गुरु की महिमा

स्वामी विवेकानंद एक बार एक रेलवे स्टेशन पर बैठे थे उनका अयाचक (ऐसा व्रत जिसमें किसी से मांग कर भोजन नहीं किया जाता) व्रत था। वह व्रत में किसी से कुछ मांग भी नहीं सकते थे। एक व्यक्ति उन्हें चिढ़ाने के लहजे से उनके सामने खाना खा रहा था।

स्वामी जी दो दिन से भूखे थे और वह व्यक्ति कई तरह के पकवान खा रहा था और बोलता जा रहा था कि बहुत बढ़िया मिठाई है। विवेकानंद ध्यान की स्थिति में थें और अपने गुरुदेव को याद कर रहे थे।

वह मन ही मन में बोल रहे थे कि गुरुदेव आपने जाे सीख दी है उससे अभी भी मेरे मन में कोई दुख नहीं है। ऐसा कहते विवेकानंद शांत बैठे थे। दोपहर का समय था। उसी नगर में एक सेठ को भगवान राम ने दर्शन दिए और कहा कि रेलवे स्टेशन पर मेरा भक्त एक संत आया है उसे भोजन करा कर आओ उसका अयाचक व्रत है जिसमें किसी से कुछ मांग कर खाना नहीं खाया जाता है तो आप जाओ और भोजन करा कर आओ।

सेठ ने सोचा यह महज कल्पना है। दोपहर का समय था सेठ फिर से करवट बदल कर सो गया। भगवान ने दाेबारा दर्शन दिए और सेठ से कहा कि तुम मेरा व्रत रखते और तुम मेरा इतना सा भी काम नहीं करोगे। जाओ और संत को भोजन करा कर आओ।

तब सेठ सीधा विवेकानंद के पास पहुंच गया और वह उनसे बोला कि मेें आपके लिए भोजन लाया हूं। सेठ बोला में आपको प्रणाम करना चाहता हूं कि ईश्वर ने मुझे सपने में कभी दर्शन नहीं दिए आपके कारण मुझे रामजी के दर्शन सपने में हो गए इसलिए में आपको प्रणाम कर रहा हूं।

विवेकानंद की आंख में आंसू आ गए। कि मैनें याद तो मेरे गुरुदेव को किया था। गुरुदेव और ईश्वर की कैसी महिमा है।

स्वामी विवेकानंद की आंख के आंसू रुक नहीं रहे थे। तब उन्हें लगा कि गुरु ही ईश्वर हैं। गुरु का स्थान ईश्वर से बड़ा होता है क्योंकि ईश्वर भी भगवान राम और कृष्ण अवतार में गुरु की शरण में गए हैं।

लेकिन गुरु कौन?
वही जो भगवान से मिला दे।

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