राधा कृष्ण लीला

जय हो
। जय श्री कृष्ण जय श्री राधे ।
निकुन्ज में प्रियालालजू विराज रहे हैं। दोनों एकटक एक-दूसरे को ऐसे देख रहे हैं, मानो कभी प्रत्यक्ष मिले ही न हों और आज ही प्रथम-दर्शन हो रहा हो। निकुन्ज में निरन्तर वसन्त ऋतु ही रहती है। यहाँ सूर्य-चन्द्र का प्रभाव नहीं देखा जाता जब तक स्वयं किशोरीजी ही संकेत न कर दें। एक अदभुत दिव्य प्रकाश यहाँ के वृक्षों, लताओं और पुष्पों से निकलता रहता है, मखमली दिव्य दूर्वा श्रीजी के कोमल चरणों का स्पर्श करती है। दूर्वा में से भी एक नील-आभा निकलती रहती है जो श्रीकिशोरीजी के चरण पड़ने पर एक अनुपम अलौकिक दिव्य-आभा में परिवर्तित हो जाती है। इस आभा के रंग को कोई नाम देना संभव नहीं। यह आभा निकुन्ज को छोड़कर कहीं संभव भी तो नहीं। यहाँ दूर्वा, लता-पता, वृक्ष, कुमुदनी, पुष्प, शुक-सारिका, मयूर के रुप में श्रीकिशोरीजी के ही परिकर, किंकर, मंजरी, विमलात्मायें उनकी कृपा और उनके होने के भाव को सफ़ल कर रहे हैं। यहाँ सब उन्हीं श्रीयुगल से प्रकट तो सभी चैतन्य ! कोई जड़ पदार्थ है ही नहीं !
श्रीलालजी पीताम्बर के छोर को अपने दायें हाथ में लपेटे हुए हैं और एक टहनी को बायें हाथ से झुकाकर पकड़े हुए हैं और सामने किशोरीजी अपलक उन्हें निहार रही हैं; सहसा नन्दलाल के हाथ के भार से टहनी कुछ और झुक गयी। भार से झुक गयी? वृक्ष के रुप में विराजमान श्रीजी के प्रिय-परिकर की इच्छा हो आयी कि आज एक साथ दोनों का ही स्पर्श-सुख मिले सो किशोरीजू से मानसिक अनुमति ले वह झुकी तो लगा कि श्रीश्यामसुन्दर के कर-कमल के भार से झुकी है और जब श्यामसुन्दर को भान हुआ तो उन्होंने उस टहनी को छोड़ दिया ताकि वह टूट न जाये किन्तु छूटने से पूर्व उसने किशोरीजी की वेणी को स्पर्श करते हुए सहसा उसे खोल दिया।
किशोरीजी के कांधों पर बिखर गयी केश-राशि। श्यामसुन्दर ने स्वयं को अपराधी घोषित करते हुए दन्ड के रुप में वेणी-गुंथन की इच्छा प्रकट की। नयन झुकाकर मुस्करा दीं श्रीजू और मनोवांछित प्रदान किया श्रीलालजी को।
निकुन्ज में मणि-मन्डित चबूतरे पर बैठ गयीं किशोरीजी। पुकारा प्रियादासी को। प्रफ़ुल्लित, प्रमुदित, आहलादित चली आयी वह। ला दीं कंघी और दर्पण। किशोरिजी ने देखा कि दोनों को देख कुछ अन्य ही भाव से लजाकर मुस्करा रही है वह !
“क्या हुआ? प्रिया !”
“कुछ भी तो नहीं ! स्वामिनी !”
मुस्कराते हुए भाग खड़ी हुयी वह। निहार रही है कुछ दूर से।
हो गया वेणी-गुंथन ! ऐसी वेणी गुंथी है जैसी पूर्व में कभी नहीं गुंथी। ऐसी निपुणता से गूंथी है मानो यह उनका नित्य का ही कार्य हो। सुकोमल केश-राशि को सुकोमल करों का स्पर्श मिला है और जब वे बाँधना चाहें तो कौन न बँधे?
