मीरा चरित भाग- 46

भाणेज बावजी (जयमलजी) ने केवल कटार से आखेट में झुंड से अलग हुए एकल सुअर को पछाड़ दिया। हमारे महाराज कुमार जब आखेट पधारते हैं तो सिंह के सामने पधार ललकारकर मारते हैं। हाथी और सुअरों से युद्ध करते….।’

भोजराज ने बायाँ हाथ ऊँचा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया। मंडप से उठकर जनवासे में कुलदेव, पिताजी, पुरोहितजी को प्रणाम कर लौटे। दोनों को एक कक्ष में पधरा दिया गया। द्वार के पास निश्चिन्त मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उसके सम्मुख आ खड़े हुए।

‘मुझे अपना वचन याद है। आप चिन्ता न करें। जगत् और जीवन में मुझे आप सदा अपनी ढाल पायेंगी।’ उन्होंने गम्भीर मीठे स्वर में कहा। थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले—’यह मुँह दिखायी का नेग, इसे कहाँ रखूँ?’ उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुए कहा।

मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया।

‘यहाँ पौढ़ने की इच्छा हो तो…. अन्यथा नीचे पधारें। ज्यों मन मानें।’- भोजराज ने कहा।
‘एकलिंग के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण नहीं दिखायी देता, फिर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये हैं।’-मीरा ने आँचल के नीचे से गोपाल को निकालकर झरोखे में विराजमान करा दिया।
‘हुकम हो तो चाकर भी इनकी चरण वन्दना कर ले!’—भोजराज ने कहा। मीरा ने मुस्कराकर स्वीकृति में माथा हिलाया।
‘एकलिंगनाथ ने कृपा की। चित्तौड़ के महल भी इनकी चरणरज से पवित्र होंगे। शैव सिसौदिया भी वैष्णवों के संग से पवित्रता का पाठ सीखेंगे। उन्होंने वह हार गिरधर गोपाल को धारण करा दिया।’
‘आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया प्रभु! कृतार्थ हुआ। इस अग्नि परीक्षा में साथ दें, मेरे वचन और अपने धन की रक्षा करना मेरे स्वामी! यह घूँघट?’
वे मुस्कराये।
मीरा ने मुस्कराकर घूँघट उठा दिया। वह अतुल रूपराशि देखकर भोजराज चकित रह गये, पर उन्होंने पलके झुका लीं।

प्रातः कुँवर कलेवा पर पधारे। भोजराज के ऊपर स्त्रियों ने प्रश्नों की बौछार कर दी। छोटे भाई रतनसिंह और घूँघट डाले मीरा के साथ बैठे भोजराज ने बहुत शांति से उत्तर दिये। हारकर साली-सलहजों ने पूछा- ‘विधवाके पूत का राजवंश कौन-सा है?’

महाराणा हम्मीर को धोखे से मारने के लिये अलाउद्दीन खिलजी के किलेदार मालदेव ने अपनी विधवा बेटी के लिये घोड़ा-नारियल भेजा। सभी उमरावों के मना करने पर भी केवल मातृभूमि चित्तौड़ को देखने के लिये उन्होंने स्वीकार कर लिया। विवाह के लिये चित्तौड़ पहुँचने पर बरातियों ने मालदेवको अपने पास बिठा लिया और कहा कि कन्यादान आपके कुँवरसा कर देंगे। सोचा कि विवाह के पश्चात् हम्मीर दामाद हो जायँगे, फिर बेटी को विधवा कौन करना चाहेगा? विवाह के पश्चात् पति-पत्नी को परिचय के लिये कक्ष में भेजा गया, तब पत्नी ने कहा- ‘मैं विधवा हूँ। सात वर्ष की आयु में मेरा विवाह भाटी राजपूत के साथ हुआ था। नौ वर्ष की आयु में विधवा होने पर पिता के घर ही रहती हूँ। मेरे पिता ने विधवा और क्या विधवा होगी, सोच आपको मारने के लिये यह षड्यंत्र रचा है।’
हम्मीर ने कहा—’तुम विधवा हो या कुँवारी, मैं केवल इतना जानता हूँ कि तुम मेरी परिणीता हो।’

