गुरु अमरदास जी की अमर गाथा

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अमिअ द्रिसटि सुभ करै, हरै अध पाप सकल मल।।
काम क्रोध अरू लोभ मोह, वसि करै सभै भलि।।
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अर्थात् गुरु देव जिस मनुष्य के ऊपर अमृतमयी दृष्टि डालते उसके सब पाप और विकार दूर हो जाते। काम, क्रोध, लोभ, मोह सब बस में आ जाने से व्यक्ति का भला ही भला होता है।
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यूं तो यह पद हर गुरू के लिए कहा जा सकता है, किन्तु सहार नामक एक विद्वान ने यह पद विशेष रूप से सिक्खों के द्वितीय गुरू अंगद देव जी के लिए लिखा था।
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गुरू नानक देव जी के बाद गुरूपद संभालने वाले अंगददेव जी ही पंजाबी लिपि गुरुमुखी के जन्मदाता हैं।
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गुरु अंगद देव जी का जन्म फिरोजपुर, पंजाब के हरीके नामक गांव में 31 मार्च, सन् 1504 को हुआ था।
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पिता श्री फेरू जी एक व्यापारी थे और उनकी माता जी का नाम माता रामो जी था।
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गुरु अंगद देव जी की शादी खडूर निवासी श्री देवी चंद क्षत्री की सपुत्री खीवी जी के साथ संवत 1576 में हुई और उनके दो पुत्र दासू जी व दातू जी और दो सुपुत्रियाँ अमरो जी व अनोखी जी थे।
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गुरू अंगद देव जी 7 सितम्बर, 1539 से 28 मार्च, 1552 तक गुरू पद पर रहे |
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तीसरे गुरु अमरदास जी एक वैष्णव परिवार में जन्मे थे और खेती तथा व्यापार से अपनी जीविका चलाते थे।
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एक बार इन्हें गुरु नानक देव जी का पद सुनने को मिला। उससे प्रभावित होकर अमरदास जी, गुरु अंगददेव जी के पास खडूर साहब पहुंचे और उनके शिष्य बन गए।
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उस समय उनकी उम्र ६३ वर्ष थी | वे बड़ी निष्ठा से गुरु अंगद देव जी की सेवा में जुट गए।
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गजब के परिश्रमी थे, अमरदास जी.. सवा प्रहर रात रहते ही उठ जाते और गुरूजी के स्नान हेतु ताजे पानी की गागर लाते, स्नान उपरांत उनके वस्त्र धोकर सुखाते, उसके बाद लंगर की तैयारी में जुट जाते और जब प्रसाद तैयार हो जाता, तो पहले गुरू जी को अर्पित करते।
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गर्मियों में संगतों को ठंडा जल पिलाते और पंखे की सेवा करते। इस प्रकार रात दिन सेवा में जुटे रहे।
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एक दिन जब रात को गागर कंधे पर लेकर आ रहे थे, तब एक जुलाहे के घर के बाहर लगे किल्ले से ठोकर खाकर गिर पड़े और पानी से भरी गागर भी नीचे गिर गई।
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मकान के अन्दर से जुलाहे ने ने आवाज लगाई कौन है, इस पर जुलाहे की पत्नी ने कहा, होगा अमरु निठल्ला और कौन हो सकता है इस समय।
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अमरदास जी ने कोई जबाब नहीं दिया, चुपचाप दुबारा पानी लाये और नित्य के अनुसार गुरूजी को स्नान करवाया।
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बाद में जब गुरू जी को इस घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने प्यार से अमरदास जी को गले लगा लिया और सबसे कहा कि अमरदास निठल्ले नहीं ये तो बेसहारों के सहारा, पीरों के पीर समर्थ पुरुष हैं।
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और इसके बाद गुरू अंगददेव जी ने संगत के सामने स्पष्ट कर दिया कि, उनके बाद अमरदास जी ही गुरु गद्दी संभालेंगे।
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किन्तु इस घोषणा के बाद गुरू अंगददेव जी के सुपुत्र दासू तथा दातू अमरदास जी से ईर्ष्या करने लगे।
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यह देखकर गुरूजी ने इन्हें अपने घर बासरके जाने का आदेश दे दिया।
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लेकिन कुछ ही दिनों बाद एक क्षत्रिय गोंदा मरवाहा गुरू अंगद देव जी के पास आकर बोला कि उसकी इच्छा व्यास नदी के किनारे अपने नाम से एक गाँव बसाने की है..
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लेकिन लोगों का मानना है कि उस स्थान पर प्रेत बाधा है, कृपया आप अपने किसी साहबजादे को बहां बसने भेज दें, ताकि लोगों के दिल से डर निकल जाए।
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गोंदा की प्रार्थना सुनकर गुरू जी ने अपने दोनों पुत्रों से बहां जाने को कहा, किन्तु उनमें से कोई भी तैयार नहीं हुआ।
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इस पर गुरू अंगद देव जी ने अमरदास जी को बासरके से बुलाकर गोंदा के साथ जाने को कहा।
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अमरदास जी तुरंत गुरू आज्ञा मानकर उसके साथ चल्र गए और वह गाँव गोईन्दवाल बस गया।
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गोइंदवाल से प्रतिदिन अमरदास जी लंगर तैयार होने के पूर्व गुरू जी के पास खडूर साहब पहुँच जाते और गुरूजी को प्रसाद खिलाकर और लंगर में सेवा कर वापस गोईन्दवाल पहुँचते।
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रास्ते में आते जाते समय जिस स्थान पर विश्राम करते थे, उस काबे गाँव को अब हंसावाल के नाम से जाना जाता है और वहां दमदमा साहब गुरूद्वारा है।
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गुरू अंगददेव जी के बाद जब उनकी इच्छानुसार पिचहत्तर वर्षीय गुरू अमरदास जी ने गुरू गद्दी संभाली तो..
