भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पित कर देना

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं भक्त में बहुत सारे गुणों का समावेश होता हैं।भक्त केवल मन्दिर में दर्शन करने वाला ही नही होता।वह सदैव दूसरों के कल्याण की बात सोचता है।ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पित कर देना और सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना भी भक्ति ही है। अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पित कर देना और अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता न रखना ही भक्ति की आत्मनिवदेन अवस्था है। भक्त में अनेक गुण होते हैं ,उसे अहंकार,लोभ और क्रोध से सदैव बचना चाहिए। तभी उसका कल्याण होगा ।पढिये कथा।गुस्सा कहाँ से आता है, गुस्सा कैसे आता है इसे समझने के लिए एक संत की कहानी का उदाहरण पढ़िए. आपको बड़ी आसानी से जवाब मिल जायेगा।
एक संत जब भी ध्यान लगाने बैठते, कोई न कोई व्यवधान आ ही जाता. कभी कोई शोर होने लगता तो कभी किसी की बातचीत की आवाजें।संत महाराज चिड़चिड़ा उठते, गुस्सा से भर जाते. एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि वो अपने मठ से दूर कहीं ध्यान लगायेंगे.।
पहले उन्होंने सोचा घने जंगल में चलूँ. घनघोर जंगल में जाकर वह ध्यान लगाने बैठ गए।बड़ी शांति थी वहाँ पर. संत जी ध्यान की गहराईयों में उतरने ही वाले थे कि कोई पंछी बड़े जोर से आवाज़ करते हुए गुजरा. उसकी आवाज़ सुनकर बाकी पक्षी और जानवर भी कोलाहल करने लगे।
संत जी के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा।बड़बड़ाते हुए संत महाराज उठ खड़े हुए और वहां से से भी चल दिए।
उन्होंने सोचा क्यों न पानी में चलें, वहाँ तो कोई व्यवधान न मिलेगा. ये विचारकर संत महाराज एक विशाल झील के पास पहुंचे. झील का पानी शांत और स्वच्छ था, बड़ा ही मनोरम लगता था।आशापूर्वक संत जी ने एक नाव खोली और खेते हुए झील के मध्य जा पहुंचे. वाकई यहाँ कोई शोर न सुनाई देता था, संत जी प्रसन्न हुए. वो नाव में ही आख बंदकर ध्यान लगा कर जम गये।आधे घंटे हुए थे कि अचानक संत जी की नाव में एक ठोकर लगी. बंद आँखों के अंदर ही संत जी गुस्से से भरने लगे, उन्होंने मन में सोचा कौन लापरवाह नाविक मेरी साधना भंग करने आ टपका।
वो आंख खोलते ही उसपर बरसते, मगर जब उन्होंने आंखे खोली तो वो अवाक रह गये।
वो एक खाली नाव थी जो उनकी संत की नाव से आ टकराई थी. सम्भवतः घाट पर कोई नाव खुली रह गयी थी, जो हवा के बहाव से धीरे-धीरे बहते हुए उनकी नाव के पास आ गयी थी।
उस क्षण संत जी को यह बात समझ आ गयी कि गुस्सा तो उनके भीतर ही भरा है, बस कोई बाहरी उत्प्रेरक मिलते ही वह बाहर आ जाता है।
इस घटना के बाद जब भी उस संत को कोई गुस्सा दिलाता या नाराज करता, वो स्वयं को याद दिलाते – ये आदमी भी एक खाली नाव ही है, गुस्सा तो मेरे भीतर ही भरा है।जय जय श्री राधेकृष्ण जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *