[6]हनुमानजी की आत्मकथा

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(मैं खूब नाचा श्रीरामलला के सामने – हनुमान)

दासोहम कौशलेन्द्रस्य…
(वाल्मीकि रामायण)

भरत भैया ! मैं आ गया था विद्या अध्ययन करके… गुरु सूर्यदेव के पास से ।

उन्होंने मुझे सम्पूर्ण वेद वेदान्त… नव्य व्याकरण… सब कुछ सिखा दिया था ।

हँसे थोड़ी देर पवनसुत…

क्या हुआ ? आप हँस क्यों रहे हैं…? भरत जी ने पूछा हनुमान जी से ।

हँसते हुए बोले- अपनी माँ की आज्ञा का पालन करके… मैं जब सूर्य देव के पास में गया… विद्या अध्ययन करने के लिए…

तब मुझे देखते ही… सूर्य देव तो तेज़ गति से भागने लगे थे ।

पर मैं भी कहाँ कम था… मैं दौड़ा उनके पीछे…

और हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए दौड़ रहा था…

सूर्य देव के रथ के सारथि आरुणि ने सूर्य से कहा- ये बालक हाथ जोड़ रहा है… इसका मतलब इससे आपको कोई हानि नही है…।

मैं समझ गया था… क्यों भाग रहे हैं… सूर्य देव ।

क्यों कि बचपन में मैंने इन्हें खा लिया था ।


हाँ क्या बात है ?

आरुणि ने जब रथ रोका… तब सूर्य देव ने मुझ से पूछा था ।

आप मुझे विद्या दान दीजिये… मैंने श्रद्धा से हाथ जोड़कर कहा ।

पर तुमने तो मुझे मुँह में डाल लिया था… सूर्य देव ये बात विनोद में नही… वो सच में डरे हुए से थे ।

मैंने कहा- भगवन् ! मैं वानर जाति… भूख कहाँ बर्दाश्त होती है हम लोगों से ?

फिर विद्या अध्ययन कैसे करोगे ?

कहीं विद्या पढ़ते हुए… तुम्हें भूख लग जाए… और गुरु को ही…

सूर्य के सारथि आरुणि अपनी हँसी रोक न सके थे…।

हनुमान जी हँसते हुए बोले- मैंने बहुत विनती की… मैंने कहा- अब मैं क्षुधा का दमन कर सकता हूँ… तब जाकर माने… पर दिक्कत ये थी… कि

मैं रुक नही सकता… मैं रुक गया… तो प्रलय आ जायेगा
सूर्य देव ने कहा ।

तो कोई बात नही… आप चलते रहिएगा… मैं दौड़ते हुए आपसे विद्या अध्ययन कर लूंगा ।

आरुणि फिर हँसे थे मेरी बात पर… पता नही क्यों मुझे सूर्यदेव के सारथि आरुणि हँसमुख लगे… मेरी हर बात पर वो हँसते थे ।

पर ये कैसे सम्भव है… गुरु की ओर पीठ करते हुए विद्या अध्ययन का नियम कहाँ है ? सूर्यदेव ने मुझे समझाया ।

पर मैं कहाँ कह रहा हूँ… कि मैं आपकी ओर पीठ करके चलूँगा !

मैं तो आपकी ओर मुख करते हुए… उल्टे ही चलता रहूंगा ।

आरुणि फिर हँसे मेरी बात पर…।

पर क्या तुम ऐसा कर सकते हो ? सूर्य देव को भी आश्चर्य हुआ था ।

आपकी कृपा है मेरे ऊपर… मैं कुछ भी कर सकता हूँ ।

तब सूर्य देव ने मुझे वेद व्याकरण… शास्त्र… सबकी शिक्षा दी थी ।

आपकी गुरुदक्षिणा ? मैंने पूछा था… जब सम्पूर्ण विद्या मैंने ग्रहण कर ली तब ।

सुग्रीव की रक्षा करो… उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लो ।

(साधकों ! इंद्र ने भी ये वचन लिया था… हनुमान जी से… और सूर्य देव ने भी ये दक्षिणा में मांगा था… आनन्द रामायण में इन्द्र का अंश कहा गया है सुग्रीव को और अन्य प्रमाण में सूर्य के अंश कहे गए हैं सुग्रीव… इसे कल्प भेद की लीला मान सकते हैं)

जो आज्ञा गुरुदेव ! ऐसा कहकर मैं आ गया था विद्वान बनकर ।

पर पता है भरत भैया ! मैंने इस विद्वता को भी इसलिए स्वीकार किया था… ताकि मैं अयोध्या के सभ्य समाज में बैठ सकूँ…

क्यों कि अयोध्या में मेरे श्री राम आने वाले हैं… उनका सान्निध्य मुझे मिलेगा ।


हनुमान !

ओह ! मेरे विद्या अध्ययन करके आने के बाद ही… मेरे सामने प्रकट हो गए थे… महारुद्र भगवान शंकर ।

मैंने चरणों में प्रणाम किया ।

क्या श्रीराघवेन्द्र के दर्शन करने चलोगे अयोध्या…?

