[5]हनुमानजी की आत्मकथा

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(बचपन में मेरी माँ मुझे रामकथा सुनाती थीं – हनुमान)

कल्प भेद हरि चरित सुहाये…
(रामचरितमानस)

चलो गोवर्धन हरि जी ! “गिरधारी” को वहीं तलहटी में बैठ कर याद करेंगे !

नही गौरांगी ! रहने दो… मैं इन दिनों थोड़ा हनुमत आराधना में अपना समय बिता रहा हूँ… अध्ययन और कुछ साधना भी कर रहा हूँ ।

हरि जी ! आप भी ना !…वहीं गिरिराज जी की तलहटी में बैठेंगे और “गिरिधारी” के ऊपर कुछ चर्चा करेंगे ना ।

गौरांगी कई दिनों के बाद आज जिद्द कर रही थी…गिरिधारी कृष्ण हैं तो गिरिधारी हनुमान भी हैं… इन दोनों को ही गिरधारी कहा है… क्यों कि दोनों के ही हाथों में गिरि हैं… यानि पर्वत

पर मैं तो इन दिनों हनुमान जी की आराधना में हूँ… गौरांगी से मैंने कहा ।

हरि जी ! चलो ना… हैं ।

मैं थोड़ा स्तब्ध हुआ… गौरांगी की बातों को मैंने अब समझा…

हँसते हुए बोली… आपके बड़े भाई हैं हनुमान जी… तो मेरे भी बड़े भाई हैं… चलो !

बड़े प्रेम से मुझे गाड़ी में बैठाया था गौरांगी ने… फिर स्वयं ही ड्राइविंग करके…

कल के विचार में क्या लिखोगे ? भरत जी को अब आगे क्या सुनायेंगे हनुमान जी… अपनी आत्मकथा में ?

गोवर्धन में पहुँच कर… पूजा अर्चना करके… गिरिराज की तलहटी में बैठ गए थे हम दोनों… तब मुझ से पूछा था गौरांगी ने ।

माँ अंजनी अपनी प्यारे लाल हनुमान को “राम कथा” सुनाती हैं…

मैंने कहा ।

क्या ? …राम कथा ? पर हनुमान तो अभी बाल्यावस्था में ही हैं… फिर इनके बिना राम कथा कैसे ?

मैं समझी नही… गौरांगी का प्रश्न सही था ।

रामावतार अनन्त बार हो चुका है… मैंने इतना ही कहा ।

हर कल्प में राम का अवतार होता है…

गौरांगी ! मैं इन दिनों “पवनपुत्र की आत्मकथा” लिख रहा हूँ ना… तो मैंने कई ग्रन्थ देखे हैं… मैं कल एक “तमिल रामायण” भी देख रहा था… हिंदी अनुवाद था… उसमें एक विचित्र बात लिखी है… उसमें धोबी की बात जब भगवान राम सुन लेते हैं… तब लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर मन्त्रणा कर रहे होते हैं… तब सीता जी उनके पास जाती हैं… राम जी चुप हो जाते हैं सीता जी को देखते ही… तब सीता जी… राम जी की ओर देखकर कहती हैं- हे राम ! मैं जानती हूँ तुम लक्ष्मण को क्या कह रहे हो… पर इस अवतार में मैं ये होने नही दूंगी… तुमने हर रामावतार में मेरा परित्याग किया है… पर इस बार ये सीता ऐसा तुम्हें करने नही देगी…।

इतना कहकर क्रोध में भर कर सीता जी चली जाती हैं… राम, लक्ष्मण की ओर देखते हैं… और लक्ष्मण को कहते हैं- इस अवतार में अब ये सीता के परित्याग की लीला सम्भव नही है ।

गौरांगी ! मेरी इस “पवनपुत्र की आत्मकथा” में… भरत जी को हनुमान जी उस प्रसंग को भी सुनायेंगे… जिसमें अर्जुन के रथ की ध्वजा में हनुमान जी रहे… अर्जुन के अभिमान को तोड़ा… ये सब हनुमान जी भरत जी को सुनाने वाले हैं । मैंने गौरांगी को कहा ।

पर ये कैसे ? कृष्णावतार तो तब हुआ ही नही था… भरत जी तो त्रेतायुग के हैं… राम जी के भाई हैं… और रामावतार के बाद ही तो कृष्णावतार हुआ है… भरत जी को कैसे सुना देंगे ? द्वापर युग की कथा ? गौरांगी ने फिर पूछा ।

मैंने कहा- गौरांगी ! कृष्णावतार मात्र 5000 वर्ष पहले की ही घटना तो नही है ना ?

