मन की पवित्रता

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भगवान की पूजा करने के लिए शारीरिक पवित्रता से ज्‍यादा जरूरी है मन की पवित्रता। पढ़िए यह किस्‍सा:

रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर में अपने भक्तों के साथ बैठे थे। उस मंडली में नरेंद्र नहीं थे। वह कई दिनों से नहीं आए थे। बेचैन होकर ठाकुर रामकृष्ण ने अपने एक भक्त से कहा, ‘जाओ, देखो तो नरेंद्र कहां है। उसे ढूंढ़कर ले आओ। उसे देखने का बहुत मन कर रहा है।’ गुरुभाई से नरेंद्र को संदेश मिला कि ठाकुर रामकृष्ण ने उन्हें याद किया है। भला गुरु का आदेश सुनकर वह कैसे रुकते। वह गुरुजी के पास पहुंचे। तब तक शाम हो चुकी थी।

ठाकुर जी ने कहा, ‘अरे नरेंद्र! आओ बाबा। बहुत दिनों से तुम्हारे मुंह से भजन नहीं सुना है। तुम्हें देखे बिना मन को तसल्ली नहीं मिलती। देखो, तुम्हारे लिए मिठाइयां भी रखी हुई हैं।’ नरेंद्र ने जवाब में कहा, ‘आज मैं होटल से खाकर आया हूं।’ होटल में खाने की बात बताकर वह कोई बहादुरी नहीं जताना चाह रहे थे, बल्कि वह ठाकुर जी को सतर्क करना चाह रहे थे कि घर का सामान, बर्तन वगैरह छूने पर आपत्ति हो तो सतर्क हो जाएं। ठाकुर रामकृष्ण इस बात को ताड़ गए। थोड़ी देर तक चुप रहे, फिर उन्होंने नरेंद्र को पास में बुलाकर बैठाया और स्नेह से उनके ऊपर हाथ फेरते हुए कहा, “देखो नरेंद्र! तुमने होटल में खाया, इससे तुम्हारे हाथ में कोई दोष तो नहीं आ गया। मैं तो जानता हूं, तुम्हारा मन पवित्र और तुम्हारी श्रद्धा अद्वितीय है।”

ठाकुर ने आगे फिर कहा, ‘यदि कोई तामसिक भोजन करके भी भगवान के प्रति सच्ची निष्ठा और श्रद्धा रखता है, तो वह सात्विक भोजन के बराबर है। लेकिन अगर कोई विशुद्ध शाकाहारी भोजन करके भी विषय वासना में डूबा रहेगा, तो वह अखाद्य भोजन के समान होगा।’ उन्होंने कहा, “भोजन से अधिक महत्वपूर्ण है ‘मन का भाव।’ जिसके मन में पवित्रता है, जो श्रद्धा से भरा है, उसका स्पर्श कैसे अपवित्र हो सकता है!

  • ईश्वर सत्य है –
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