प्रेमी भक्त उद्धव

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श्रीहरिः

सारे जगत् के आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं। यह जगत् तभी सुखी होता है, शान्ति पाता है, जब अपनी आत्मा भगवान् की सन्निधिका अनुभव करता है। बिना उनके इसमें सुख नहीं, शान्ति नहीं, आनन्द नहीं।

परंतु श्रीकृष्णकी आत्मा क्या है, कौन-सी ऐसी वस्तु है, जिसके बिना श्रीकृष्ण भी छटपटाते रहते हैं और जिसे पाकर उनका आनन्द अनन्त-अनन्त गुना बढ़ जाता है। वह हैं श्रीराधा।

श्रीराधा ही श्रीकृष्णकी आत्मा हैं और उन्हींके साथ रमण करनेके कारण श्रीकृष्णको आत्माराम कहा गया है१। श्रीकृष्णके बिना राधा प्राणहीन हैं और राधाके बिना श्रीकृष्ण आनन्दहीन हैं।

ये दोनों कभी अलग होते ही नहीं। अलग होनेकी लीला करते हैं और इसलिये करते हैं कि लोग परम प्रेमका, परम आनन्दका साक्षात् दर्शन करें। इनके दर्शन श्रीकृष्णमें, श्रीराधामें ही सम्पूर्ण रूपसे प्राप्त हो सकते हैं।

आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ।
आत्माराम इति प्रोक्त ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभि:॥

जबसे श्रीकृष्ण मथुरा गये, तबसे राधाकी विचित्र दशा थी। रातको नींद नहीं आती, दिनको शान्तिसे बैठा नहीं जाता, कभी वृत्तियाँ लय हो जाती हैं तो कभी मूर्च्छित।

कभी पागल-सी होकर नाना प्रकारके प्रलाप करती हैं तो कभी सुरीली वीणाके तारोंको छेड़कर मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरके गुणानुवादोंका गायन करती हैं।

२ एक-एक पल बड़े दु:खसे किसी प्रकार व्यतीत करती हैं और इतनी बेसुध रहती हैं कि रात बीत गयी, दिन बीत गया, इन बातोंका इन्हें पतातक नहीं चलता।

आँसुओंकी धारा बहती रहती है, समझानेसे, सान्त्वना देनेसे उनकी पीड़ा और भी बढ़ जाती है।

वीणां करे मधुमतीं मधुरस्वरां ता-
माधाय नागरशिरोमणिभावलीलाम्।
गायन्त्यहो दिनमपारमिवाश्रुवर्षै-
र्दु:खान्नयन्त्यहह सा हृदि मेऽस्तु राधा॥

उद्धव जिस समय उनके पास पहुँचे उस समय वे मूर्च्छित थीं। उद्धवने उन्हें जाकर देखा तो वे गद्‍‍‍गद हो गये; भक्तिसे उनकी गरदन झुक गयी। सारे शरीरमें रोमांच हो आया।

वे श्रद्धाके साथ स्तुति करने लगे। उन्होंने कहा—‘देवि! मैं तुम्हारे चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ। तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है। तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यप्रिया आह्लादिनी शक्ति हो।

वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं, तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो। जब वे महाविष्णु हैं, तब तुम महालक्ष्मी हो। जब वे सदाशिव हैं, तब तुम आद्याशक्ति हो।

जब वे ब्रह्मा हैं, तब तुम सरस्वती हो। जब वे राम हैं, तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो। जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक्-पृथक् नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक् नहीं हैं।

ज्ञान और विद्या, ब्रह्म और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला जैसे एक हैं, वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो। वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो।

देवि! यह मूर्च्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो।’

उद्धवकी प्रार्थना सुनकर ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ कहती हुई राधा होशमें आयीं। उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा—‘श्रीकृष्णके समान शरीर और वेष-भूषावाले तुम कौन हो?

तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा है? अवश्य उन्होंने ही तुम्हें भेजा है। अच्छा बताओ, वे यहाँ कब आवेंगे? मैं उन्हें कब देखूँगी? क्या उनके कमल-से कोमल शरीरमें मैं फिर कभी चन्दन लगा सकूँगी?’ उद्धवने अपना नाम-धाम बताकर आनेका कारण बताया।

राधिका कहने लगीं—‘उद्धव! वही यमुना है। वही शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु है। वही वृन्दावन है और वही कोयलोंकी कुहक है। वही चन्दन-चर्चित शय्या है और वही साज-सामग्री है। परंतु मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं?