उसी समय द्वार पर आघात होने लगे। अर्गला टूटनेपर नव विवाहिता वधू ने अपनी पीठ द्वार पर अड़ाकर दोनों हाथ अर्गला की ठौर लगा दिये। हम्मीर ने बाहर निकलना चाहा, पर पत्नीने कहा-‘अपने जीते जी मैं आपको यमदूतों के हाथ नहीं पड़ने दूँगी।’

पत्नी के हाथ टूटने और मूच्छित होने पर हम्मीर ने उन्हें कंधे पर डाला, तलवार ले द्वार खोलकर वे सिंहनाद करते हुए शत्रुओं पर टूट पड़े और उनके बीच मे से पथ बनाते हुए अकेले जनवासे में पहुंच गए। महाराणा हम्मीर की उस पत्नी के पुत्र हुए क्षेत्रपाल, जो इतिहास में “खेता” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

स्त्रियाँ गीत गाने लगीं-

प्यारा लागो जवाँईसा म्हाँने ह्याला लागो सा।
ओ सा म्हाँरी नानी बाई रा ढोला म्हाँने प्यारा लागो सा।
पेंचा आपने सोवे जवाँईसा आपका तुर्रा भलके सा।
ओ सा म्हारा मेड़तणी कुँवर रा स्याम म्हाँने वाला लागो सा।
“छोटी साली रा जीजो सा घूँघट वाली रा नणदोइ सा।
नंदलाल रा फूफोसा म्हाँने प्यारा लागो सा।

और

पड़ला तो राजा दशरथ लावै कौर दिरावे, सीता थारा बनड़ा सीता थाँरा।
जुग जीवो ऐ जानकी थारा बनड़ा,अमर होवे ए जानकी थाँरा बनड़ा।
गहणा तो राजा दशरथ लावे चूड़लो चिरावे,सीता थांरा बनड़ा सीता थांरा।
जुग जीवो ऐ जानकी थांरा बनड़ा,अमर होवे ए जानकी थांरा बनड़ा।

भोजराज और मीरा के बीच में गिरधर को देखकर रतनसिंहजी ने पूछा ‘यह क्या टोटका है?’
‘टोटका नहीं, यह तुम्हारी भाभीसा के भगवान् हैं।’- भोजराज ने हँसकर कहा।
‘भगवान तो मन्दिर में रहते हैं। यहाँ क्यों?’
‘बींद तो बीनणी के पास ही बैठेंगे न!’- भोजराज मुस्कराये। रतनसिंह हँस पड़े-‘बींद आप हैं कि ये?’
‘यही बींद हैं, मैं तो टोटका हूँ।’
‘क्यों भाभीसा ! दादोसा क्या फरमा रहे हैं?’-रतनसिंहजी ने मीरा से पूछा। उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

हे रघुनाथ जी! मेरी तो समझ में ही नहीं आती बात।’
‘धीरे-धीरे आ जायगी।’- भोजराज हँसे।

उसी समय एक कुंवारी लड़की कपड़े की बनी स्त्री लाकर उसे रतनसिंह के पास बिठाकर उनके दुपट्टे के छोर से उसकी साड़ी की गाँठ जोड़ने लगी।
‘बाईसा ! आपके यहाँ आने वालों को लकड़ी या कपड़े की बीनणियाँ ही दी जाती हैं क्या? कहीं मेरी भाभीसा भी कपड़ेकी ही तो नहीं हैं? यदि मुझे बींद के रूप में देखने का इतना ही शौक है तो मेड़तियों के घरमें बेटी न हो तो बहू ही ला दीजिये।’ रतनसिंह की इस बात पर जो गाली की बौछारें हुई, उसकी सीमा नहीं।

बोलि उठ्यो बोलि उठ्यो रे, जीजी छिनाल वालो बोलि उठ्यो रे।

चित्तौड़ की स्त्रियों और मेड़तियों के नाम ले-लेकर गाली आरम्भ हो गयी। प्रथम ग्रास देते समय भोजराज यद्यपि उस ओर देख नहीं सकते थे, पर यह सावधानी रखी कि मीरा के मुख से हाथ छू न जाय। मीरा ने ग्रास प्रथम ठाकुरजी के मुख से छुआया, फिर भोजराज के मुख में दिया। इसी प्रकार रतनसिंह ने भी प्रथम कौर भाई और फिर भाभी को देकर खाना आरम्भ किया। बीच-बीचमें वे गालियों का उत्तर भी देते जाते थे।
क्रमशः

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