भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 6 )

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गत पोस्ट से आगे ………….
कृष्ण बोले – सम्मुख जो संकोच होता है यही प्रेम की कमी है | संकोच होना ही नहीं चाहिये | जहाँ प्रेम है वहाँ आदर, सत्कार, भय और संकोच – ये सब कलंक हैं | जहाँ अपना विशुद्ध प्रेम है, अनन्य प्रेम है, वहाँ यह सब होना ही नहीं चाहिये | प्रेम के तत्व, रहस्य को जो स्त्री या पुरुष समझ जाता है वहाँ से भय, संकोच, आदर और सत्कार विदा हो जाते हैं | जब साधक सारे भावों से ऊपर उठ जाता है, तब वहाँ फिर यह सब नहीं होता | सारे भाव क्या ? जैसे माधुर्यभाव, दासभाव, सख्यभाव, वात्सल्यभाव, शान्तभाव | माधुर्यभाव के भी दो रूप होते हैं, एक स्वकीय और दूसरा परकीय | अपनी धर्मपत्नी का माधुर्य प्रेम स्वकीय है और दुसरे की स्त्री का माधुर्य प्रेम परकीय है | उसमे फर्क क्या है ? उसमे फर्क यह है कि अपनी स्त्री के ह्रदय में काम-उद्दीपन हो जाय या पुरुष के ह्रदय में काम-उद्दीपन हो जाय तो उसमे दोष नहीं है, क्योंकि वह अपनी धर्मपत्नी है | उसके साथ सहवास करने में भी दोष नहीं है, किन्तु दूसरे की स्त्री है और उसके ह्रदय में मधुर प्रेम है, विशुद्ध प्रेम में यदि कामवासना हो जाय तो कामवासना कलंक है | सहवास की तो बात ही दूर है, वहाँ कामवासना भी कलंक है | जहाँ प्रेम होता है, वहाँ कोई भी दोष नहीं रहता | उन सबका तो विशुद्ध प्रेम था, परन्तु उसमे संकोच, भय, आदर, सत्कार आ जाता है; जैसे कोई सखी जो दासी थी, वह दासभाव रखती थी | उसके मनमे स्वामी का भय हो जाता, संकोच भी होता | इसी प्रकार किसी का सख्यभाव रहता है तो उसमे कुछ-न-कुछ लज्जा रहती है | और जब सब भावों से ऊपर उठ जाता है तो ये दोष वहाँ नहीं आते, साथ में कई भाव रहते हैं, जब भावों से ऊपर उठ जाता है तो उसके सारे भाव उसके अन्तर्गत होते हुए उन भावों के कारण जो कुछ कमी समझी जाती है वह आगे जाकर मिट जाती है | दासभाव बहुत ऊँचा है | इसी प्रकार सख्यभाव भी ऊँचा है |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |
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