अच्छा बताओ… वेदों में कृष्ण का नाम है या नही ?

है ना ? …मैंने पूछा ।

है… गौरांगी ने उत्तर दिया ।

तो… वेदों का इतिहास तो इससे भी ज्यादा पुराना है… राम से भी पुराना है… फिर उसमें ये सब वर्णन कैसे है…?

मैंने समझाया… गौरांगी ! ये सब लीलाएं होती रहती हैं… अस्तित्व में… चल ही रही हैं… इन्हें मात्र इतिहास का हिस्सा मानकर नही देखना चाहिए… हर कल्प में रामावतार है…।

अनन्त बार रामावतार हो चुका है… और अनन्त बार कृष्णावतार ।

गौरांगी सोच रही है… फिर बोली – हाँ …बात सही कह रहे हैं आप !


तू हनुमान बनेगा ! बड़ा होकर राम भक्त हनुमान बनेगा… है ना ?

बड़े प्यार से मेरी माँ अंजनी मुझे कहती थीं…

भरत जी को अपनी आत्मकथा सुना रहे हैं… अवध के उद्यान में बैठकर… हनुमान जी ।

भरत भैया ! मैं अपनी माँ की गोद में बैठा-बैठा सुनता रहता था राम कथा… सुनाने को तो मेरी माँ मुझे अन्य भगवत् चरित्रों को भी सुनाती थीं… पर मुझे राम चरित से ही प्यार था ।

“मैं हनुमान ही तो हूँ”…

अपनी माँ की ठोढ़ी पर हाथ रखकर मैं कहता था ।

नहीं… तुझे “राम भक्त” हनुमान बनना है… फिर राम कथा सुनाती थीं… किसी और कल्प की राम कथा ।

मैं झूमने लग जाता था… राम कथा सुनते हुए…

मेरी माँ उस राम कथा में हनुमान के चरित्र को भी सुनाती थी… पर मुझे लगता था… और मैं कहता भी था… हनुमान ने ठीक नही किया… प्रभु राम को क्यों कष्ट देना… रावण को मारकर ही आ जाते… लंका तो गए ही थे…।

पर भरत भैया ! अब लगता है… ठीक किया था उस कल्प में उन हनुमान ने… स्वामी की आज्ञा के बिना कैसे मार देते दशानन को !

मैंने भी तो यही किया…।

पर बचपन में जब मैं राम कथा सुनता था ना… तब मुझे लगता था… सीता जी को लेकर ही आ जाते… अपने कन्धे पर बैठाकर ले आते… ये मैं अपनी माँ से पूछता भी था… पर मेरी माँ हँसती थी… तू वानर है ना… इसलिये ये सब बातें नही समझेगा ।

भरत भैया ! रावण का नाम सुनते ही पता नही मुझे क्या हो जाता… मेरा खून खौलने लग जाता था…

मैं रावण को मार दूँगा माँ ! ये कहते हुए मैं उछल पड़ता था ।

इस कल्प में भी रावण है पुत्र ! …और यही लीला फिर दोहराई जायेगी… इसलिये मैं कहती हूँ… तुझे हनुमान बनना है… मेरी माँ मुझे कहती थीं ।

मैं हनुमान हूँ… मैं हनुमान बनूँगा… और उस रावण को मार दूँगा ।

नहीं पुत्र ! रावण को तो मारेंगे प्रभु श्री राम…

मेरी माँ मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहती थीं ।

भरत भैया ! पता नही क्यों ? “राम” ये शब्द मेरे कानों में जैसे ही जाते थे… मुझे आनन्द आ जाता था… मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता था… आहा !

माँ ! बताओ ना ! कहाँ हैं मेरे राम ?

