मीरा चरित भाग- 12

चार सेवक और कुछ सैनिक चारों ओर गये हैं।’–नायकने हाथ जोड़े हुए कहा । राजपुरोहितजी और दो उमरावोंके साथ दूदाजी सीधे सरिता तटकी ओर चले।
‘जी चाहता है पुरोहितजी! यहीं एक पर्णकुटी बना लूँ और भजन करूँ।’ दूदाजीने कहा।

चौंककर पुरोहितजी बोले- ‘जी महाराज!’

‘क्या सोच रहे थे महाराज?’–दूदाजी हँस पड़े। ‘बाईसा ऐसे कहाँ पधार गयीं? और….।’

‘और क्या महाराज?’–दूदाजीने पूछा। ‘कुछ नहीं महाराज! ऐसे सुंदर स्थलपर किसी संतके दर्शन हो जाते तो समय और यात्रा सफल हो जाती।’

सरिता तटसे कुछ ही दूर रहे होंगे कि साथके एक व्यक्तिने कहा
‘बाईसा वे रहीं।’ सभीने चौंककर उस ओर देखा कि एक शिलापर बैठी हुई मीरा एकाग्रतासे जल-प्रवाह देख रही हैं। उसीके साथ उन्होंने यह भी देखा कि न जाने किधर से आकर एक काले भुजंगने मीराके पीछेकी ओरसे उठकर उसके सिरपर अपना फन फैला दिया है। ये सब हतप्रभ हो हठात् रुक गये। फिर सँभलकर दूदाजीने पद आगे बढ़ाये। मनमें कई आशंकाएँ लिये सब उनके साथ चल पड़े। सबकी दृष्टि मीरापर थी। उन्होंने देखा कि उसने ( मीरा ने ) सिर उठाकर नदीके उस पार देखा और हाथ जोड़कर सिर झुकाया। मीराकी दृष्टिका अनुसरण करती नजर उस ओर गयी तो वृक्षके नीचे हाथमें कमण्डलु लिये एक महात्मा खड़े दिखायी दिये। मीराके प्रणाम करनेपर उन्होंने दूसरा हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। इन लोगोंकी पदचापसे सतर्क होकर नाग देवता भी अपना फन समेट समीपकी झाड़ीमें ओझल हो गये। दूदाजीने आगे बढ़कर, मीराको गोदमें उठाया और महात्माकी ओर चल पड़े। नदी अधिक गहरी नहीं थी। कहीं कमर और कहीं घुटनोंतक पानीको पारकर उन्होंने उनके समीप जा प्रणाम किया और कुछ दूर बैठ गये। इस ओर आनेके पूर्व ही उन्होंने एक व्यक्तिको विश्राम स्थलपर भेज दिया था कि-‘मीरा मिल गयी है। कोई चिंता अथवा खोज-ढूँढ़ नहीं करे।’

महात्मा पेड़के नीचे बैठे थे। मीराके प्रणाम करनेपर उन्होंने सिरपर हाथ रखते हुए पूछा-‘क्या नाम है वत्से?’
‘मैं राठौड़ोंकी दूदावत शाखामें उत्पन्न मीरा हूँ महाराज।’

इतनी छोटी-सी बालिकाके मुखसे ऐसा शालीन उत्तर सुनकर संत प्रसन्न हुए। उन्होंने दूदाजीकी ओर संकेत करके पूछा- “और ये कौन हैं तुम्हारे?” मीराने स्थिर दृष्टिसे महात्माकी ओर देखा। फिर हाथ जोड़कर बोली ‘इस देहके पितामह दूदाजी राठौड़ हैं प्रभु!’

‘बहुत सौभाग्यशाली हैं आप कि ऐसी पौत्री पा सके।’- संतने दूदाजीसे कहा। ‘संतोंकी, प्रभुकी कृपा ही मानो सदेह हुई है।’- दूदाजीने हाथ जोड़ मस्तक झुकाते हुए कहा। दूदाजीने अपनी यात्राका उद्देश्य निवेदन करते हुए डेरेपर पधारकर प्रसाद पानेकी प्रार्थना की और वह स्वीकृत हुई।

भोजन- विश्रामके पश्चात् पुनः चर्चासे ज्ञात हुआ कि ये संत महाराष्ट्र के प्रसिद्ध “योगी श्रीनिवृत्तिनाथ जी” हैं। परिचय पाकर दूदाजी हर्षित हुए। उन्होंने सत्संगमें भाग लेने के लिये पुनः मीराको बुलवाया। वह प्रणाम करके दूदाजीके पास बैठ गयी। ‘यहाँ आवो बेटी!’ उन्होंने मीराको अपने पास बुलाया—’क्या देख रही थी नदीके जलमें तुम?’

‘पूज्य श्रीजोशीजीके मुखसे सुना है कि भगवान का वर्ण नील कमल अथवा मेघवर्ण है। आज मुझे जलका वर्ण भी वैसा ही लगा। हाथमें लेकर देखा तो कोई रंग उसमें नहीं दिखायी दिया। जल जितना गहरा उतना ही श्याम और उथला होनेपर क्रमश: अपना रंग खोकर वह पात्रके रंग और आकारमें ढल जाता है। क्या भगवान् भी ऐसे ही….?’ –

मीराने वाक्य अधूरा छोड़कर महात्माकी ओर देखा। हृदयकी गहराई, स्वच्छता, कोमलता और बुद्धिकी तीक्ष्णता उन नेत्रोंमें झलक उठी थी..!!

