भगवान् की भक्तिमें आडम्बर की आवश्यकता नहीं है। बाहरी दिखावा तो वहाँ होता है, जहाँ भीतरकी अपेक्षा बाहरका—करनेकी अपेक्षा दिखानेका महत्व अधिक समझा जाता है। भक्ति तो भीतरकी वस्तु है—करनेकी चीज है, इसमें दिखावा कैसा? बस, चुपचाप मनको चले जाने दो उनके श्रीचरणोंमें और मस्त हो रहो। जब तुम्हारे पास मन ही अपना न होगा, तब दूसरी बात सोचोगे कैसे? दिन-रात आलिंगन करते रहो अपने प्रीयतमका भीतरके बंद कमरेमें और बाहरको भूल जाओ। वस्तुतः ऐसी अवस्थामें—इस मस्तीकी मौजमें बाहरकी याद आती ही किसे है?जय श्री राम
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