माँ का पल्लू खींचते हुए जिद्द कर बैठता था मैं ।

अयोध्या में… अयोध्या… मेरी माँ बताती थीं ।

मैं जाऊँगा अयोध्या… माँ ! मुझे जाने की आज्ञा दो ना अयोध्या !

पर अभी जाकर क्या करेगा तू अयोध्या ?

अभी तो श्री राम का अवतार ही नही हुआ है… मेरी माँ कहती।

कब होगा ? माँ ! कितना समय और बचा है अवतार होने में ?

पता नही भरत भैया ! उस समय मेरी माँ आकाश में देखती थीं… फिर कहतीं – बस कुछेक वर्ष ही शेष रह गए हैं… राम को अवतार लेने में ।

तो माँ ! मैं जाऊँगा… वही जाकर रहूंगा…।

मेरे गालों को चूमती हुयी मेरी माँ कहतीं… मानव के बीच में एक वानर कैसे रहेगा ?

क्यों नही रह सकता मैं अयोध्या में ! वहाँ तो सभी के लिए स्थान है… प्रभु श्री राम का स्थान है अयोध्या… फिर एक वानर क्यों नही रह सकता ? मैं अवतार से पूर्व ही उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा… फिर उनके अवतार लेने के बाद… उनके साथ खेलूंगा… उन्हें बहुत आनन्द दूँगा… माँ ! मैं जाऊँगा अयोध्या ।

भरत भैया ! मैं जिद्द ही कर बैठा था उस दिन तो माँ से ।

तुझ में योग्यता कहाँ है सेवा की ? मेरी माँ ने कहा ।

मैं चौंक गया…।

फिर मेरी माँ मुझे गोद में लेकर बोलीं… अयोध्या में रहने और श्री रघुनाथ जी की सेवा करने के लिए कुछ तो योग्यता चाहिए ना ?

मुझे चुप करा दिया था माँ ने…।

मैं सोचता रहा… कैसे योग्यता पाऊँ ?

फिर सोचने लगा… रघुनाथ जी तो अकारण करुणावरुणालय हैं… मैं चाहे योग्य हूँ… या नहीं… पर उनकी तो अहैतुकी कृपा मेरे ऊपर बरसेगी ही… क्यों कि वो दयालु हैं… मैं अगर उनके चरणों को पाना चाहूँ तो क्या वे मुझे मना कर देंगे ?

मेरे नेत्रों से टप्-टप् आँसू बहने लगे थे…

मेरी माँ ने मुझे देख लिया… बड़े प्यार से मुझे समझाया… अयोध्या में रहना है… सभ्य मानवों के बीच में रहना है… तो पुत्र ! शिक्षा अर्जित करो…।

हनुमान जी हँसे… भरत भैया ! शिक्षा से कोई मेरे राम थोड़े ही रीझने वाले हैं… पर मेरी माँ चाहती थी कि उनका लाड़ला उच्च शिक्षा प्राप्त करे… अन्य वानरों की तरह मुझे नही बनाना चाहती थी… वो मुझे सभ्य शिक्षित विवेकवान… बुद्धिमानों में सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहती थीं… जो स्वाभाविक ही था… हर माँ यही तो चाहती है ना !

भरत भैया ! बस… मैंने जिद्द की… मुझे विद्या अध्ययन करना है ?

किससे पढूँ विद्या ?

भुवन भास्कर से… मेरी माँ ने पहले से ही मेरा गुरु भी तैयार कर दिया था ।

भास्कर ? कौन भास्कर ? मैंने पूछा ।

ये भास्कर… सूर्य ! आकाश में दिखाती हुयीं बोलीं ।

भरत भैया ! मैं हँसा… इनको तो मैंने खा लिया था ।

हाँ… पर यही होंगे तुम्हारे शिक्षा गुरु… सूर्य…

मेरी माँ ने कहा ।

मैं बहुत देर तक सूर्य को देखता रहा था… और सोचता रहा… क्या ये मुझे पढ़ायेंगे ?

शेष चर्चा कल…

अंजनी पुत्र पवन सुत नामा…
राम दूत अतुलित बल धामा…

Harisharan

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