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गुस्से में भरे हुए अंगद देव जी के साहबजादे दातू जी ने आकर इनकी पीठ में लात मारी और कहा, यह गद्दी हमारे पिताजी की थी, जिस पर हमारा हक़ है, तुम सेवा करते करते गद्दी पर कैसे आ बैठे ?
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गुरू जी ने दातू जी के पैर पकड़कर कहा, मेरे सूखे शरीर की हड्डियों से आपके कोमल चरणों में चोट आ गई होगी, मुझे क्षमा करें।
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उसके बाद गुरू अमरदास जी उसी रात अपने गाँव बासरके चले गए और एक कोठे में एकांतवास धारण कर लिया।
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दरबाजे के बाहर लिख दिया कि जो कोई इस दरबाजे को खोलेगा, वो गुरू का देनदार होगा।
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इधर गोईन्दवाल से गुरू जी के चले जाने के बाद दातू जी गद्दी लगाकर बैठ तो गए, लेकिन किसी ने उन्हें मान सम्मान न दिया तो वह दो तीन दिन बाद ही निराश होकर खडूर चले गए।
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इसके कुछ दिन बाद बाबा बुड्डा जी के नेतृत्व में संगतें उत्साह के साथ गुरू अमरदास जी को लेने बासरके पहुंची।
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दरबाजे पर लिखा गुरू जी का हुकुम पढने के बाद बाबा बुड्डा सिंह ने मकान में पीछे से सेंध लगाई व इस प्रकार नया रास्ता बनाकर संगत के लोग अन्दर पहुंचे और गुरूजी को विनती कर गोइंदवाल लेकर आये।
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वह कमरा “कोठा सन्न साहब” के नाम से जाना जाता है।
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गुरु अमरदास जी के मार्गदर्शन में आगे चलकर गोइंदवाल शहर सिक्‍ख अध्‍ययन का केंद्र बना।
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गुरु अमरदास जी पंजाब को 22 सिक्‍ख प्रांतों में बांटने की अपनी योजना तथा धर्म प्रचारकों को बाहर भेजने के लिए प्रसिद्ध हुए। वह अपनी बुद्धिमत्‍ता तथा धर्मपरायणता के लिए बहुत सम्‍मानित थे।
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गुरु अमरदास जी को उनके समाज सुधार के कार्यों के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने उस समय समाज में प्रचलित सती प्रथा का प्रबल विरोध किया, और अपने अनुयायियों के लिए इस प्रथा को मानना निषिद्ध कर दिया।
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गुरू जी ने विधवा विवाह और अंतर्जातीय विवाहों को बढावा दिया, साथ ही महिलाओं को पर्दा प्रथा त्यागने के लिए कहा।
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गुरु अमरदास ने समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकाण्डों में फंसे समाज को सही दिशा दिखाने का प्रयास किया।
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उन्होंने लोगों को बेहद ही सरल भाषा में समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं, सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं, फिर ईश्वर अपनी संतानों में भेद कैसे कर सकता है।
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ऐसा नहीं कि उन्होंने यह बातें सिर्फ उपदेशात्मक रुप में कही हों, उन्होंने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बनकर सामाजिक सद्भाव की मिसाल क़ायम की।
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छूत-अछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिये लंगर परम्परा चलाई, जहाँ कथित अछूत लोग, जिनके सामीप्य से लोग बचने की कोशिश करते थे, उन्हीं उच्च जाति वालों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे।
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एक बार मुग़ल शंहशाह अकबर ने जब यह सुना कि गुरू के लंगर में बिना उंच नीच के भेद के सब लोग साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं, तो उसे भरोसा ही नहीं हुआ, और वह स्वयं यह दृश्य देखने बहां पहुंचा।
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उस समय के भेदभाव से ग्रस्त समाज में यह नजारा देखकर वह अत्यंत प्रभावित हुआ और झवाल परगने की पांच सौ बीघा जमीन का पट्टा जागीर के तौर पर गुरूजी के नाम कर दिया।
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तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु जी ने अपने क्रांतिकारी क़दमों से एक ऐसे भाईचारे की नींव रखी, जिसमें धर्म तथा जाति का भेदभाव बेमानी था।
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अमरदास जी के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहीत हैं। इनकी एक प्रसिद्ध रचना ‘आनंद’ है, जो उत्सवों में गाई जाती है।
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गुरूजी ने ही सामाजिक मेलमिलाप बढाने की द्रष्टि से बैसाखी पर्व का आयोजन प्रारम्भ करवाया।
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इन्हीं के आदेश पर इनके दामाद रामदास जी ने अमृतसर के निकट ‘संतोषसर’ नाम का तालाब खुदवाया था, जो अब गुरु अमरदास के नाम पर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध है।
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साभार :- क्रांतिदूत
Bhakti Kathayen भक्ति कथायें.. ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

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