“राधेजू ! तनिक दर्पण में निहारो तो ! उचित प्रकार से बँधी है कि नहीं?”
श्रीकिशोरीजी ने बायें कर-कमल से दर्पण को उठाया; दर्पण क्षणार्ध को अचकचा गया कि कहीं लीला में व्यवधान न कर दूँ किन्तु पुन: चिंतन किया कि श्रीयुगल की कृपा से सत्य को सत्य दिखलाना ही तो मेरा कार्य है, जीवन है सो प्रमुदित हो उठा लीला-पात्र बनकर। किशोरीजी ने दर्पण में अपने को निहारा और लजा गयीं ! अरे ! यह क्या? इसमें तो श्यामसुन्दर दिख रहे हैं ! अब वेणी कैसे देखूँ और क्या उत्तर दूँ?
हठात खिलखिलाने का स्वर निकुन्ज में गूँज उठा। देखा तो प्रिया-सखी। चेत हुआ प्रिया-प्रियतम को। विरह-भाव से चिंतन के कारण इस निकुन्ज की लीला के पूर्व ही श्रीयुगल परिवर्तित हो गये थे। श्रीकिशोरीजू हो गयीं थीं श्यामसुन्दर और श्यामसुन्दर हो गये थे श्रीकिशोरीजू ! अब दर्पण ने दिखलाया सत्य ! वेणीगुंथन श्रीकिशोरीजी का कब हुआ? वह तो हुआ प्यारे श्यामसुन्दर का और वह भी श्रीकिशोरीजी के कर-कमलों से ! श्रीयुगल सहित सम्पूर्ण निकुन्ज भर उठा हास्य-ध्वनि से, आनन्द से, आहलाद से !
निकुन्ज के वृक्ष, लताओं से पुष्प-वर्षा हो रही है और मयूर नृत्य करते हुए कह रहे हैं – “जय हो ! जय हो !! जय हो !!!



जय हो । जय श्री कृष्ण जय श्री राधे । निकुन्ज में प्रियालालजू विराज रहे हैं। दोनों एकटक एक-दूसरे को ऐसे देख रहे हैं, मानो कभी प्रत्यक्ष मिले ही न हों और आज ही प्रथम-दर्शन हो रहा हो। निकुन्ज में निरन्तर वसन्त ऋतु ही रहती है। यहाँ सूर्य-चन्द्र का प्रभाव नहीं देखा जाता जब तक स्वयं किशोरीजी ही संकेत न कर दें। एक अदभुत दिव्य प्रकाश यहाँ के वृक्षों, लताओं और पुष्पों से निकलता रहता है, मखमली दिव्य दूर्वा श्रीजी के कोमल चरणों का स्पर्श करती है। दूर्वा में से भी एक नील-आभा निकलती रहती है जो श्रीकिशोरीजी के चरण पड़ने पर एक अनुपम अलौकिक दिव्य-आभा में परिवर्तित हो जाती है। इस आभा के रंग को कोई नाम देना संभव नहीं। यह आभा निकुन्ज को छोड़कर कहीं संभव भी तो नहीं। यहाँ दूर्वा, लता-पता, वृक्ष, कुमुदनी, पुष्प, शुक-सारिका, मयूर के रुप में श्रीकिशोरीजी के ही परिकर, किंकर, मंजरी, विमलात्मायें उनकी कृपा और उनके होने के भाव को सफ़ल कर रहे हैं। यहाँ सब उन्हीं श्रीयुगल से प्रकट तो सभी चैतन्य ! कोई जड़ पदार्थ है ही नहीं ! श्रीलालजी पीताम्बर के छोर को अपने दायें हाथ में लपेटे हुए हैं और एक टहनी को बायें हाथ से झुकाकर पकड़े हुए हैं और सामने किशोरीजी अपलक उन्हें निहार रही हैं; सहसा नन्दलाल के हाथ के भार से टहनी कुछ और झुक गयी। भार से झुक गयी? वृक्ष के रुप