ओह ! ये क्या कह दिया था भगवान आशुतोष ने…

अन्धे को क्या चाहिये आँखें ही ना ?

मैंने तुरन्त चरण पकड़ लिए महादेव के… भगवन् ! कृपा करो ।

हाँ… अवतार हो चुका है… प्रभु श्री राम का अयोध्या में ।

मैंने सोचा तुम्हें भी ले चलूँ ? मुस्कुराते हुए महादेव बोले थे ।

चलो ! चलिए प्रभु…

पर तुम्हें नाचना पड़ेगा ? बोलो हनुमान नाचोगे ना ?

प्रभु श्री राम के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ…

अच्छा तो पूछ लो… अपनी माँ से ।

माँ ! मैं जाना चाहता हूँ… अपने लक्ष्य की ओर, बढ़ना चाहता हूँ !

माँ ! मेरे राम ही सर्वस्व हैं… माँ ! मैं अयोध्या जाना चाहता हूँ… बिना इधर-उधर की बातें कहे… मैंने सीधे ही कह दिया ।

गदगद् स्वर में मेरी माँ ने कहा- जाओ… राम को पाओ !

राम का स्नेह प्राप्त करो पुत्र !

बस फिर क्या था… मैं माँ के चरणों में प्रणाम करके… निकल पड़ा प्रभु श्री राम की ओर… महादेव का हाथ पकड़े ।


भरत भैया ! मैं बन्दर बन गया था… चार पैरों से चलने वाला बन्दर… बन्दर का बच्चा ।

वैसे बन्दर तो था… पर उपदेव था ना मैं… दो पैरों से मानव की तरह ही चलने वाला… उपदेव था… पर आज पृथ्वी के बन्दर की तरह बन गया ।

एक रेशम की डोरी महादेव ने मेरे गर्दन में बाँध दी थी… बड़े स्नेह से पूछा था… ज्यादा कस तो नही गई है ये डोरी ?

आपके प्रेम रज्जु से बंध जाएँ… इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा मेरा महादेव ! मैं उछलते हुए चल रहा था ।

पर ये क्या ! महादेव ने रूप बदल लिया था अयोध्या में पहुँचते ही… मदारी बन गए थे महादेव तो ।

हाथ में डमरू… अवध नगर के बीचों बीच… डमरू बजाना शुरू किया महादेव ने… “सुवर्ण की तरह बालों वाला एक बन्दर आया है… और क्या ठुमक-ठुमक कर नाचता है”…ये हल्ला फैलते हुए देरी नही लगी थी अयोध्या में ।

अवध के महामन्त्री सुमन्त्र जी का रथ रुक गया था उसी स्थान में… जहाँ मदारी बने महादेव खेल दिखा रहे थे… महामन्त्री भी चकित थे बन्दर और मदारी का खेल देखकर।

तुम चलोगे राज दरबार में ?

उस भीड़ में जाकर महामन्त्री ने मदारी से कहा ।

हाँ… क्यों नही…

अरे ! बन्दर देख… तेरे भाग्य खुल गए… महामन्त्री हैं ये रघुकुल के… और हमें निमन्त्रण दे रहे हैं राजमहल में नाच दिखाने का ।

मदारी ने अपने बन्दर से कहा… बन्दर ने जैसे ही सुना… वो तो नाचने लगा ।

चलो ! राजदरबार में तो नही… पर महाराज के निज महल में ।

सुमन्त्र जी ने कहा… ये सुनकर बन्दर और मदारी फिर नाचने लगे थे ।


रुको ! हम पूछते हैं…

द्वार पर ही बैठ गए मदारी बने महादेव और बन्दर के रूप में हनुमान जी…।

महामन्त्री ने रानियों की सेविकाओं से कहा… चारों राजकुमारों के लिए ये खेल बहुत रंजन कारी है… महारानियों से आप कहें…

और ऐसे सुवर्ण के रंग का बन्दर विश्व में नही पाया जाता… और क्या दिव्य नाचता है ।

महामन्त्री को प्रणाम करके… सेविका गयी… और रानियों को सारी बात बताई ।

मन्त्री जी ! क्या हुआ ? हमें प्रवेश मिलेगा कि नही ?

महादेव की लीला भी अपार है… मदारी बने हैं… और सुमन्त्र जी से पूछ रहे हैं ।

तभी सेविका ने आकर कहा… आप ले आइये… मदारी और बन्दर को… चारों राजकुमार भी उत्सुक हैं देखने के लिए ।

मदारी नाच उठा… बन्दर ! देख… हमारे भाग्य खुल गए… अब अच्छे से नाच के दिखाना…

बन्दर उछलते हुए वही नाचने लगा ।

अरे ! यहाँ नही… छोटे-छोटे राजकुमारों के आगे ।

गए भीतर… बड़े राजकुमार को जैसे ही देखा… बन्दर बने हनुमान जी… वो तो देह सुध ही भूल गए… दौड़ कर… चरणों से लिपट गए… पर ये क्या ! बड़े राजकुमार राम लला ने भी अपने हाथों से उन्हें सहलाया…।

ये नाचेगा नही क्या ?