उस दृष्टिसे प्रभावित हो योगी श्रीनिवृत्तिनाथ कुछ क्षणोंको मौन रह गये, फिर बोले- ‘हाँ पुत्री! भगवान का कोई रंग नहीं है। बहुत गहरे होनेसे ही ये श्याम लगते हैं और देह रूपी पात्रमें उसीके अनुरूप ढल गये लगते हैं, किन्तु पात्र और रंगमें ढलनेपर भी जल, जल ही रहता है, वैसे ही नाना रूपोंमें ढले होनेपर भी उनकी भगवत्ता तनिक भी कम नहीं होती। जलके श्याम होनेका एक कारण यह भी है बेटी! कि उसमें आकाशका प्रतिबिम्ब दिखायी देता है।’

‘तो गहराई कुछ नहीं?’– मीराने पूछा।

‘नहीं बेटी! मुख्य तो वही है, किन्तु गगनके प्रतिबिम्बको भी नकारा नहीं सकता।’

‘समझी भगवन्! यह नाना देह दृश्य कर्मोके प्रतिबिम्ब हैं, किन्तु मुख्य तो भगवत्ता ही है। यही न?’

संत चकित हो मीराका मुख निहारने लगे।

‘एक संतसे योगासन भी सीख रही थी यह।’ दूदाजी बोले-‘इसके गुरुका कहना है कि अष्टांग योगके ज्ञातासे शिक्षा दिलवायी जाय। वे जितना जानते थे उतना सिखा चुके। इसी प्रकार संगीतकी शिक्षा भी पायी है। दोनों ही गुरु किसी उच्चकोटिके शिक्षकको ढूँढ़नेकी राय देकर विदा हुए हैं। ‘

योगी श्रीनिवृत्तिनाथने मीरासे योग और संगीत विषयक कुछ प्रश्न पूछे और उसके उत्तर तथा स्वरसे संतुष्ट होकर उसे शिष्या रूपमें स्वीकार करनेकी स्वीकृति दी। ‘राव दूदा!’ उन्होंने कहा—’यह बालिका उच्चकोटिकी भक्त, ज्ञानी, संगीतज्ञ और योगिनी होगी। आप अभी डाकोरनाथके दर्शन करने जा रहे हैं और मैं पुष्कर जा रहा हूँ। यदि आपके लौटने तक मैं पुष्कर रहा तो प्रभु इच्छासे अवश्य ही जो गुरु-कृपासे मुझे प्राप्त हुआ है, इसे देनेका प्रयत्न करूँगा।’

‘बाबोसा ! हम डाकोरजी क्यो जा रहे हैं?’

‘भगवान के दर्शन करने बेटी!’

‘वहाँ क्या भगवान् साक्षात् विराजमान हैं? पूज्य जोशीजी तो कहते हैं कि अन्तर्यामी रूपसे भगवान् सर्वत्र उपस्थित हैं, तब क्या वे मेड़तामें नहीं हैं?’

इसका उत्तर श्रीनिवृत्तिनाथजीने दिया-‘यो तो भगवान् सर्वत्र हैं बेटी! किन्तु कोई-कोई स्थल भगवान की लीला-विशेषके कारण अथवा उनके किसी भक्तके सांनिध्यसे विशेष प्रभावशाली हो जाता है। उनके दर्शन-स्पर्शसे मनकी शुभैषाको बल मिलता है। इस प्रकार साधारणजनोंके लिये वे तीर्थ हो जाते हैं।’

मीराने जानना चाहा कि डाकोर तीर्थ कैसे हुआ?

श्रीनिवृत्तिनाथजीने बताया-
‘डाकोरमें एक गृहस्थ भक्त रहते थे। उनका नियम था कि प्रत्येक एकादशीको द्वारिका जाकर रात्रि जागरण करते और प्रात: प्रसाद लेकर प्रस्थान करते। वृद्ध होनेके कारण वे बैलगाड़ीसे आने-जाने लगे। प्रभुसे भक्तका यह परिश्रम – थकान सहा न गया। एक बार जागरणके मध्य उनको झपकी आ गयी। उन्होंने देखा कि स्वयं श्रीद्वारिकाधीश सम्मुख उपस्थित हैं। वह शोभा-सुषमा और ऐश्वर्य देखकर वे मत्त हो गये। उन्हें लगा, प्रभु कह रहे हैं, ‘अब तुम वृद्ध और निर्बल हो गये हो । प्रति एकादशी तुम्हारा यह आना-जाना मुझसे सहा नहीं जाता, किन्तु क्या करूँ, तुम्हारे बिना मुझे भी एकादशी अच्छी नहीं लगती। ऐसा करो, तुम मुझे ही डाकोर ले चलो। हम दोनों साथ ही रहेंगे।’– ऐसा कहकर प्रभु अन्तर्धान हो गये।
क्रमशः

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