में विराजमान श्रीजी के प्रिय-परिकर की इच्छा हो आयी कि आज एक साथ दोनों का ही स्पर्श-सुख मिले सो किशोरीजू से मानसिक अनुमति ले वह झुकी तो लगा कि श्रीश्यामसुन्दर के कर-कमल के भार से झुकी है और जब श्यामसुन्दर को भान हुआ तो उन्होंने उस टहनी को छोड़ दिया ताकि वह टूट न जाये किन्तु छूटने से पूर्व उसने किशोरीजी की वेणी को स्पर्श करते हुए सहसा उसे खोल दिया। किशोरीजी के कांधों पर बिखर गयी केश-राशि। श्यामसुन्दर ने स्वयं को अपराधी घोषित करते हुए दन्ड के रुप में वेणी-गुंथन की इच्छा प्रकट की। नयन झुकाकर मुस्करा दीं श्रीजू और मनोवांछित प्रदान किया श्रीलालजी को। निकुन्ज में मणि-मन्डित चबूतरे पर बैठ गयीं किशोरीजी। पुकारा प्रियादासी को। प्रफ़ुल्लित, प्रमुदित, आहलादित चली आयी वह। ला दीं कंघी और दर्पण। किशोरिजी ने देखा कि दोनों को देख कुछ अन्य ही भाव से लजाकर मुस्करा रही है वह ! “क्या हुआ? प्रिया !” “कुछ भी तो नहीं ! स्वामिनी !” मुस्कराते हुए भाग खड़ी हुयी वह। निहार रही है कुछ दूर से। हो गया वेणी-गुंथन ! ऐसी वेणी गुंथी है जैसी पूर्व में कभी नहीं गुंथी। ऐसी निपुणता से गूंथी है मानो यह उनका नित्य का ही कार्य हो। सुकोमल केश-राशि को सुकोमल करों का स्पर्श मिला है और जब वे बाँधना चाहें तो कौन न बँधे? “राधेजू ! तनिक दर्पण में निहारो तो ! उचित प्रकार से बँधी है कि नहीं?” श्रीकिशोरीजी ने बायें कर-कमल से दर्पण को उठाया; दर्पण क्षणार्ध को अचकचा गया कि कहीं लीला में व्यवधान न कर दूँ किन्तु पुन: चिंतन किया कि श्रीयुगल की कृपा से सत्य को सत्य दिखलाना ही तो मेरा कार्य है, जीवन है सो प्रमुदित हो उठा लीला-पात्र बनकर। किशोरीजी ने दर्पण में अपने को निहारा और लजा गयीं ! अरे ! यह क्या? इसमें तो श्यामसुन्दर दिख रहे हैं ! अब वेणी कैसे देखूँ और क्या उत्तर दूँ? हठात खिलखिलाने का स्वर निकुन्ज में गूँज उठा। देखा तो प्रिया-सखी। चेत हुआ प्रिया-प्रियतम को। विरह-भाव से चिंतन के कारण इस निकुन्ज की लीला के पूर्व ही श्रीयुगल परिवर्तित हो गये थे। श्रीकिशोरीजू हो गयीं थीं श्यामसुन्दर और श्यामसुन्दर हो गये थे श्रीकिशोरीजू ! अब दर्पण ने दिखलाया सत्य ! वेणीगुंथन श्रीकिशोरीजी का कब हुआ? वह तो हुआ प्यारे श्यामसुन्दर का और वह भी श्रीकिशोरीजी के कर-कमलों से ! श्रीयुगल सहित सम्पूर्ण निकुन्ज भर उठा हास्य-ध्वनि से, आनन्द से, आहलाद से ! निकुन्ज के वृक्ष, लताओं से पुष्प-वर्षा हो रही है और मयूर नृत्य करते हुए कह रहे हैं – “जय हो ! जय हो !! जय हो !!!

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