इस दासीसे कौन-सा अपराध बन गया! अवश्य ही मुझसे अपराध हुआ होगा। हा कृष्ण, हा रमानाथ, प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो?’ इतना कहकर राधा फिर मूर्च्छित हो गयीं।

उद्धवने उन्हें होशमें लानेकी चेष्टा की। सखियोंने बहुत-से उपचार किये, पर राधाको चेतना न हुई। उद्धवने कहा—‘माता! मैं तुम्हें बड़ा ही शुभ संवाद सुना रहा हूँ।

अब तुम्हारे विरहका अन्त हो गया। श्रीकृष्ण तुम्हारे पास आवेंगे। तुम शीघ्र ही उनके दर्शन पाओगी। वे तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करेंगे।’

‘श्रीकृष्ण आयेंगे’ यह सुनकर राधा उठ बैठीं। क्या वे सचमुच आयेंगे? हाँ, अवश्य आयेंगे। राधाने उद्धवका बड़ा ही सत्कार किया।

अनेकों प्रकारके दान देकर, उद्धवको भोजनपान कराकर उन्हें वर दिया कि ‘तुम्हें सब सिद्धियाँ मिल जायँ, तुम भगवान् के दास बने रहो और तुम्हें उनकी पराभक्ति प्राप्त हो। उद्धव! तुम उनके पार्षद और श्रेष्ठ पार्षद होओ।’*

सर्वसिद्धिं हरेर्दास्यं हरिभक्तिं च निश्चलाम्।
पार्षदप्रवरत्वं च पार्षदं च हरेरिति॥
जब उद्धव विदा होनेके लिये श्रीराधासे अनुमति लेनेको आये, तब श्रीराधाने कहा—‘उद्धव! हम अबला हैं।

हमारे हृदयका हाल कौन जान सकता है? मुझे भूलना मत, मैं विरहसे कातर हो रही हूँ। मेरे लिये घर और वनमें अब कोई भेद नहीं रह गया है। पशु और मनुष्य एक-से जान पड़ते हैं।

जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्तिमें कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता। चन्द्रमा-सूर्यका उदय, रात और दिनका होना-जाना मुझे मालूम नहीं है। मुझे अपनी ही सुधि नहीं रहती।

श्रीकृष्णके आनेकी बात, उनकी लीला सुनकर, गाकर कुछ क्षणोंके लिये सचेतन हो जाती हूँ। मुझे चारों ओर कृष्ण-ही-कृष्ण दीखते हैं, मैं निरन्तर मुरली-ध्वनि ही सुनती हूँ।

मुझे किसीका भय नहीं है। किसीकी लज्जा नहीं है। कुलकी परवा नहीं है। मैं उन्हींको जानती हूँ।

उन्हींको भजती हूँ। ब्रह्मा, शंकर और विष्णु जिनकी चरणधूलि पानेके लिये उत्सुक रहते हैं, उन्हें पाकर मैं उनसे बिछुड़ गयी। मेरा कितना दुर्भाग्य है, कोई मेरा हृदय चीरकर देख ले। उनके अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है।

उद्धव! क्या अब उनके साथ क्रीड़ा करनेका प्रेम-सौभाग्य मुझे नहीं प्राप्त होगा? क्या अब वृन्दावनके कुंजोंमें अपने हाथोंसे मालती, माधवी, चम्पा और गुलाबके फूलोंकी माला गूँथकर उन्हें नहीं पहनाऊँगी?

अब वे वसन्त-ऋतुकी मधुर रजनियाँ, जिनमें राधा और माधव विहरते थे, पुन: न आयेंगी?’ राधा पुन: मूर्च्छित हो गयीं।

सखियोंके और उद्धवके जगानेपर राधा पुन: होशमें आयीं और कहने लगीं—‘उद्धव! इस शोक-सागरसे मुझे बचाओ। मुझे समझाने-बुझानेसे कोई लाभ नहीं होगा।

उनकी बातें याद करके मेरा मन चंचल हो रहा है। विरहिनीकी वेदना कोई विरहिनी ही जान सकती है। सीताको कुछ-कुछ इसका अनुभव हुआ था। मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पीड़ाका किसे विश्वास होगा?

मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे-जैसी दु:खिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है। मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी। दैवने मुझे ठग लिया!

उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं। उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं।

उनकी मधुर स्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है। मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है। मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ। मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ?

ऐसी कोई वस्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं, जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ।

स्थितिकी गति सम्भव है, परंतु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है।’ राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं।

वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे। करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा!

उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे। वे राधासे अनेकों प्रश्न करते और प्रेमका रहस्यज्ञान प्राप्त करते, ग्वालोंके साथ वनोंमें घूमते, नन्द-यशोदाके साथ श्रीकृष्णलीलाका कीर्तन और श्रवण करते, गौओंके साथ खेलते, वृक्षोंका आलिंगन करते और लताओंको देखते ही रह जाते।

उनका रोम-रोम प्रेममय हो गया, वे ग्वाले हो गये। पता नहीं, परंतु पता है भी कि उनका हृदय गोपीभावमय हो गया। वे वन-वनमें गाते हुए विचरने लगे।

उनके हृदयसे यह संगीत निकलने लगा—‘केवल गोपियोंका जन्म ही सार्थक है। यही वास्तवमें श्रीकृष्णकी अपनी हो सकी हैं। ब्राह्मण होनेसे क्या हुआ, जब श्रीकृष्णमें प्रेम नहीं।

बड़े-बड़े मुनि जिसकी लालसा करते रहते हैं, वह इन गोपियोंको प्राप्त हो गया। कहाँ ये वनमें रहनेवाली गाँवकी गँवार ग्वालिनें और कहाँ श्रीकृष्णमें इनका अनन्त प्रेम! परंतु इससे क्या हुआ;

जानें या न जानें, ज्ञान हो या न हो, श्रीकृष्णसे प्रेम होना चाहिये। अनजानमें भी अमृत पी लिया जाय तो लाभ होता ही है। बिना जाने भी श्रीकृष्णसे प्रेम हो जाय तो वे अपनाते ही हैं।

देवपत्नियोंको, इन्दिरा, लक्ष्मीको जो प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ, वह इन गोपियोंको प्राप्त हुआ है। ये श्रीकृष्णके शरीरका स्पर्श प्राप्त करके कृतार्थ हो गयी हैं। मैं अब वृन्दावनमें ही रहूँ।

मनुष्य न सही, पशु-पक्षी ही सही, वृक्ष ही सही और नहीं तो एक तिनका ही सही। इनके चरणोंकी धूलि तो प्राप्त होगी न! आह!

श्रुतियाँ जिनके चरण-चिह्नोंकी खोजमें लगी हैं, ये गोपियाँ उन्हें पाकर, उनसे एक होकर, उनके प्रेममें तन्मय हो गयी हैं। क्यों न हो, स्वजन और आर्यपथका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंको अपना लेना आसान थोड़े ही है!

लक्ष्मी जिनकी अर्चना करती हैं, आप्तकाम आत्माराम जिनका ध्यान करते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल अपने हृदयपर रखकर इन्होंने हृदयकी जलन शान्त की है। मैं तो इनकी चरणधूलिका भी अधिकारी नहीं हूँ।

मैं चरणधूलिकी ही वन्दना करता हूँ! उद्धव उनकी चरणधूलिमें लोटने लगते। दो दिनके लिये आये थे, महीनों बीत गये!

मथुरा जानेके दिन उद्धवके सिरपर हाथ रखकर राधाने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो। तुम्हारा सर्वदा कल्याण हो। भगवान् से तुम्हें परमज्ञान प्राप्त हो और तुम सर्वदा भगवान् के परम प्रेमपात्र रहो*।

राधाने आगे कहा—‘सर्वश्रेष्ठ वस्तु श्रीकृष्णका प्रेम है। सर्वश्रेष्ठ कर्म उन्हें प्रसन्न करनेवाला कर्म है। सर्वश्रेष्ठ जीवन उन्हें समर्पित जीवन है। उसी व्रत, ज्ञान और तपस्याकी सफलता है जो उनके उद्देश्यसे है। उद्धव! वही परात्पर परिपूर्णतम ब्रह्म हैं।

