मीरा चरित भाग 7

ठाकुरजीको ही बाहर ले जाकर दिखा देती न? सारे रनिवासमें दौड़म-दौड़ मच गयी।’

‘बीनणी! काला री गत कालो इ जाणे। यों भी बूढ़े और बच्चे मित्र होते हैं, फिर दोनों ही भगत हों तो कहना ही क्या? तुम्हीं कहो, मीरा को छोड़कर और किसी की हिम्मत है अन्नदाता हुकमके सामने ऐसी बेतुकी बात करने की? औरों को छोड़ो, उनके बेटे ही नहीं बोल पाते अपनी बात। किसी और से वे कहलवाते हैं। केवल यही ऐसी लाडल पूत है, जिसकी हर बात उन्हें मान्य है।’

दूदाजी ने भगवान को प्रणाम किया और बोले- ‘बेटा! ठाकुरजी को लकड़ीके बाजोठ पर क्यों? आज ही मैं चाँदी का सिंहासन मँगवा दूँगा।’

‘हाँ, बाबोसा ! मखमल के गादी-मोड़े, रेशम की दोवड़, किमखाब के बागे, पौढ़ने के लिये चन्दनका हिंडोला, पलंग, पूजा के लिये चाँदीके बर्तन और भोग के लिये सोने के बर्तन भी मँगवा दीजियेगा।’

‘अवश्य बेटा! अवश्य, आज साँझ तक सब वस्तुएँ आ जायेंगी।’ ‘अरे, सबसे आवश्यक बात तो मैं भूल ही गयी। इनका नाम क्या है बाबोसा?” ‘इनके नामका और गुणोंका कोई पार नहीं है बेटा ! तेरे ठाकुर जी हैं सो मीरा के ठाकुरजी और क्या?”

‘नहीं, नहीं, ऐसा कहीं होता है? ठाकुरजी को ठाकुरजी ही कहना चाहिये क्या? आपको तो कोई भी मेड़ता के दूदाजी नहीं कहता। आप तो नाम बताइये इनका।’

‘नाम तो सदा बराबर वालों के प्रयोगके लिये होते हैं। अन्य सब तो सम्बन्धों और पदके अनुसार ही सम्बोधन करते हैं। मनुष्यका तो एक ही नाम होता है, परन्तु ये तो अनन्त नाम, रूप और गुणों के स्वामी हैं। उन नामोंमेंसे जो भी तुझे प्रिय लगे,वही नाम चुन ले।’

“आप नाम लीजिये बाबोसा ! मुझे जो अच्छा लगेगा, वही आपको बता दूँगी।’

‘ठीक है। कृष्ण, गोपाल, मनमोहन, गोविंद, माधव, केशव, मुरलीमनोहर, गिरधर….।”

‘बस, बस, बाबोसा!’ मीरा उतावलीसे बोली- ‘यह गिरधर नाम सबसे अच्छा है। इस नाम का अर्थ क्या है?”

‘दीवाली के दूसरे दिन अन्नकूट होता है न? जिस दिन अपने चारभुजानाथको छप्पन भोग अर्पित किये जाते हैं, अपने यहाँ उस दिनको ‘खेंकरा’ कहते हैं। याद है तुझे, उस दिन गायों को भड़काया जाता है और शाम को बैलों की पूजा होती है?”

‘हाँ बाबोसा ! बैलों की पूजा आप या बड़े कुँवरसा (वीरमदेवजी) करते हैं। उस दिन क्या हुआ था?’

‘बूढ़ा हो गया हूँ न, इसलिये इतने सारे बैलोंकी पूजा नहीं कर पाता। दस-पाँचकी मैं कर लेता हूँ, फिर तुम्हारे बड़े कुँवरसा करते हैं। हाँ, तो मैं कह रहा था..दीवालीके दूसरे दिन व्रजमें इन्द्र यज्ञ होता था। भगवान् कृष्णने उसको बन्द करवाकर गोवर्धन पर्वतकी पूजा आरम्भ करवायी। इससे इन्द्रको क्रोध चढ़ आया और उसने व्रजपर खूब जोरकी वर्षा करवा दी। बड़े-बड़े आधा सेर के ओले पड़ने लगे और बैल बाँधने की रस्सी होती है न, वैसी मोटी-मोटी धाराएँ पानीकी पड़ने लगीं। ओलोंकी मार और पानी की बौछारों से लोग घबराये। उन्होंने भगवान को पुकारा। भगवान् सबको लेकर गोवर्धन के समीप गये और उसे हाथसे ऊपर उठाकर छत्रकी भाँति तान दिया। व्रजके लोग अपने ढोर-डंगर, छोरा-छोरी और गँठड़ी मुठड़ी लेकर उसके नीचे आ घुसे। सात दिन तक प्रभु अपने बायें हाथ की छोटी उँगली पर पर्वत उठाये रहे और दाहिने हाथसे बंसी बजाते रहे! वे निरन्तर वंशीवादन इसलिये करते रहे कि किसीका ध्यान समय और भूख-प्यास-थकानकी ओर न जाय। अपना चक्र व्रजके ऊपर छोड़ा कि वर्षा के जोर और ओलोंसे किसी के घर-झोपड़े न ढह जायँ। चक्रने सब जल सोख लिया। सातवें दिन वर्षा बंद हुई तो उन्होंने सबसे घर जानेको कहा। उनके निकल जानेपर पर्वत ज्यों-का त्यों नीचे रख दिया। उस दिनसे उनका नाम गिरिधारी अथवा गिरधर पड़ा। समझी बेटा!”
-कहते हुए दूदाजीने मीराकी ओर देखा, देखते ही वे चौंक पड़े।

