[8]हनुमानजी की आत्मकथा

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( किष्किन्धा का बाली )

बाली महाबल अति रनधीरा…
(रामचरितमानस)

किष्किन्धा को एक “वानर राज्य” कह सकते हैं… पर ये राज्य चारों ओर से राक्षसों से घिरा हुआ था… एक तरफ विराध दूसरी तरफ खर दूषण त्रिसरा… और तीसरी ओर समुद्री द्वीप में रावण ।

हनुमान जी भरत जी को ये सब बता रहे थे ।

तभी – गुरुदेव ! उठ गए हनुमान जी भी और भरत जी भी… गुरु वशिष्ठ जी जो आ गये थे इस अवध के उद्यान में ।

उठकर प्रणाम किया… दोनों ने गुरु वशिष्ठ जी को ।

मुझे महामन्त्री सुमन्त्र ने बताया कि… पवनसुत अपनी आत्मकथा भरत को सुना रहे हैं… तो सोचा दो घड़ी समय मेरे पास भी है… क्यों न पवनसुत की कथा ही सुन लूँ !

हनुमान जी संकोच से गड़े जा रहे हैं… मेरी क्या कथा भगवन् !

तुम भक्त हो हनुमान ! और भक्त की कथा का फल भगवान की कथा से भी ज्यादा होता है… और तत्क्षण फल मिलता भी है… अन्तःकरण की शुद्धि के रूप में… वशिष्ठ जी ने मुस्कुराते हुए कहा ।

बैठो… सहजता से सुनाओ हनुमान ! जैसे पहले सुना रहे थे… नही तो मुझे लगेगा कि मैंने आकर विघ्न डाल दिया… और भक्त कथा में विघ्न डालना तो अपराध है…।

सहजता से बैठ गए थे वही गुरु वशिष्ठ जी भी…।

हनुमान जी ने प्रणाम किया गुरु वशिष्ठ जी को… और आगे की बात बताने लगे ।

बहुत खतरनाक था बाली… चारों ओर राक्षसों का साम्राज्य रहने के बाद भी ये बड़े-बड़े राक्षस भी बाली से डरते थे ।

हँसते हुए बोले हनुमान जी – नित्य सुबह सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा लगाता था बाली… सातों समुद्र में सन्ध्या करते हुए चलता था ।

पर उस समय वो बोलता नही था… हनुमान जी ने कहा ।

एक दिन… रावण आया… दशग्रीव रावण आया…

बार-बार छेड़ रहा था रावण बाली को… बाली उस समय बोलता नही था… गायत्री मन्त्र का जप करते हुए चलता था… आस्तिक था ।

पर रावण माना नही… छेड़ता ही रहा… बाली को ।

तब बाली को क्रोध आया… और उसने रावण को अपनी काँख में दबा लिया… रावण दबा रहा बाली की कांख में ।

इसी घटना के बाद रावण डरता था बाली से…

हनुमान जी के मुख से ये सब सुनकर वशिष्ठ जी आज बड़े आनन्दित हैं ।

भरत भैया ! मुझे पता नही था… बाली के पास… और बाली की निगरानी करने के लिए ही प्रभु श्री राम ने मुझे किष्किन्धा भेजा था ।

निगरानी…? क्यों…?

भरत भैया ने आश्चर्य से पूछा हनुमान जी से।

ये रहस्य है… रघुनाथ जी ने मुझे ही बताया था…

क्या रहस्य हनुमान ? भरत जी आश्चर्य से हनुमान जी की ओर देख रहे हैं… वशिष्ठ जी मुस्कुरा रहे हैं…।

गुरुदेव ! आपको तो पता है ना ?

हनुमान जी ने हाथ जोड़कर पूछा गुरु वशिष्ठ जी से ।

मैं रघुकुल का गुरु हूँ… मुझे पता नही होगा ?

बाली के पास इस रघुकुल का मुकुट था… उसने जबरन अपने पास रखा हुआ था । वशिष्ठ जी ने कहा ।

हनुमान जी ने कहा – मेरे स्वामी रघुनाथ जी ने इसलिए मुझे किष्किन्धा भेजा था ।

उस मुकुट के बिना कैसे कोई राजा बन सकता था रघुकुल का ?

पर हमारा मुकुट उस बाली के पास गया कैसे ?