श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं, ज्योति:स्वरूप हैं, तुम उन्हीं परमानन्दस्वरूप नन्दनन्दनकी सेवा करो। सारे उपदेशोंकी सफलता इसीमें है।’ उद्धवको ऐसा अनुभव हुआ, मानो मैंने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे अपना वस्त्र गलेमें बाँधकर राधाके चरणोंसे लिपट गये।

शरीर पुलकित, आँखोंमें आँसू और राधाके वियोगसे कातर होकर जोर-जोरसे रोना! बस, यही उद्धवकी दशा थी, वे वहाँसे जाना ही नहीं चाहते थे। गोपियोंने बहुत समझाया, राधाने श्रीकृष्णके लिये बाँसुरी और बहुत-से उपहार दिये तथा कहा कि ‘जाकर तुम यही प्रयत्न करना कि श्रीकृष्ण यहाँ आवें, मैं उन्हें देख सकूँ।’

राधाकी अनुमति प्राप्त करके उद्धव
नंद बाबाके पास गये।

शुभं भवतु मार्गस्ते कल्याणमस्तु सन्ततम्।
ज्ञानं लभ हरे: स्थानात् कृष्णस्य सुप्रियो भव॥

नन्दबाबाने, ग्वालबालोंने उद्धवसे कहा—‘उद्धव! अब तो तुम जा ही रहे हो। श्रीकृष्णको हमारी याद दिलाना। यह मक्खन, यह दही और ये वस्तुएँ उन्हें देना।

यह बलरामको देना, यह उग्रसेनको देना और यह वसुदेवको देना। हम और कुछ नहीं चाहते, केवल यही चाहते हैं कि हमारी वृत्तियाँ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें लगी रहें।

हमारी वाणीसे उन्हींके मंगलमय मधुरतम नामोंका उच्चारण होता रहे और शरीर उन्हींकी सेवामें लगा रहे।

हमें मोक्षकी आकांक्षा नहीं, कर्मके अनुसार हमारा शरीर चाहे जहाँ कहीं रहे; हमारे शुभ आचरण और दानका यही फल हो कि श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारा अहैतुक प्रेम बना रहे।’

उद्धव मथुरा लौट आये। जानेके समय वे माथुरोंके वेषमें गये थे और लौटनेके समय ग्वालोंके वेषमें आये। उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण! तुम बड़े निष्ठुर हो।

तुम्हारी करुणा, तुम्हारी रसिकता सब कहनेभरकी है। मैंने व्रजमें जाकर तुम्हारा निष्ठुर रूप देखा है। जो तुम्हारे आश्रित हैं, जिन्होंने तुम्हें आत्मसमर्पण कर दिया है, उन्हें इस प्रकार कुएँमें डाल रहे हो, भला, यह कौन-सा धर्म है?

छोड़ो मथुरा, अब चलो वृन्दावन। वहीं रहो और अपने प्रेमियोंको सुखी करो। औरोंकी संगति छोड़ दो, प्रेमका नाम बदनाम मत करो।’ उद्धव श्रीकृष्णके सामने रोने लगे, वृन्दावन चलनेके लिये हठ करने लगे।

उनकी हिचकी बँध गयी, वे एक-एक करके सभी बातें कह गये।

श्रीकृष्णकी आँखोंमें भी आँसू आये बिना न रहे। वे प्रेमाविष्ट हो गये, उनकी सुध-बुध जाती रही! उस समय उनका सच्चा स्वरूप प्रकट हो गया और उद्धवने देखा कि श्रीकृष्णका रोम-रोम गोपिकामय है।

जब श्रीकृष्ण सावधान हुए तब उन्होंने उद्धवसे कहा—‘प्यारे उद्धव! यह सब तो लीला है। हम और गोपियाँ अलग-अलग नहीं हैं। जैसे मुझमें वे हैं, वैसे ही उनमें मैं हूँ। प्रेमियोंके आदर्शके लिये यह संयोग और वियोगकी लीला की जाती है।’

उद्धवका समाधान हो गया। उन्होंने सबके भेजे उपहार दे दिये और श्रीकृष्णके पास रहकर वे प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करने लगे।

श्री राधे राधे

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