कुछ करें, इसके पूर्व ही मीरा के पास खड़े एक बालकने–’क्या हुआ मीरा?’ कहकर उसे हाथसे हिलाया और मीरा चेतनाहीन मूर्ति की भाँति भूमि पर जा गिरी। दूदाजी शीघ्रतापूर्वक उसे गोदमें उठाकर बाहर के महलोंमें चले गये। बच्चों के मुखसे सारी घटना सुनकर स्त्रियाँ चिंतित होकर सोचने लगीं कि हँसती-खेलती बालिकाको अकस्मात् ऐसा क्या हो गया?

जन्मदात्री माँ की चिन्ता और चिन्तन….

रात्रि विश्राम के लिये जब रतनसिंहजी पत्नीके कक्षमें आये तो उनके मुखसे मीराको ठाकुरजी प्राप्त होने, दूदाजीके रनिवासमें पधारने और पुत्रीके अचेत होने की बात सुनी।

‘बेटी न सहेलियोंके साथ गुड़िया खेलती है और न अन्य दूसरे खेल। अन्नदाता हुकम उसे संगीत शिक्षा दिला रहे हैं सो तो फिर भी ठीक है, वैसे आवश्यकता तो उसकी भी नहीं है। उसे क्या महफिलोंमें गाना है कि विधिवत सीखें? साधारण भजन और समय-समयपर गाये जानेवाले गीत तो अपने यहाँकी दासियाँ और दमामणियाँ (गाने-बजानेवाली एक जाति, जिसे दमामी कहा जाता है और उनकी स्त्रियोंको दमामणियाँ कहते हैं) सिखा देंगी। फिर भी सीखे तो कोई बात नहीं, किंतु यह योग! रनिवासमें इस बातकी बहुत चर्चा है कि बेटीकी जात योग सीखकर क्या करेगी? इसे क्या ससुराल नहीं जाना है? और जायगी तो क्या वहाँ आसन लगा आँख मूँदकर बैठनेके लिये कोई ले जायेगा? उसे घर-गृहस्थीके कार्य नहीं आयेंगे तो दासियों की भूल कैसे पकड़ सकेगी? राजनीति नहीं जानेगी तो पतिकी समस्याको कैसे समझेगी? शस्त्राभ्यास नहीं करेगी तो अच्छे-बुरे समयमें किसका मुँह ताकेगी? कोई मुझे इस प्रकारकी बातें पूछता है तो उत्तर ही नहीं सूझ पड़ता। मैं स्वयंको ही नहीं समझा पाती तो औरोंको क्या बताऊँगी। बेटीको कुछ कहूँ तो कब और कैसे? उसे अपने शिक्षकोंसे और पूजासे जो थोड़ा-बहुत अवकाश मिलता है, उसे वह जोशीजी का माथा खाने और अन्नदाता हुकम से पंचायत करने में खर्च कर देती है। यदि भोजन, स्नान, पूजा और शयन न करना हो तो वह कभी रनिवास में पैर ही न रखे। मैं समझ नहीं पाती कि पुरुषों जैसे स्वभावकी यह पुत्री भगवान ने कैसे दे दी?’–कहते-कहते वीर कुँवरीजीकी आँखोंसे आँसू बहने लगे।

‘भगवान्ने ऐसी पुत्री कैसे दी, सो तो नहीं जानता, किन्तु झालीजी! मैंने अनेक बार दाता हुकम और संतोंके मुखसे सुना है कि मीरा साधारण बालिका नहीं है। इसके माता-पिता होनेका यश प्रदानकर भगवान ने हमपर बहुत कृपा की है। उसकी जन्म पत्रिका और संतोंकी भविष्यवाणीके अनुसार जैसी शिक्षा की उसे जीवन में आवश्यकता है, वैसी ही शिक्षाका प्रबन्ध दाता हुकमने किया है। वे हम तुमसे अधिक समझदार हैं और न भी हों तो क्या यह शोभायुक्त है कि हम उनके द्वारा दी जा रही शिक्षामें मीन-मेख निकालें और अपनी इच्छानुसार उसकी शिक्षाका प्रबन्ध करें? मीरा ही क्या, हम भी तो उन्हीं के हैं।
क्रमशः

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