केकैयी रानी ने कहा ।

हाँ… हाँ… क्यों नहीं… नाचेगा ना… महारानी !

ए बन्दर ! चल आ इधर… नाच के दिखा ।

डमरू बजाने लगे महादेव…

आनन्द से ठुमक-ठुमक कर… बन्दर ने नाचना शुरू किया… कभी गुलाटी खाये… कभी उछलने लगे… चारों राजकुमारों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दी थीं ।

चलिये ! महाराज चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी पधार रहे हैं…

सेविकाएं आयीं… मदारी को कहा… अब आप जाइए…

बन्दर और मदारी उदास हो गए ।

सुवर्ण का हार दिया महारानियों ने… पर हार से क्या होगा… मणि माणिक्य दिए… पर नही ।

बन्दर ने देखा बड़े राजकुमार को… राजकुमार ने भी देखा…

बन्दर के नेत्रों से अश्रु बहने लगे…

इधर बड़े राजकुमार राम लला ने रोना शुरू किया…

क्या हुआ राम लला ! क्या हुआ…? माँ कौशल्या ने पूछा ।

पर रोते जा रहे हैं… इधर बन्दर रो रहा है… उधर राम रो रहे हैं ।

दशरथ जी आये… गोद में ले लिया… राम जी को ।

मेरे राम को क्या चाहिए ?

ऊँगली के इशारे से दिखाया… राम जी ने… बन्दल ! वो बन्दल !

तोतली बोली में बोले…।

अब ये मदारी थोड़े ही देगा… अपना बन्दर !

दे दूँगा… महाराज ! आप आज्ञा तो करो !

मदारी ने खुश होते हुए कहा ।

महाराज ने सोचा भी नही था… इतनी जल्दी मान जाएगा ये मदारी ।

पर तुम्हें इसके बदले जो चाहिए मांग लो…।

कुछ नही चाहिए महाराज ! बस इस मेरे बन्दर को बड़े राजकुमार अपने से दूर न करें ।

बन्दर ताली बजाकर नाचने लगा… ख़ुशी से ।

राम लला भी आनन्दित हो गए ।

इधर आओ… हा… राजकुमार ! ये रही इस बन्दर की डोर… इसे पकड़िये… राम जी ने पकड़ा… अब इसे घुमाइए… राम जी ने घुमाया तो बन्दर नाचने लगा… सब ने तालियाँ बजाई…।

ऐसा लग रहा है… जैसे हमारा राम पहले से जानता है इस बन्दर को…
महाराज ने जैसे ही इतना कहा… राम जी ने तो… वो डोरी तोड़कर फेंक दी… अरे ! ये क्या किया ? अब तो बन्दर भाग जाएगा… कौशल्या जी ने कहा ।

पर कहाँ जाएगा ये बन्दर… नाच रहा है… राम के आगे ।

मदारी बने महादेव इस लीला को देखते हुए वहाँ से चले गए कैलाश ।


हनुमान ! आज दो वर्ष बीत गए…!

प्रभु राम ने कहा…।

अरे ! नहीं प्रभु ! अभी तो मैं आया ही हूँ आपके पास !

हनुमान जी ने उछलते हुए कहा…।

हनुमान ! जाओ तुम… तुम्हें गुरुदक्षिणा भी तो देनी है ना… अपने गुरु सूर्य देव को ?

जाओ ! किष्किन्धा जाओ… सुग्रीव के पास ।

राम जी ने कहा ।

पर आप ? आप को कैसे छोड़ दूँ नाथ !

रो पड़े हनुमान जी ।

मैं वहीं मिलूंगा तुमसे… जाओ अब…

मन को मारकर… चल पड़े थे अपनी माँ के पास… हनुमान जी ।


भरत जी हँसते हुए बोले… ओह ! आप ही थे वो बन्दर !

हाँ… मुझे याद है… सब याद है… और वो मदारी भी याद हैं… और हनुमान जी ! मैं छोटा था पर मुझे वो दृश्य भी याद है कि… जब वो मदारी आया था… तब वशिष्ठ जी भी आये थे… पिता जी ही उन्हें ले आये थे राममहल में ।

उस समय वशिष्ठ जी ने उस मदारी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया था… मैं समझ नही पाया कि गुरु जी को तो मेरे पिता भी प्रणाम करते हैं… इनकी चरण वन्दना करते हैं… फिर ऐसे महापुरुष एक मदारी को क्यों हाथ जोड़ रहे हैं ।

ओह ! अब समझा !

ये कहते हुए भरत जी ने हनुमान जी को प्रणाम किया था ।

नहीं नहीं… भरत भैया ! मैं तो आप लोगों का ही दास हूँ…।

ये कहते हुए… चरणों में गिर गए थे भरत जी के हनुमान जी ।

भरत जी ने अपने हृदय से लगा लिया था हनुमान जी को ।

दोनों महापुरुष प्रेम के अश्रु बहाते रहे थे…

शेष चर्चा कल…

शंकर सुवन केशरी नन्दन
तेज़ प्रताप महाजग वन्दन…

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