भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 7 )

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गत पोस्ट से आगे ………….
हनुमानजी का श्रीरामचन्द्रजी में दास्यभाव था, परंतु अर्जुन का श्रीकृष्ण में दास्यभाव भी था तथा सख्यबाव भी | भगवान् ने खुद कहा है कि ‘भक्तोअसि में सखा चेति’ | अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण से कहा है मैंने आपको अपना सखा मानकर आपके साथ आसनपर, शय्यापर और आपके साथ जो कुछ भी व्यवहार किया है, तिरस्कार किया है उसके लिये मैं क्षमा-प्रार्थना करता हूँ | यह भी अर्जुन के लिये उच्च भाव नहीं है | उद्धव का दास्यभाव और सख्यभाव भी | जितने गोप-ग्वाले थे, उन सब का सख्यभाव था और गोपियाँ उनकी सखियाँ थीं | इनका सख्यभाव भी था और बहुतों का माधुर्य प्रेम भी था और श्रीराधाजी सब भावों से उठी हुई थीं, सारे भाव उनमे समाविष्ट थे, वह खुद सारे भावों से अतीत थीं | इस प्रकार हम लोगों को भी भाग्वान के साथ गोपियों के भाव के अनुसार प्रेम करना चाहिये | यह नही समझना चाहिये कि सखियों का जो प्रेम है वह स्त्रियों का ही हो सकता है पुरुषों का नहीं, ऐसा नहीं है, क्योंकि वह तो भाव है, भाव तो सबका ही हो सकता है, स्त्रीका भी हो सकता है, पुरुष का भी हो सकता है | पुरुष सखा होकर रहता है तो स्त्री सखी होकर रहती है | पुरुष दास होकर रहता है तो स्त्री दासी होकर रहती है | पुरुष पिता होकर रहता है तो स्त्री माता होकर रहती है | माता का भी वात्सल्यभाव है और पिता का भी वात्सल्यभाव है |
शान्तभाव है साधन के समय दवैतभाव और उसका फल निर्गुण-निराकार ब्रह्म में पर्यवसान यानी समाप्ति | साधन-काल में तो दवैत और फल में सच्चिदानन्द परमात्मा की (अद्वैत की) प्राप्ति | निर्गुण-निराकार ब्रह्म में जो भाव है वह शान्तभाव है | सगुण की भक्ति करते हुए भी जो इच्छा उस भाव की है वह भी शान्त-भाव है, पुरुष भी हर एक भाव से भगवान् से प्रेम रख सकता है, स्त्रियाँ भी रख सकती हैं | हम लोगों का भगवान् में पवित्र भाव होना चाहिये और अनन्य प्रेम, विशुद्ध प्रेम होना चाहिये | इसका फल भागवान की साक्षात प्राप्ति है और भगवान् की प्राप्तिरूप फल को भी नहीं चाहना चाहिये | फिर भगवान् तो मना करने पर भी वहाँ पहुँचते हैं | मिलने की इच्छा नहीं रखने पर भगवान् और जल्दी आते हैं यह उच्च कोटि का भाव है पर इसके अंदर भी छिपी हुई कामना है |
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शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |
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|| श्री हरि: ||
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