवान् ने कहा – मुझे तो ऐसा ही बतलाया गया था | राधारानी बोलीं – वह तो विनोद की बात थी | कृष्ण ने कहा – फिर तुम सब हमारे सामने बातें क्यों नहीं करतीं, जो बात हो हमारे सामने करो | वे बोलीं – बहुत-सी बातें तो आपके सामने ही किया करती हैं, कोई बातें ऐसी भी होती हैं कि आपकी अनुपस्थिति में हमको ज्यादा आनन्द आता है | ऐसी कौन-सी बात है ? वे बातें है कि आपके ऊपर दोष लगाया जाता है |
कृष्ण ने कहा- तब तुम्हे भय क्यों हो गया ? दोष लगाओ तो हमारे सम्मुख लगाओ, हम दोष सुनकर नाराज नहीं होंगे | वे बोलीं – महाराज – हम आपके ऊपर यही दोष लगाया करती हैं कि आपमें दया नहीं है, आप हम सबको तरसाते रहते हैं, चाहे हम तरसती-तरसती मर जायँ, लेकिन फिर भी आपको दया नही आती | तरसाने में आपको क्या मजा आता है, इस बात को हम नहीं समझतीं | इसलिये हम कभी-कभी जब आपकी निन्दा करने बैठती हैं तो आपको बाहर रोक देती हैं | कृष्ण बोले – नहीं, नहीं, मेरी निन्दा तुम हमारे सम्मुख करो | हम नाराज नहीं होंगे | इसलिये तुम्हें न भय करना चाहिये, न संकोच | संकोच तो करना ही नहीं चाहिये | संकोच किस बात का ? वे बोलीं – आपके गुणों की बात आपके सम्मुख कहने में थोड़ा संकोच होता है, पीछे नहीं होता |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |
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|| श्री हरि: ||
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