भरत जी का प्रश्न सही था ।

हनुमान जी एक प्रसंग सुनाने लगे थे…


देवासुर संग्राम में देवताओं को विजय दिलाकर… विमान से लौट कर आ रहे थे चक्रवर्ती दशरथ जी और माँ कैकई ।

किष्किन्धा के ऊपर से होकर जा रहा था महाराज दशरथ जी का विमान ।

तभी बाली ने रोक दिया… महाराज के विमान को ।

ओह ! ये तो बाली है… एक बार तो चक्रवर्ती महाराज भी किंचित डर से गए… क्यों कि भरत भैया ! बाली के साथ कोई युद्ध कर नही सकता था… क्यों कि जो भी इसके पास जाता… उसकी आधी शक्ति वो खींच लेता था ।

लड़ो मुझ से अवध नरेश ! या… अपना ये मुकुट मुझे दो ।

साथ में माँ केकैयी भी थीं… उनको लेकर भी डरे हुए थे महाराज दशरथ जी ।

स्वाभाविक था… स्त्री लम्पट कामी ये सब अवगुण तो होते ही हैं वानरों में ।

महाराज दशरथ जी ने अपना वो मुकुट उतार कर दे दिया था बाली को… तब जाकर बाली ने छोड़ा चक्रवर्ती सम्राट को ।

हनुमान जी ने कहा – वो मुकुट बाली के पास है… इसकी जानकारी महाराज के अलावा किसी और को थी तो माँ केकैयी को… वशिष्ठ जी बोले – मुझे भी थी ।

इस कुल का गुरु प्रारम्भ से ही मैं रहा हूँ… विधाता ने इस कुल का गुरु बनने का सौभाग्य मुझे ही दिया था ।

प्रभु श्री राम ने मुझे किष्किन्धा इसीलिए भेजा था… ताकि वो मुकुट कहीं अपने आस-पास में रह रहे राक्षसों को न दे दे… बाली… उस मुकुट की निगरानी मुझे ही करनी थी ।

पर मुझे बाली अच्छा नही लगता था… क्यों कि अहंकार इसमें बहुत था… और सबको दमन करके रखने की वृत्ती थी इस बाली की ।

केकैयी माँ गलत नही थीं भरत भैया ! उन्होंने प्रभु श्री राम को वनवास में इसलिए भेजा था… ताकि बाली का वध करके… उसी रघुकुल के मुकुट को प्रभु ले आएं ।

अभी जो मुकुट था… वो तो नकली था… झूठा था ।

असली मुकुट तो बाली के पास है… इसलिये वनवास के बहाने से कैकेई ने बाली के पास ही भेजा था ।

पर प्रभु श्री राम ने मुझे पहले ही भेज दिया किष्किन्धा में ।

किन्तु भरत भैया ! मैं ज्यादा समय तक बाली के पास में नही रह सका… मुझे वो अच्छा नही लगता था… हाँ मुझे सुग्रीव पसन्द आये… वो कमजोर हैं तो क्या हुआ… पर सरलता है… भोला है…। हनुमान जी ने कहा ।

पर आप ज्यादा समय तक बाली के पास में क्यों नही रहे ?

हनुमान जी ने भरत जी के इस प्रश्न पर कहा…

क्यों कि सुग्रीव और बाली का पहले जितना प्रेम था… किसी कारण वश शत्रुता भी उतनी ही गहरी हो गयी थी…

अगर एक-दूसरे को एक-दूसरे मिल जाते तो मार ही देते…।

भरत जी कुछ देर सोचते रहे… फिर बोले – हनुमान ! एक बात बताओ… आधी शक्ति खींच लेता था लड़ने वाले की, बाली ।

पर पवनसुत तुम भी पराजित नही कर पाते क्या बाली को ?

तुम्हारे अंदर भी असीम शक्ति है… अजेय हो ।

पर तुम्हारी भी शक्ति खींच लेता बाली है ना ?

भरत के मुखारविन्द से ये सब सुनकर वशिष्ठ जी बोले…

किन्तु पवनसुत के साथ बाली भी नही लड़ सकता था… और लड़ भी लेता… तो बाली का शरीर ही भस्म हो जाता… गुरु वशिष्ठ जी ने कहा ।

क्यों ? भरत जी ने पूछा…।

वशिष्ठ जी ने कहा… असीम शक्ति से आधी शक्ति खींचना… और उसे अपने शरीर में डालना…!

अरे ! हनुमान जी की आधी शक्ति भी कौन शरीर पचा पायेगा !

बाली को ये पवनसुत खेलते हुए मार देते…

ये कहते हुए वशिष्ठ जी उठे… और चल दिए सरजू के किनारे ।

शेष चर्चा कल…

कंचन वरण विराज सुवेसा
कानन कुण्डल कुंचित केशा…

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